नाट्यशास्त्र भरत मुनि का शास्त्र – संगीत के अध्याय ) Natya Sastra – Bharat Muni

नाट्यशास्त्र भरत मुनि – Natyasastra Bharata Muni द्वारा लिखी गयी Book / शास्त्र का नाम है । नाट्यशास्त्र को संगीत का आधार ग्रंथ माना जाता है । भारत द्वारा प्रयोग में लायी गयी श्रुति सिद्धांत के आधार पर रखी गयी जातियों में समूचे लोक का संगीत समाया हुआ है । प्राचीन समय के भारतीय संगीत का यदि कोई भी शास्त्र उपलब्ध है तो वह भरत का नाट्यशास्त्र है । कनिष्क काल के दौरान ही भरत ने संगीत का प्रसिद्ध ग्रंथ नाट्यशास्त्र की रचना की । इस ग्रंथ के रचनाकार के विषय में विद्वानों के अनेक मत हैं परंतु सर्व सहमति से इसे 5वी शताब्दी का ग्रंथ मानते हैं।

विद्वानों का मत

विद्वानों की मान्यता है कि भरत का अर्थ है अभिनय करने वाला व्यक्ति । इसलिए भरत नाम नाटक के शास्त्रकारों के साथ जुड़ा है। अर्थात यह ग्रंथ किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं है ।  इनमें पाठ – भेद तथा अध्यायों एवं श्लोकों की संख्या और क्रम भेद से यह पता चलता है कि इस ग्रंथ में काफी बदलाव होते रहे होंगे । परंतु फिर भी अधिकतर विद्वान का यही मत हैं कि यह एक ही व्यक्ति की रचना हो सकती है ।

यद्यपि नाट्यशास्त्र का विषय नाट्य है संगीत नहीं है । फिरभी अपने नाटकों में संगीत का विशेष स्थान होने के कारण भरत ने नाट्य शास्त्र में संगीत पर काफी विचार किया है।  भारत ने संगीत के कई अध्याय नाट्यशास्त्र में शामिल किया है।

अध्यायों की संख्या (Number of chapters) ” नाट्यशास्त्र “- भरत मुनि

नाट्यशास्त्र में कुल अध्यायों की संख्या 36 है जिनमें ग्राम की संख्या दो मानी गई है – षड़ज ग्राम और मध्यम ग्राम जातियों की संख्या 18 मानी गई है । सर्वप्रथम जाति के दसविधि लक्षणों का उल्लेख मिलता है।

सर्वप्रथम ध्रुवा गीत का उल्लेख एवं ध्रुवा गीत के 5 प्रकारों का उल्लेख भी मिलता है। भरत ने कुल अलंकारों की संख्या 33 मानी है ।

भरत मुनि कृत नाट्यशास्त्र का प्रथम अध्याय, द्वितीय अध्याय से लेकर सत्ताईस अध्याय तक का सम्बन्ध नृत्य से है (कुल 36 अध्यायों में)। बाकी बचे हुए 6 अध्याय ( अध्याय अट्ठाईस से लेकर अध्याय तैंतीस तक ) का संबंध संगीत से है। जिसमें संगीत संबंधित तथ्य मिलते हैं। 28 से 33 अध्याय इस प्रकार हैं –

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सप्त स्वर ज्ञान के इस अध्याय में हम जानेंगे नाट्यशास्त्र में भरत मुनि द्वारा लिखी गयी संगीत के अध्याय के बारे में ।

28 वां अध्याय, Chapter 28

28 वें अध्याय में – भारत मुनि के ” वाद्यंत्रों के प्रकार और वर्गीकरण “ के विषय में इस अध्याय में वाद्य के चार भेद का वर्णन मिलता है तथा तत् अवनध, घन तथा सुषिर वाद्यों का नाटक में किस प्रकार प्रयोग किया जाना चाहिए यह भी बताया गया है । अनेक वाद्यों की सम्मिलित ध्वनि को क़ुतुप ( वाद्यवृंद ) कहा गया है। इसमें कहा गया है कि जब आतोध्य अर्थात (तंत्री वादों का वादन ) स्वर, ताल और पदों (गीत) का आश्रय लेता है तो वही गांधर्व कहलाता है ।

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यह अध्याय संगीत शास्त्र से संबंधित है तदनुसार नाट्यशास्त्र में भरत मुनि ने 28 वें अध्याय में वादों के चार प्रकार बताकर स्वरों के 7 प्रकार तथा उनके वादी संवादी आदि भेद तथा स्वर , ग्राम मूर्च्छना जाती आदि का वर्णन किया गया है । भरत मुनि कृत नाट्यशास्त्र के इस अध्याय को 151 श्लोकों में समाप्त किया गया है ।

29 वां अध्याय, Chapter 29

29 वें अध्याय में – इस अध्याय में यह बताया गया है कि किस भाव और किस रस के लिए किस जाति का प्रयोग करना चाहिए ( भरत मुनि का रस सूत्र, रस सिद्धांत )। इसके बाद गीति का वर्णन करते हुए उसके चार भेदों को बताया गया है । इसके उपरांत वाद्य वादन के लिए विस्तार, करण, अविद्ध, व्यंजन जैसी चार धातुओं को बताया गया है । इसके साथ ही तंत्र वाद्धो का वर्णन तथा वीणाओं के संपूर्ण स्वरूप की चर्चा की गई है। इस प्रकार वीणा के स्वरों के विषय में इस अध्याय में कुल 156 श्लोक हैं।

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30 वां अध्याय, Chapter 30 ” नाट्यशास्त्र ” भरत मुनि

तीसवें अध्याय में – इस अध्याय में सुषिर वाद्य (वंशी) का वर्णन है । वंशी में 4,3 और 2 श्रुतियों में उत्पन्न होने वाले स्वरों का वादन करने का विधान बताया गया है। साथ में यह भी कहा गया है कि साधारण और काकली स्वरों को किस प्रकार से उत्पन्न किया जाए । उनके अनुसार शरीरोत्पन्न यानी (कंठ ) स्वर, वीणा स्वर और वेणु के स्वरों में एकरूपता हो जाने पर वह अधिक अच्छा लगता है । इस प्रकार भरत मुनि कृत नाट्यशास्त्र के इस अध्याय में केवल 13 श्लोक हैं ।

31 वां अध्याय Chapter 31

31 वें अध्याय में – इसमें लय तथा ताल का विधान बताया गया है। उनके अनुसार कला पात और लय से युक्त काल, वह खंड जो धन वाद्यों में आता है ताल कहलाता है।  ताल भी सामान्यता निशब्द और सशब्द जैसी दो प्रकार की क्रियाओं द्वारा निर्मित होती है । इसके बाद गीत के 7  प्रकारों को समझाया है । फिर इनके द्विकल और चतुष्कल भेदों का निरूपण किया है। 502 श्लोकों में इस अध्याय को समाप्त किया गया है ।

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32 वां अध्याय, Chapter 32 ” नाट्यशास्त्र ” भरत मुनि

32 वें अध्याय में – इस अध्याय में गीत के उन प्रकारों के विषय में बताते हैं जिन्हें नारद आदि मुनियों ने ध्रुवा कहा है। जब गीत एक वस्तु में निबद्ध हो जाए तो उसे ध्रुवा , दो वस्तु में निबद्ध होने पर परिगीतिका तीन वस्तु में निबद्ध गीत को मद्रक और 4 वस्तु में निबद्ध गीत को चतुष्पदा कहते हैं ।

धुर्वा में त्रयंत्र और चतुरस्त ताल रहती है। इस अध्याय में गायकों एवं वादकों के, आचार्य के, शिष्य के, कंठ स्वर के गुण दोषों को समझाकर 525 श्लोकों में इस अध्याय को समाप्त किया है ।

33 वां अध्याय, Chapter 33

33 वें अध्याय में – इस अध्याय में अवनद्ध वादों के अंतर्गत उनकी उत्पत्ति, उपयोगिता तथा इसके साथ ही मृदंग, प्रणव व दुर्दुर वाद्यों की वादन विधि और उनके लक्षणों को बताया गया हैं। उनके अनुसार चमड़े में मढ़े् हुए जितने वाद्ध होते हैं उन्हें अवनध समझना चाहिए । इसके बाद उपहस्तों , ( कर्तरी, समहस्त, हस्त्रपाणित्रय), वर्तना और दण्ड – हस्त को समझाकर उत्तम वादकों के लक्षण एवं गुण तथा मृदंग के गुणों का को बताकर 301 श्लोकों में इस अध्याय को समाप्त किया है।

नाट्यशास्त्र को संगीत का आधार ग्रंथ माना जाता है ।

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