गीत के प्रकार- निर्गीत, ध्रुवा Geet अध्याय(20/22)

अध्याय-20 – ” गीत ” | गायन के 22 प्रकार

  1. गायन
  2. प्रबंध गायन शैली
  3. ध्रुपद गायन शैली
  4. धमार गायन शैली
  5. सादरा गायन शैली
  6. ख्याल गायन शैली
  7. तराना
  8. त्रिवट
  9. चतुरंग
  10. सरगम
  11. लक्षण गीत
  12. रागसागर या रागमाला
  13. ठुमरी
  14. दादरा
  15. टप्पा
  16. होरी या होली
  17. चैती
  18. कजरी या कजली
  19. सुगम संगीत
  20. गीत
  21. भजन
  22. ग़ज़ल

ग्रह , अंश और न्यास आदि दस लक्षणों व विशिष्ट ताल , राग , पद और मार्ग आदि चार अंगों से युक्त गायन क्रिया गीत कहलाती है । गीत के दस लक्षण है ; जैसे – ग्रह , अंश , न्यास , अपन्यास , अल्पत्व , बहुत्व , मन्द्रत्व , तारत्व , षाड़त्व और औड़त्व । गीत के मुख्य दो भेद/ प्रकार होते हैं –

गीत के प्रकार

1. बहिर्गीत या निर्गीत

येतन्तु दैत्यानां स्पर्धया द्विजाः । देवानां बहुमानेन बहिर्गीतमिति स्मृतम् ” ।।

अर्थात् इस गीत के प्रवर्तक ब्रह्मर्षि नारद हैं । राक्षसों ने इस गीत का प्रयोग करना आरम्भ किया , इसलिए देवताओं ने इसको बहिर्गीत की संज्ञा दे दी । जिस गीत में निरर्थक वर्णों या पदों का प्रयोग होता है , उसे बहिर्गीत या निर्गीत कहते हैं ।

2. ध्रुवा गीत

“ धुवा गीत्या धारो नियतः पद समूहः । ”

गीत के आधारस्वरूप नियत पद समूह को ध्रुवा गीत कहते हैं । नारद आदि महर्षियों ने अनेक गीतों की रचना की है । उन गीतों को ध्रुवा गीत कहते हैं ।

ध्रुवा गीत के निम्न प्रमुख भेद/ प्रकार हैं –

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  • प्रावेशिकी – जब नाटक के प्रथम अंक का शुभारम्भ होता है , उस समय रंगमंच पर प्रवेश करते समय जब पात्र भावों और रसों से विशिष्ट पदों का गान करता है , तो उसे प्रावेशिकी ध्रुवा कहते हैं ।
  • नैष्क्रामिकी – अंक की समाप्ति में जब पात्र अपना अभिनय समाप्त करने वाला होता है , तो उस समय पात्र जो गीत गाता है , उसे नैष्क्रामिकी ध्रुवा कहते हैं ।
  • आक्षेपिकी– नाट्य तत्त्व को जानने वाला पात्र जब नाटक में क्रम का उल्लंघन करते हुए गीत गाते हैं , तो उस गीत को आक्षेपिकी ध्रुवा कहते हैं ।
  • प्रासादिकी– जिस गीत में किसी रस की उत्पत्ति होने पर पुनः उस रसावस्था को परिवर्तित करके गान करने से आनन्द की अनुभूति होती है , उसे प्रासादिकी ध्रुवा कहते हैं ।
  • अन्तरा– जब कोई पात्र दुःख से व्याकुल , क्रोधयुक्त तथा विश्रान्त हो जाता है , तो उसके दोषों को छिपाने के लिए जो गीत गाया जाता है , उसे अन्तरा ध्रुवा कहते हैं ।

नाट्यशास्त्र के 32 वें अध्याय में ध्रुवा गीतों का वर्णन सविस्तार किया गया है । इनके अनुसार नाट्य से स्वतन्त्र गीत में ध्रुवाओं का उपयोग नहीं माना जाता है । इसलिए नाट्य से अलग संगीत के ग्रन्थों में कहीं भी ध्रुवाओं का उल्लेख प्राप्त नहीं होता ।

■ गीत रचना

  • व्यापक अर्थ में किसी कविता को जब स्वरों के वर्णों और ताल की सहायता से किसी धुन में बाँधकर गाते हैं , उसे ‘ गीत ‘ कहा जाता है ।
  • संकुचित अर्थ में गीत एक प्रकार के आधुनिक गीत को कहते हैं । गीतों को संगीतज्ञ चीज अथवा बन्दिश भी कहते हैं । केवल स्वरों की गाई जाने वाली रचना को सरगम और बजाई जाने वाली रचना परम्परा निरन्तर प्रगतिशील बदलावों के साथ चलती है ।
  • परम्परा और विधियाँ कालान्तर में निरन्तर नए प्रयोगों द्वारा सम्पुष्ट होती जाती है । सिद्धान्त बन जाने के बाद कभी – कभी काल – विशेष की परम्परा चिरकालीन होती जाती है और उसे प्राचीन पद्धति से ही प्रयुक्त करते हैं । उस दिशा में जो नए – नए प्रयोग होते हैं , सफल होने के लिए वे नई – नई शैलियाँ अथवा परम्पराएँ निर्मित करते हैं , जो स्वयं चिरकालीन बन जाती हैं ।

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