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रस सिद्धान्त
रस सिद्धान्त – भारतीय संस्कृति में सौन्दर्य का लक्ष्य बिन्दु सुन्दरता ना होकर ‘ रस ‘ है । यह काव्य का मूल आधार ‘ प्राणत्व ‘ अथवा ‘ आत्मा ‘ है । रस आनन्द का स्रोत है , जिसकी संगीत में उत्पत्ति शब्द , लय , स्वर एवं ताल से होती है । सभी कलाओं में व्याप्त होने के कारण इसे रसानुभूति आनन्दानुभूति प्राप्त कराने वाला ( लक्ष्य ) माना गया है ।
रस क्या है ?
रस – संगीत में सुन्दरता की वृद्धि के लिए ‘ रस ‘ एक आवश्यक तत्त्व है । रस काव्य का मूल आधार ‘ प्राणत्व ‘ अथवा ‘ आत्मा ‘ है । रस का सम्बन्ध सृ ‘ धातु से माना गया है , जिसका अर्थ है जो बहता है ‘ अर्थात् ‘ जो भाव रूप में हदय में बहता है ‘ उसे रस कहते हैं । एक अन्य मान्यता के अनुसार रस शब्द ‘ रस ‘ , घातु और ‘ अच् ‘ प्रत्यय के योग से बना है , जिसका अर्थ है जो बहे ‘ अथवा ‘ जो आस्वादित किया जा सकता है । साधारणतया हम ‘ रस ‘ का अनुभव कर ही भावाभिव्यक्ति करते हैं । किसी भी भावनात्मक प्रस्तुति के लिए रसोनिष्पत्ति आवश्यक होती है या किसी भी सन्दर्भ में भाव के साथ रस ‘ एक प्रभावी तथ्य होता है । साहित्यशास्त्र में रस ‘ का विस्तृत वर्णन है ।
भरतमुनि द्वारा प्रतिपादित ‘ नाट्यशास्त्र में रस के स्वरूप , उसकी निष्पत्ति एवं अनुभूति के विषय में रंग – मंच एवं अभिनय के माध्यम से सविस्तार वर्णन किया गया है ।
भरतमुनि के अनुसार रस सिद्धान्त
आचार्य भरतमुनि को रस सम्प्रदाय का मूल प्रवर्तक माना जाता है । भरतमुनि का नाट्यशास्त्र मुख्यतः काव्य और नाट्य से सम्बद्ध है । नाट्यशाला में अभिनेता भावों की निष्पत्ति कर प्रेक्षक के हृदय में ‘ रस ‘ संचार करके सौन्दर्य और आनन्द को अनुभूति कराता है । दृश्य – श्रव्य नाटक को सर्वोच्च कला माना गया है , जहाँ नेत्र और कर्ण दोनों का एक साथ वर्णन मिलता है ।
भरत द्वारा रचित नाट्यशास्त्र में सर्वप्रथम रस सिद्धान्त पर व्यवस्थित चर्चा का वर्णन मिलता है । भरतमुनि ने आठ ‘ रस ‘ एवं ‘ आठ स्थायी ‘ भाव माने हैं ।
” शृंगार हास्य करुण रौद्रवीर भयानकाः । वीभत्साद्भुतसंज्ञौ चेत्यष्टौ नाट्ये रसाः स्मृता ।।
अर्थात् नाटक में रस आठ हैं , जो अग्रलिखित है – शृंगार , हास्य , करुण , रौद्र , वीर , भयानक , वीभत्स एवं अद्भुत । उपरोक्त आठ रसों में से यद्यपि भरत ने चार को ही प्रमुख माना है । ये चार है – शृंगार , करुण , वीर और वीभत्स रस , जिनसे रति , शोक , उत्साह व जुगुप्सा ( घृणा ) भाव की अनुभूति होती है ।
अन्य विद्वानों के अनुसार रस सिद्धान्त
अन्य विद्वानों के अनुसार रस सिद्धान्त प्राचीन समय से रस शब्द का संस्कृत भाषा में अनेक अर्थों में प्रयोग होता आया है । भारतीय वाङ्मय में ‘ रस ‘ का चार अर्थों में प्रयोग किया गया है , जो निम्नलिखित है
1. सामान्य अर्थ में आस्वाद से सम्बन्धित : पदार्थ का रस – पदार्थ के रस के अर्थ में प्रयुक्त होने से आशय यह है कि किसी भी पदार्थ , वनस्पति आदि को निचोड़ कर उससे निकाला हुआ तत्त्व जैसे – सन्तरे का ‘ रस ‘ और इसका आस्वादन भी रस ही है ।
2. आयुर्वेद तथा उपनिषदों में प्रस्तुत अर्थ – यदि हम वेदों के सन्दर्भ में देखें तो ‘ सामवेद ‘ तथा ‘ अथर्ववेद ‘ में ‘ रस ‘ का प्रयोग गौ – दुग्ध , मधु , सोम आदि के लिए हुआ है तथा उपनिषदों में इसे परम आनन्द के लिए प्रयोग किया गया है ।
3. साहित्य , नाट्य आदि का रस महाकाव्यों के सन्दर्भ में रस को ‘ ब्रह्मानन्द सहोदर ‘ कहकर व्याख्यायित किया गया है ।
4. भक्ति तथा मोक्ष का रस इस रस का भक्ति तथा मोक्ष के सन्दर्भ में भी प्रयोग होता है । ‘ कामसूत्र ‘ नामक ग्रन्थ में रस को रीति प्रेम आदि के लिए प्रयोग किया गया है ।
उपरोक्त वर्णन से यह ज्ञात होता है कि भारतीय साहित्य में रस के सम्बन्ध ( रस सिद्धान्त ) में गहनता से विचार किया गया है । भारतीय मनीषियों में ‘ रस ‘ सौन्दर्य एवं आनन्द का पर्याय माना है । रस को ‘ अखण्ड स्वप्रकाशानन्द ‘ , ‘ चिन्मय ‘ , ‘ ब्रह्मानन्द – सहोदर ‘ की संज्ञा दी गई है । भरत के समय तक ‘ रस ‘ का अर्थ बहुत विकसित हो चुका था । इसकी पुष्टि इस बात से मिलती है कि भरत ने अपने ग्रन्थ में कुछ पूर्ववर्ती आचार्यों के नामों का उल्लेख किया है , किन्तु पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा लिखे गए ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हैं । अतएव नाट्यशास्त्र ही सर्वप्रथम उपलब्ध ग्रन्थ है , जिसमें रस की विवेचना की गई है । नाट्यशास्त्र के अनुसार ,
” रसो वै सः । रसो वेसः रसहेन्वायं लब्ध्वाऽनंदी भवति । ”
अर्थात् वह रस रूप है , इसलिए रस पाकर , जहाँ का ‘ रस ‘ मिलता है , उसे प्राप्त कर मनुष्य आनन्दमग्न हो जाता है ।
भारतीय संस्कृति में सौन्दर्य का लक्ष्य बिन्दु सुन्दरता न होकर ‘ रस ‘ है । ‘ रस ‘ आनन्द का सीधा स्रोत है तथा सभी कलाओं में व्याप्त होने के कारण इसे ही लक्ष्य माना जाता है । ‘ रस ‘ के महत्त्व को दर्शाते हुए भरतमुनि कहते हैं ,
” न हि रसावेत कश्रिदप्यर्थः प्रवर्तते ”
अर्थात् ‘ रस ‘ के बिना कोई बात प्रारम्भ नहीं होती । ‘ रस ‘ के विषय में भरतमुनि स्वयं प्रश्न करते हैं – ‘ रस ‘ इति का पदार्थ अर्थात् रस क्या पदार्थ है ? इसके उत्तर में भरतमुनि कहते हैं – ‘ आस्वद्यात्वात् ‘ अर्थात आस्वाद्य पदार्थ है , अर्थात् यदि संगीत द्वारा प्राप्त अनुभूति की बात करें , तो इसका सम्बन्ध भाव तथा आनन्द से है और आनन्द , ‘ रस ‘ का मूर्त रूप है ।
रस – निष्पत्ति एवं भारतीय शास्त्रीय संगीत में इसका प्रयोग
रस – निष्पत्ति
आचार्य भरतमुनि ने सर्वप्रथम नाट्यशास्त्र रचना के अन्तर्गत रस का सैद्धान्तिक विश्लेषण करते हुए रस – निष्पत्ति पर अपने विचार प्रस्तुत किए । उनके अनुसार ‘ विभावअनुभावसंचार- संयोगाद्रसनिष्पत्ति ‘ रस – निष्पत्ति अर्थात् विभाव , अनुभाव और संचारी भाव के सहयोग से ही रस की निष्पत्ति होती है , किन्तु साथ ही वे स्पष्ट करते है कि स्थायी भाव ही , विभाव , अनुभाव और संचारी भाव के सहयोग से स्वरूप को ग्रहण करते हैं ।
भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में चार पक्षों पर मुख्य रूप से विचार किया है । अभिनय , नृत्य , संगीत और रस । इसमें प्रथम तीन साधन मात्र हैं , जिनके माध्यम से चौथे की अनुभूति होती है , जिसे रसानुभूति ‘ कहा गया है । नाट्य का अन्तिम लक्ष्य चर्मोत्कर्ष अर्थात् रस की निष्पत्ति और सहृदय द्वारा उसका आस्वादन है अर्थात् भरतमुनि ने मनोवैज्ञानिक आधार पर भाषा का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि भिन्न – भिन्न रस के अनुभव तथा आस्वाद के लिए भिन्न – भिन्न प्रकृति की आवश्यकता होती है । एक ही प्रकृति विभिन्न रसों का आस्वाद नहीं ले सकती । जैसे वीर प्रकृति , भयानक से साम्यता नहीं रखती ।
भरत ने भाव और रस पर परस्पर शरीर और आत्मा का सम्बन्ध मानते हुए लिखा है ‘
न भावहीनोऽस्ति रसो न भावो रस वर्णितः ‘
रस की व्याख्या करते हुए भरतमुनि कहते हैं कि रस नाट्य उपकरणों द्वारा प्रस्तुत एक भावमूलक कलात्मक अनुभूति है । रस का केन्द्र रंगमंच है । भाव रस ही उसका आधार है । उन्होंने लिखा है कि विभाव , अनुभाव और व्यभिचारी भावों के संयोग से स्थायी रस उत्पन्न होता है । ‘ आत्माभिनमनं भावों ‘ अर्थात् आत्मा का अभिनय भाव है ।
भाव ही आत्मा चैतन्य से विश्रान्ति पा जाने पर रस होते हैं । रस्सी को सर्प समझने से निश्चित ही भय लगता है किन्तु जानबूझकर रस्सी को सर्प के रूप में देखने से मनोरंजन होता है , भय नहीं । रस सिद्धान्त मूलत : नाटक के दृष्टिकोण से प्रतिपादित किया गया था और वह प्रत्यक्षतः भाव तत्त्व पर ही सर्वाधिक बल देता है ।
रस – निष्पत्ति के दृष्टिकोण
रस – निष्पत्ति तथा संयोग को लेकर विद्वानों एवं आचार्यों में मतभेद था , जिसके परिणामस्वरूप चार दृष्टिकोणों का उद्भव हुआ । ये चार दृष्टिकोण निम्न हैं –
1. भट्टलोल्लट का उत्पत्तिवाद भट्टलोल्लट ने संयोग और निष्पत्ति पर व्याख्या करते हुए लिखा है कि निष्पत्ति का अर्थ उत्पत्ति से लिया है , अत : उनका दृष्टिकोण उत्पत्तिवाद ‘ कहलाता है । स्थायी भाव के साथ विभाव , अनुभाव और संचारी भावों का संयोग होने के कारण रस की निष्पत्ति होती है । डॉ . गणपति चन्द्र गुप्त ने लस्सी का उत्तम दृष्टान्त दिया है , जिसे रस – निष्पत्ति का क्रिया पर लागू करते हुए कहा जा सकता है कि दही विभाव है जिसका लस्सा रूप से उत्पादक – उत्पाद सम्बन्ध है । पानी , बर्फ , चीनी आदि संचारी हैं , जिनका लस्सी रूप से पोषण सम्बन्ध है तथा झाग अनुभाव है , जो लस्सी रूपी रस को व्यक्त या सूचित करता है ।
2. आचार्य शंकुक का अनुकृतिवाद इनके मतानुसार रस नाटक में नहीं होते हैं । जब कोई कलाकार शिक्षा तथा कठिन अभ्यास के उपरान्त नाट्य में अभिनय करता है तो प्रेक्षक को पता होता है कि कलाकार द्वारा किया जा रहा अभिनव कृत्रिम है , फिर भी नाटक में प्रस्तुत विभाव आदि के आधार पर ही लोगों को रस की प्राप्ति होती है , अर्थात् शंकुक , रस की उत्पत्ति न मानकर केवल अनुभूति मानते हैं ।
3. भट्टनायक का मुक्तिवाद इनके मत के अनुसार न ही रस की उत्पत्ति होती भोग किया जाता है । सामाजिक ( दर्शक श्रोता ) के अन्तःभावों का साधारणीकरण होने से रस का भोग किया जाता है ।
4. अभिनवगुप्त का अभिव्यक्तिवाद इनके मत के अनुसार , कलाकार के द्वारा प्रस्तुत भावों से प्रेक्षक की मानसिक स्थिति के साधारणीकरण होने से प्रेक्षक के मन में उठने वाले भावों को कलाकार के द्वारा प्रस्तुत भावों से तादात्म्य होने के कारण रस की प्राप्ति होती है । कला के आस्वादन के समय व्यक्ति निजी के भावों एवं चिन्ताओं से मुक्ति पा लेता है , जिस कारण कलाकार द्वारा प्रस्तुत अनुभूतियों को प्रेक्षक अपने भावों में अभिव्यक्त देखता है । यह अभिव्यक्ति ही रसानुभूति होती है । जहाँ प्रेक्षक एवं कलाकार की मानसिक स्थिति में कोई दूरी नहीं रहती अत : दोनों ही तादात्म्य की स्थिति में होते हैं । अभिनव गुप्त के ग्रन्थों ‘ अभिनव भारती ‘ , ‘ ध्वन्यालोकलोचन ‘ तथा काव्य प्रकाश में ही इन चारों दृष्टिकोणों का वर्णन मिलता है । अन्य तीन आचार्यों के मूल ग्रन्थ आज अनुपलब्ध है ।
रस के अवयव
रस के अवयव – रस सिद्धान्त के प्रवर्तक ‘ भरत ‘ ने भावनाओं से सम्बन्धित रस के अवयवों यथा स्थायी भाव , विभाव , अनुभाव और व्यभिचारी ( संचारी ) भावों की चर्चा की है । भाव रस का आस्वाद भाव के माध्यम से प्रेषक के हृदय में होता है । रस तथा भाव में परस्पर आत्मा तथा परमात्मा का सम्बन्ध है ।
भरतमुनि की सुप्रसिद्ध उक्ति है ‘ भावगति इतिभाव ‘ अर्थात् भाव वही है , जिसकी भावना हो । अतः रसानुभूति के अन्तर्गत भावों के विभिन्न पक्षों पर विचार किया जाता है ।
“ विभावेनारूतों योऽर्थो हानुभावेस्तु गम्यते । वागडसतवाभिनयः सं भाव इति संज्ञित ।। ”
अर्थात् भाव वह अर्थ है जो विभावों द्वारा निष्पन्न होता है और वाचिक , आंगिक तथा सात्विक भावों के अभिनय से युक्त होता है ।
रस के भाव
रस के भाव निम्न हैं –
1. स्थायी भाव – जो भाव हदय में सदैव स्थायी रूप से विद्यमान रहते हैं , किन्तु अनुकूल कारण पाकर उबुद्ध होते हैं , उन्हें स्थायी भाव कहा जाता है । इनकी संख्या 9 मानी गई है । प्रत्येक स्थायी भाव से सम्बन्धित एक रस होता है , जिसका विवरण इस प्रकार है
रस और उनके स्थायी भाव
क्र.सं. | रस का नाम | स्थायी भाव |
1 | शृंगार | रति |
2 | वीर | उत्साह |
3 | रौद्र | क्रोध |
4 | वीभत्स | जुगुप्सा ( घृणा ) |
5 | अद्भुत | विस्मय |
6 | शान्त | निर्वेद |
7 | हास्य | हास |
8 | भयानक | भय |
9 | करुणा | शोक |
इनके अतिरिक्त दो रसों की चर्चा और होती है
1 | वात्सल्य | संतान विषयक रति |
2 | भक्ति | भगवद् विषयक रति |
स्थायी भावों की संख्या नौ मानी गई है , अत : मूलतः नवरस ही माने गए हैं । रति के तीन भेद माने जा सकते हैं – दाम्पत्य रति , वात्सल्य रति , भक्ति सम्बन्धी रति । इन तीनों से क्रमशः शृंगार , वात्सल्य एवं भक्ति रस की निष्पत्ति होती है । शृंगार रस को ‘ रसराज ‘ अर्थात् ‘ रसों का राजा ‘ माना गया है ।
2. विभाव विभाव का अर्थ है – कारण । जिन कारणों से सहदय समाज के हृदय में स्थित भाव उद्बुद्ध होता है उन्हें विभाव कहते हैं । विभाव दो प्रकार के होते हैं-
( i ) आलम्बन विभाव जिसके कारण आश्रय के हृदय में स्थायी भाव उद्बुद्ध होता है , उसे आलम्बन विभाव कहते हैं । दुष्यन्त के हृदय में शकुन्तला को देखकर ‘ रति ‘ नामक स्थायी भाव उद्बुद्ध हुआ , तो यहाँ दुष्यन्त आश्रय है , शकुन्तला आलम्बन है ।
( ii ) उद्दीपन विभाव ये आलम्बन विभाव के सहायक एवं अनुवर्ती होते हैं । उद्दीपन के अन्तर्गत आलम्बन की चेष्टाएँ एवं बाह्य वातावरण दो तत्त्व आते हैं जो स्थायी भाव को और अधिक उद्दीप्त , प्रबुद्ध एवं उत्तेजित कर देते हैं । शकुन्तला की चेष्टाएँ दुष्यन्त के रति भाव को उद्दीप्त करेंगी तथा उपवन , चाँदनी रात , नदी का एकान्त किनारा भी इस भाव को उद्दीप्त करेगा । अतः ये दोनों ही उद्दीपन है ।
3. अनुभाव आश्रय की चेष्टाएँ अनुभाव के अन्तर्गत आती हैं , जबकि आलम्बन की चेष्टाएँ उद्दीपन के अन्तर्गत मानी जाती हैं । अनुभाव की परिभाषा देते हुए कहा गया है
” अनुभावों भाव बोधक ”
अर्थात् भाव का बोध कराने वाले कारण अनुभाव कहलाते हैं । अनुभाव चार प्रकार के होते हैं
( i ) कायिक या आंगिक शरीर की चेष्टाओं से प्रकट होते हैं ।
( ii ) वाचिक वाणी से प्रकट होते हैं ।
( iii ) आहार्य वेशभूषा , अलंकरण से प्रकट होते हैं ।
( iv ) सात्विक सत्य के योग से उत्पन्न वे चेष्टाएँ जिन पर हमारा वश नहीं होता है , उन्हें सात्विक अनुभाव कहा जाता है । इनकी संख्या आठ होती है • स्वेद • कम्प • रोमांच • स्तम्भ • स्वरभंग • अश्रु • वैवर्ण्य • प्रलय
4. संचारी भाव स्थायी भाव को पुष्ट करने वाले संचारी भाव कहलाते हैं । ये सभी रसों में संचरण करते हैं । इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है । इनकी संख्या 33 मानी गई है , के नाम निम्न प्रकार है
• निर्वेद • ग्लानि • शंका • असूया • मद • श्रम • आलस्य • दैन्य • चिन्ता • मोह • स्मृति • ब्रीड़ा ( लज्जा ) • चपलता • हर्ष • आवेग • जड़ता • गर्व • विषाद • औत्सुक्य • निद्रा • धृति • विबोध • अपस्मार अवमर्ष • स्वप्न • अवहित्था • व्याधि • उग्रता • मति • उन्माद • वितर्क • मरण • त्रास
रस सिद्धान्त के इस अध्याय के बाद आगे हम रस के प्रकार के बारे में जानेंगे । तो बने रहें हमारे साथ ।
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