कजरी लोकगीत या कजली- उत्तर प्रदेश का Lokgeet – Kajri / Kajli अध्याय(18/22)

अध्याय- 18 ( कजरी गायन ) | गायन के 22 प्रकार

  1. गायन
  2. प्रबंध गायन शैली
  3. ध्रुपद गायन शैली
  4. धमार गायन शैली
  5. सादरा गायन शैली
  6. ख्याल गायन शैली
  7. तराना
  8. त्रिवट
  9. चतुरंग
  10. सरगम
  11. लक्षण गीत
  12. रागसागर या रागमाला
  13. ठुमरी
  14. दादरा
  15. टप्पा
  16. होरी या होली
  17. चैती
  18. कजरी या कजली
  19. सुगम संगीत
  20. गीत
  21. भजन
  22. ग़ज़ल

कजरी लोकगीत – लोकसंगीत की विधा कजली अथवा कजरी विभिन्न प्रांतों में जीवन के विभिन्न प्रसंगों , उत्सवों , त्यौहारों आदि पर गाये जाने वाले गीतादि लोकसंगीत के अंतर्गत आते है । यह विभिन्न प्रकार के स्वर , ताल , पद द्वारा गाये जाते हैं । इसी में कजरी नामक एक गीत का प्रकार है जो कि सावन में गायी जाती है यह उत्तर प्रदेश में गाया जाने वाला एक प्रकार का लोकप्रिय लोकगीत है । इसे हम ऋतु गीत भी कह सकते हैं वैसे वर्षा ऋतु में कभी भी इस गीत को गाया जा सकता है । कजरी को कजली भी कहा जाता है ।

कजरी लोकगीत का वर्णन

इसका क्षेत्र मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश का पूर्वी भाग है । मिर्जापुर और उसके आसपास का क्षेत्र कजरी के लिए अधिक प्रसिद्ध है । बनारस में कजरी मिर्जापुर से ही पहुँची जो बाद में वहाँ अपना ली गयी । इन गीतों में विरह का बहुत ही मार्मिक वर्णन मिलता है । कई गीत श्रृंगार रस के भी दिखाई देते हैं । कई गीतों में प्रकृति वर्णन का सुन्दर चित्रण मिलता है । कजरी गायन की अनेक शैलियाँ प्रचलित हैं । कुछ में ठुमरी अंग विशेष रूप से दिखाई देता है ।

प्रारम्भ में कुछ कजरी लोकगीत के उदाहरण इस प्रकार हैं –

( 1 ) सखियां झूलन चली फूल यगियन । घिर आयी कारी बदरिया ॥ फूलवा बीनें , हरवा गुथैय । सखियां …..

( 2 ) नहीं आये सजना हमार । सावनमा आई गइले ननदी ॥ इस गीत में कहरवा ताल का वजन मिलता है ।

( 3 ) कैसे खेलन जैबू , सावनमां कजरिया । बदरिया घेरी आई ननदी ॥

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सरस सावन , आँखों को सुख पहुंचाने वाली मखमली हरियाली , रिमझिम फुहार – इनका असल चित्र वस्तुत : कजरी में ही मिलता है । वैसे , देखा जाय , तो अधिकांश लोकगीत किसी – न – किसी ऋतु अथवा त्यौहार के होते हैं । वर्षा – ऋतु के आगमन पर लोगों के मन में जिस नए उल्लास एवं उमंग का संचार होता है , उसको अभिव्यक्त करती है कजरी / कजली । इसी कारण इसे वर्षा के साथ मनुष्य के तादात्म्य का सुर में , साज में और छंद में आलाप कहा गया है । सावन – भादों के महीने में बनारस , मिर्जापुर और इनके निकटवर्ती इलाके कजली से गूंजते हैं । न केवल स्त्रियाँ , बल्कि पुरुष भी कजली गाते हैं और बड़े उत्साह से गाते हैं ।

कजरी लोकगीत का नामकरण

कहा जाता है कि कजरी का नामकरण सावन के काले बादलों के कारण पड़ा है । भारतेन्दु ‘ के अनुसार , मध्य प्रदेश के दादूराय नामक लोकप्रिय राजा की मृत्यु के बाद वहाँ की स्त्रियों ने एक नए गीत की तर्ज का आविष्कार किया , जिसका नाम ‘ कजली ‘ पड़ा । कुछ लोग कजरी वन से भी इसका संबंध जोड़ते हैं ।

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पं . वलदेव उपाध्याय के विचार में आजकल की कजरी प्राचीन लावनी की ही प्रतिनिधि है । कजली का संबंध एक धार्मिक तथा सामाजिक पर्व के साथ जुड़ा हुआ है । भादों के कृष्ण पक्ष की तृतीया को ( तीजा ) कज्जली व्रत पर्व मनाया जाता है । यह स्त्रियों का मुख्य त्योहार है । स्त्रियां इस दिन नए वस्त्र – आभूषण पहनती हैं , कज्जली देवी को पूजा करती हैं और अपने भाइयों को ‘ जई ‘ बाँधने के लिए देती हैं । उस दिन वे रात – भर जागती और कजरी गाती हैं ।

अखाड़ा – दंगल की परंपरा

कजली / कजरी लोकगीत के कई अखाड़े भी होते हैं । प्रत्येक अखाड़े का अलग – अलग गुरु ( शायर ) होता है और उनके शिष्यों की परंपरा लंबी होती है । ज्येष्ट दशमी को अखाड़ों में ढोलक का पूजन करके कजली शुरू होती है और अनंत चतुर्दशी को समाप्त की जाती है । कुछ अखाड़ों में आश्विन कृष्णाष्टमी तक कजलो – गायन चलता है । पहले सभी अखाड़े कजली गाते हुए स्थानीय नदेसर मुहल्ले में इकट्ठे होते थे और वहाँ रात भर गाई जाती थी । दो गुरु – घरानों में कजली प्रतियोगिता भी हाती थी । एक अखाड़ा दूसरे अखाड़े को इलायची भेंट करके निमंत्रण देता था । काशी में कजली – दंगलों की परंपरा काफी पुरानी है ।

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लगभग बीस – चालीस गज की दूरी पर आमने – सामने दो मंच बनाए जाते हैं , जिन पर प्रतिद्वंदी अखाड़े वाले बैठते हैं । पहले एक अखाड़े का उस्ताद खड़ा होता है और सुमिरिनी से दंगल प्रारंभ होता है । उसके बाद दूसरा दल उसी छंद और उसी तर्ज में तथा उसी विषय पर कजली गाकर पहले का जवाब देता है , फिर एक कजली और गाता है , जिसका जवाब पहलेवाले दल को देना होता है । जब तक शायर जवाब सोचता है , तब तक उसके दल के अन्य सह – गायक ( जिन्हें ‘ डेवढ़िया ‘ कहते हैं ) टेक की कड़ी को दुहराते रहते हैं । गाते समय ढोलक , लकड़ी , चंग आदि बजाए जाते हैं । शायरों को प्रतिद्वंदी पर चोट करने के लिए काफी श्रम करके नए – नए विषयों और छंदों में कजलियाँ तैयार करनी पड़ती हैं । आमतौर से ये दंगल रात के दस – गयारह बजे से शुरू होकर सुबह तक चलते रहते हैं । श्रोताओं को बहुत आनन्द आता है ।

शायरों और पेशेवर गानेवालियों के बीच भी कजरी – दंगल होते हैं । किसी जमाने में , कजरी – दंगल के शायर मारकंडे , श्याम लाल , भैरों , खुदाबख्श , पलटू , रहमान , सुनरिया गौ – निहारिन आदि का बहुत नाम था । स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले राष्ट्रीय कजरी – दंगलों का आयोजन होता था । दंगल में गाई जाने वाली कजलियों का अपना अलग – अलग राग और स्वर होता है , मगर पिछले कुछ वर्षों से सिनेमा की गीतों और कव्वाली का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा है ।

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कजरी लोकगीत का विषय

कजली / कजरी लोकगीत का मुख्य विषय है , शृंगार – रस के संयोग और वियोग – पक्ष । एक ओर स्त्री अपने पति के परदेश से आगमन पर आनंद से झूम उठती है आरे बाव बहेला पुरवैया , अब पिया मोरे सोवे ए हरी , कलियाँ चुनि – चुनि सेजियाँ डसवली , सइयाँ सुतेले आधी राति । इधर दूसरी ओर प्रियतम परदेश से नहीं लौटा है । सभी सहेलियाँ तो खुशी से मगन हैं और वह अकेली विरह में तप रही है बादल बरसे , बिजुरी चमके , जियरा ललचे मोर सखिया । सइयाँ घरे न अइलें पानी बरसन लागेला मोर सखिया ।

12 ठेठ रूप में कजली की ध्वनि दो प्रकार की मानी सकती है एक को बहर या ग़ज़ल की बंदिश में कजरी – दंगलों में सुना जा सकता है । दूसरी है दुनमुनिया कजली , जिसे औरतें वृत्त बनाकर ताल देते हुए झुक – झुककर गाती कहो चित लाके , शीश नवाके , गणपति बाँके ना । सँवलिया सुत गिरजा के ना ।। शायद ही ऐसा कोई विषय बचा होगा , जिस पर कजली न लिखी गई हो । राष्ट्रीय – अंतरराष्ट्रीय समस्याओं , गांधीजी के अहिंसा – आंदोलन , गोरक्षा , ऐतिहासिक लड़ाइयों के साथ साथ ताश के खेल , कुश्ती के दाँव – पेंच , मिठाई एवं फलों के प्रकारों आदि पर भी शायरों ने कजली लिखी हैं । देवी देवताओं की प्रार्थना के रूप में भजन – कजली और निर्गुणियाँ कजली भी मिलती हैं ।

‘ ककहरा ‘ कजरी , जिसमें ‘ क ‘ से ‘ ज्ञ ‘ तक प्रत्येक अक्षर पर पंक्तियाँ लिखी गई हैं , से लेकर ‘ अधर ‘ कजरी तक लिखी गई हैं , जिसमें प – वर्ग वर्गों का प्रयोग नहीं किया जाता । कजरी के शायर लोग समाज के प्रति कितने सजग रहते थे , इसका प्रमाण इसी बात से मिलता है कि इन्होंने समाज की प्रत्येक बुराई की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया । ये अपने पूरे परिवेश से जुड़े रहते थे- बड़ी से लेकर छोटी छोटी घटनाएँ तक इन पर असर डालती थीं ।

कजरी – एक पर्व

मिर्जापुर की कजरी काफी प्रसिद्ध है । इस संबंध में एक कहावत प्रचलित है- ‘ लीला रामनगर की भारी , कजली मिर्जापुर सरनाम ‘ । अष्टभुजा के ऊपर का पर्वत वर्षाकाल में और भी सुंदर हो जाता है । नीचे पुण्यसलिला गंगा , बहुत दूर तक विंध्यमाला चारों ओर छाए हुए काले – काले मेघ – मिर्जापुर की कजरी की मादकता इनसे और बढ़ जाती है और प्रसिद्ध कवि प्रेमधन कह उठते हैं साँचहुँ सरस , सुहावन , सावन गिरिवर विंध्याचल पैरामा , हरि – हरि मिर्जापुर की कजरी लागे प्यारी रे हरी । यहाँ नागपंचमी के पहले झूले पड़ जाते हैं । कजरी तीज को ‘ कजरहवा ताल ‘ पर रात – भर कजली उत्सव होता है , जिसे सुनने के लिए श्रोताओं की अपार भीड़ होती है । से लोग बनारस से भी आते हैं और रातभर झूम – झूमकर बहुत कजरी सुनते हैं । यहाँ के कजली शायरों में वक्फत , सूरा , हरीराम , लक्ष्मण , मोती आदि के नाम लिए जाते रहे हैं ।

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चित्र खींचा है लक्ष्मण मिर्जापुरी ने विरहिणी राधा का कैसा मर्म – स्पर्शी नहिं आए घनश्याम , घेरि आई बदरी । बैठी तीरे बृज – बाम , तू न मेरो लाज धाम ॥ आई सावन की बहार , मुझे मोरवा पुकार । पड़े बुन्दन फुहार , घेरि आई बदरी ॥ कान्हा हमें बिसराय , रहे सौतन लगाय । करी कौन उपाय , घेर आई बदरी ।।

मिर्जापुर की कजरी का अपना एक रंग है और बनारस की कजरी का एक अलग रंग । इन दोनों रंगों में से कोई भी एक – दूसरे से कम नहीं । स्त्रियों द्वारा गाई जाने वाली कजलियों में अब भी वास्तविक सौंदर्य और माधुर्य सुरक्षित है ।

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दंगल में अब कजरी का स्थान धीरे – धीरे कव्वाली लेती जा रही है । पहले कजरी गाते समय हारमोनियम का इस्तेमाल नहीं होता था , अब हारमोनियम भी बजाया जाता है । 

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