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अध्याय- 2 ( प्रबन्ध गायन शैली | गायन के 22 प्रकार
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प्रबन्ध गायन शैली
प्रबन्ध गायन शैली- भारतीय संगीत में प्रबन्ध एक प्राचीन गायन शैली है । भरतकाल में ध्रुवगीत का अस्तित्व था और इससे पूर्व शुद्ध गाथा , पाणिका , नायक गीत शैलियों थीं । मतंग के समय में प्रबन्ध गीत – शैली पूर्णरूप से अस्तित्व में आ चुकी थी । वृहद्देशी अन्य में प्रबन्ध के प्रयोग का वर्णन मिलता है और इन्हीं प्राचीन प्रबन्धों के के बाद की प्रत्येक शैली के निर्माण का योग मिलता है । यह सर्वथा सत्य है कि आधुनिक काल की हिन्दुस्तानी और कर्नाटकी संगीत पद्धतियों में जो लिपिबद्ध रचनाएँ हैं , वे प्राचीनकाल के प्रबन्धों से मिलती हैं । प्रबन्ध शब्द अत्यन्त प्राचीन है । शास्त्रों में गायन के ‘ अनिबद्ध ‘ और ‘ निबद्ध ‘ भेद दिए गए हैं –
- अनिबद्ध , इसका अर्थ ताल से मुक्त अर्थात् आलाप जैसा गायन है ।
- निबद्ध , जो ताल में बँधा हुआ होता है , उसे निबद्ध कहा जाता है ।
स्वर , ताल और पद ये तीन तत्त्व हैं , जिनका ‘ बन्ध ‘ निबद्ध गान में आवश्यक है । भारतीय संगीत में प्रबन्धों या गीत शैलियों के विभिन्न प्रकार समय – समय पर प्रचलित रहे हैं । शास्त्रों में निबद्ध गान के तीन नाम मिलते हैं ; जैसे- प्रबन्ध , रूपक , वस्तु । इनमें प्रबन्ध सर्वाधिक प्रचलित नाम है ।
बृहद्देशी मतंग मुनि कृत ग्रन्थ ” Brihaddeshi” by matanga muni
रूपक और वस्तु के बारे में इस लेख में नीछे बताया गया है ।
प्रबन्ध का शाब्दिक अर्थ
प्रबन्ध शब्द ‘ प्र ‘ उपसर्ग ‘ बन्ध ‘ धातु व ‘ धन्न ‘ प्रत्यय से बना है , जिसका अर्थ अच्छी तरह से बंधा हुआ है ।
” प्रकष्ट रूपेण बन्धः इति प्रबन्धः ”
अर्थात् स्वर , ताल और छन्दों से अच्छी प्रकार नियोजित गेय रचना प्रबन्ध कहलाती है । धातु व अंगों को सीमा में बाँधकर जो रूप बनता है , वह प्रबन्ध कहलाता है । भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में नृत्य सम्बन्धी ‘ ध्रुव ‘ और ‘ गीत ‘ दो प्रकार के प्रबन्धों का उल्लेख किया है । सर्वप्रथम प्रबन्धों के स्वरूप का उल्लेख मतंग की वृहद्देशी में मिलता है । 49 देशी प्रबन्धों का वर्णन इन्होंने अपने ग्रन्थ में किया है । शारंगदेव ने अपने संगीत रत्नाकर ग्रन्थ में 75 प्रबन्धों का वर्णन किया है ।
सूड़ प्रबन्ध ‘ में पूर्वा सम्बन्ध अनिवार्य रूप से होता है , जबकि ये विप्रकीर्ण प्रबन्ध मुक्तक की भाँति पूर्वा पर सम्बन्ध से रहित होते हैं और स्वतन्त्र रूप से गाए जाने का वैशिष्ट्य रखते हैं । अलिक्रम प्रबन्ध की स्थिति सूड तथा विप्रकीर्ण प्रबन्धों के बीच की समझी जाती है ।
मतंग ‘ के काल ( 8 ई . ) तक देशी संगीत में असंख्य प्रबन्धों का निर्माण हो चुका था , इनमें से कुछ निम्न हैं – कन्द , आर्या , गाथा , द्विपदी , त्रिपदी , चतुरंग , मातृका , वस्तु , हंसपद , गजलीला , कैवाट , एला इत्यादि । इनमें वर्ण्य वस्तु तथा गायक का नाम रहता था और इनमें स्वर , पद , पाट ( मृदंगाक्षर ) तथा तेनक का यथोचित उपयोग होता था ।
कैवाट ‘ नामक प्रबन्ध केवल पाट या तालाक्षरों से ही बनता था । झप , मठ , कंकाल तथा प्रतिताल जैसे तालों में प्रबन्धों की रचना होती थी । यह प्रबन्ध रत्नाकर काल तक विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित रहे हैं । पण्डित शारंगदेव के पश्चात् भारतीय संगीत में ध्रुपद , घमार , ख्याल जैसे नए प्रबन्धों का प्रादुर्भाव हुआ ।
प्रबन्ध का मुख्य स्रोत भरतकालीन ध्रुवागीत थे । इनमें स्वर , लय , पद और ताल का पूर्ण समन्वय था तथा वैदिक कालीन संगीत की ऋक , पाणिका और गाथा आदि के अनुसार शास्त्रोक्त रीति से अलंकृत करने पर ध्रुवागीत की रचना की गई , जो आगे चलकर प्रबन्ध गीत ‘ के नाम से प्रचलित हुए । प्रबन्ध गान को ‘ निवद्ध संगीत ‘ के अन्तर्गत रखा गया है । निबद्ध गान की तीन संज्ञाएँ प्रबन्ध वस्तु एवं रूपक है ।
प्रबन्ध के अंग
प्रबन्ध के अंग- जिस प्रकार घ्रुपद की आकृति हेतु स्वर , शब्द और लय की प्रधानता होती है , उसी प्रकार प्रबन्ध हेतु छः अंगों को प्रधान माना गया है जिनका विस्तृत विवरण निम्न प्रकार हैं
- स्वर स्वर नामक अंग से षड्जादि ध्वनियाँ और उनके सांगीतिक स्वर स , रे , ग आदि स्वराक्षरों का मान होता है । प्रबन्ध में प्रयुक्त किए गए । शुद्ध एवं विकृत स्वर ही प्रबन्ध के प्रथम अंग हैं ।
- विरुद ‘ गुणोल्लेखतया यत् तत् विरुद ‘ मानव स्तुति को विरुद कहा गया है । अतः किसी गीत के अन्तर्गत नाटक में आए हुए पात्रों के सम्बन्ध में जो जानकारी दी जाती है , वह विरुद कहलाती है ।
- पद पद से अभिप्राय शब्द समूह है । नाटक में कार्य करने वाले पात्रों के शौर्य , वीरता जैसे गुणों को प्रकट करने वाले शब्द – समूह पद कहलाते हैं ।
- तेनक तेनक को ‘ तेन ‘ भी कहा गया है , जिसका अर्थ मंगल ध्वनि अथवा मंगल सूचक शब्द होता है ।
- पाट पाट से अभिप्राय वाद्याक्षर है । वाद्यों में प्रयुक्त किए गए अक्षरों को ‘ पाट ‘ नाम दिया गया है । वाद्यों के ये बोल या पाट पाटाक्षर भी कहलाते हैं ।
- ताल जो प्रबन्ध गीतों की लय का मापन करती है , वह ताल कहलाती है ; जैसे – आदिताल , एकताल आदि ।
एला
एला – इस प्रबन्ध को पूर्ण प्रबन्ध कहकर सम्बोधित किया गया है । प्रबन्ध , रूपक और वस्तु तीनों निबद्ध गान के भेद हैं । एला प्रबन्ध की महिमा के समान है , जो श्रोता और प्रयोक्ता दोनों को धर्म , अर्थ और काम की सिद्धि देने वाली है ।
रूपक और वस्तु ( प्रबन्ध गायन शैली )
प्रबन्ध , रूपक और वस्तु तीनों ही निबद्ध गान के भेद हैं । जब नाटकीय तत्त्वों पर बल दिया जाता था , तो उस रचना को रूपक कहते थे , इसका बिल्कुल लोप हो चुका है । वस्तु का अर्थ अंग और धातु के मिश्रण से बनी सम्पूर्ण रचना से था । प्रबन्धों में रचना के भागों पर बल दिया जाता था , जबकि इन अंगों से बनी सम्पूर्ण रचना को वस्तु की संज्ञा दी जाती थी । पण्डित शारंगदेव के पश्चात् भारतीय संगीत में ध्रुपद , धमार , ख्याल जैसे नए प्रबन्धों का प्रादुर्भाव हुआ , तब से अब तक यह प्रबन्ध संगीत के विभिन्न घरानों में सुरक्षित है । इनका विस्तृत विवरण निम्नलिखित हैं
- • प्राचीन प्रबन्धों से यह तो स्पष्ट ही है कि श्रेणियों की बन्दिशों में ताल , राग छन्द और वस्तु निर्मित को विचित्रता , विशेष अवसर और रस का प्रभाव था ।
- प्राचीनकाल उपरान्त मध्ययुगीन ग्रन्थों में प्रबन्ध के स्वरूप में परिवर्तन आया और नए प्रबन्धों की रचना हुई ।
- दक्षिण में 17 वीं शताब्दी तक प्रबन्धों का प्रचलन था । पण्डित व्यंकटमुखी के समय तक प्रबन्धों का अस्तित्व था , किन्तु बाद में वे अप्रचलित हो गए ।
- उत्तर भारत में ध्रुपद और दक्षिण भारत में दस नए गीत प्रयोग में आए , जो आज भी प्रचलित हैं ।
- • इस तरह उत्तरी संगीत में भी प्रचलित ध्रुपद के स्थायी , अन्तरा , संचारी एवं आभोग की तुलना प्रबन्ध के अवयवों के साथ की जा सकती है ।
- • अन्ततः यदि उत्तरी एवं दक्षिणी संगीत प्रणालियों की बन्दिशों को दृष्टिपात करें , तो यह ज्ञात होगा कि इनका प्राचीन प्रबन्धों से कुछ – न – कुछ सम्बन्ध अवश्य है । और आधुनिक गीत में पाए जाने वाले दो भागों , स्थायी और अन्तरा का प्रबन्धों के दो भागों के साथ सम्बन्ध है ।
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