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अध्याय- 18 ( कजरी गायन ) | गायन के 22 प्रकार
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कजरी लोकगीत – लोकसंगीत की विधा कजली अथवा कजरी विभिन्न प्रांतों में जीवन के विभिन्न प्रसंगों , उत्सवों , त्यौहारों आदि पर गाये जाने वाले गीतादि लोकसंगीत के अंतर्गत आते है । यह विभिन्न प्रकार के स्वर , ताल , पद द्वारा गाये जाते हैं । इसी में कजरी नामक एक गीत का प्रकार है जो कि सावन में गायी जाती है यह उत्तर प्रदेश में गाया जाने वाला एक प्रकार का लोकप्रिय लोकगीत है । इसे हम ऋतु गीत भी कह सकते हैं वैसे वर्षा ऋतु में कभी भी इस गीत को गाया जा सकता है । कजरी को कजली भी कहा जाता है ।
कजरी लोकगीत का वर्णन
इसका क्षेत्र मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश का पूर्वी भाग है । मिर्जापुर और उसके आसपास का क्षेत्र कजरी के लिए अधिक प्रसिद्ध है । बनारस में कजरी मिर्जापुर से ही पहुँची जो बाद में वहाँ अपना ली गयी । इन गीतों में विरह का बहुत ही मार्मिक वर्णन मिलता है । कई गीत श्रृंगार रस के भी दिखाई देते हैं । कई गीतों में प्रकृति वर्णन का सुन्दर चित्रण मिलता है । कजरी गायन की अनेक शैलियाँ प्रचलित हैं । कुछ में ठुमरी अंग विशेष रूप से दिखाई देता है ।
प्रारम्भ में कुछ कजरी लोकगीत के उदाहरण इस प्रकार हैं –
( 1 ) सखियां झूलन चली फूल यगियन । घिर आयी कारी बदरिया ॥ फूलवा बीनें , हरवा गुथैय । सखियां …..
( 2 ) नहीं आये सजना हमार । सावनमा आई गइले ननदी ॥ इस गीत में कहरवा ताल का वजन मिलता है ।
( 3 ) कैसे खेलन जैबू , सावनमां कजरिया । बदरिया घेरी आई ननदी ॥
सरस सावन , आँखों को सुख पहुंचाने वाली मखमली हरियाली , रिमझिम फुहार – इनका असल चित्र वस्तुत : कजरी में ही मिलता है । वैसे , देखा जाय , तो अधिकांश लोकगीत किसी – न – किसी ऋतु अथवा त्यौहार के होते हैं । वर्षा – ऋतु के आगमन पर लोगों के मन में जिस नए उल्लास एवं उमंग का संचार होता है , उसको अभिव्यक्त करती है कजरी / कजली । इसी कारण इसे वर्षा के साथ मनुष्य के तादात्म्य का सुर में , साज में और छंद में आलाप कहा गया है । सावन – भादों के महीने में बनारस , मिर्जापुर और इनके निकटवर्ती इलाके कजली से गूंजते हैं । न केवल स्त्रियाँ , बल्कि पुरुष भी कजली गाते हैं और बड़े उत्साह से गाते हैं ।
कजरी लोकगीत का नामकरण
कहा जाता है कि कजरी का नामकरण सावन के काले बादलों के कारण पड़ा है । भारतेन्दु ‘ के अनुसार , मध्य प्रदेश के दादूराय नामक लोकप्रिय राजा की मृत्यु के बाद वहाँ की स्त्रियों ने एक नए गीत की तर्ज का आविष्कार किया , जिसका नाम ‘ कजली ‘ पड़ा । कुछ लोग कजरी वन से भी इसका संबंध जोड़ते हैं ।
पं . वलदेव उपाध्याय के विचार में आजकल की कजरी प्राचीन लावनी की ही प्रतिनिधि है । कजली का संबंध एक धार्मिक तथा सामाजिक पर्व के साथ जुड़ा हुआ है । भादों के कृष्ण पक्ष की तृतीया को ( तीजा ) कज्जली व्रत पर्व मनाया जाता है । यह स्त्रियों का मुख्य त्योहार है । स्त्रियां इस दिन नए वस्त्र – आभूषण पहनती हैं , कज्जली देवी को पूजा करती हैं और अपने भाइयों को ‘ जई ‘ बाँधने के लिए देती हैं । उस दिन वे रात – भर जागती और कजरी गाती हैं ।
अखाड़ा – दंगल की परंपरा
कजली / कजरी लोकगीत के कई अखाड़े भी होते हैं । प्रत्येक अखाड़े का अलग – अलग गुरु ( शायर ) होता है और उनके शिष्यों की परंपरा लंबी होती है । ज्येष्ट दशमी को अखाड़ों में ढोलक का पूजन करके कजली शुरू होती है और अनंत चतुर्दशी को समाप्त की जाती है । कुछ अखाड़ों में आश्विन कृष्णाष्टमी तक कजलो – गायन चलता है । पहले सभी अखाड़े कजली गाते हुए स्थानीय नदेसर मुहल्ले में इकट्ठे होते थे और वहाँ रात भर गाई जाती थी । दो गुरु – घरानों में कजली प्रतियोगिता भी हाती थी । एक अखाड़ा दूसरे अखाड़े को इलायची भेंट करके निमंत्रण देता था । काशी में कजली – दंगलों की परंपरा काफी पुरानी है ।
लगभग बीस – चालीस गज की दूरी पर आमने – सामने दो मंच बनाए जाते हैं , जिन पर प्रतिद्वंदी अखाड़े वाले बैठते हैं । पहले एक अखाड़े का उस्ताद खड़ा होता है और सुमिरिनी से दंगल प्रारंभ होता है । उसके बाद दूसरा दल उसी छंद और उसी तर्ज में तथा उसी विषय पर कजली गाकर पहले का जवाब देता है , फिर एक कजली और गाता है , जिसका जवाब पहलेवाले दल को देना होता है । जब तक शायर जवाब सोचता है , तब तक उसके दल के अन्य सह – गायक ( जिन्हें ‘ डेवढ़िया ‘ कहते हैं ) टेक की कड़ी को दुहराते रहते हैं । गाते समय ढोलक , लकड़ी , चंग आदि बजाए जाते हैं । शायरों को प्रतिद्वंदी पर चोट करने के लिए काफी श्रम करके नए – नए विषयों और छंदों में कजलियाँ तैयार करनी पड़ती हैं । आमतौर से ये दंगल रात के दस – गयारह बजे से शुरू होकर सुबह तक चलते रहते हैं । श्रोताओं को बहुत आनन्द आता है ।
शायरों और पेशेवर गानेवालियों के बीच भी कजरी – दंगल होते हैं । किसी जमाने में , कजरी – दंगल के शायर मारकंडे , श्याम लाल , भैरों , खुदाबख्श , पलटू , रहमान , सुनरिया गौ – निहारिन आदि का बहुत नाम था । स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले राष्ट्रीय कजरी – दंगलों का आयोजन होता था । दंगल में गाई जाने वाली कजलियों का अपना अलग – अलग राग और स्वर होता है , मगर पिछले कुछ वर्षों से सिनेमा की गीतों और कव्वाली का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा है ।
कजरी लोकगीत का विषय
कजली / कजरी लोकगीत का मुख्य विषय है , शृंगार – रस के संयोग और वियोग – पक्ष । एक ओर स्त्री अपने पति के परदेश से आगमन पर आनंद से झूम उठती है आरे बाव बहेला पुरवैया , अब पिया मोरे सोवे ए हरी , कलियाँ चुनि – चुनि सेजियाँ डसवली , सइयाँ सुतेले आधी राति । इधर दूसरी ओर प्रियतम परदेश से नहीं लौटा है । सभी सहेलियाँ तो खुशी से मगन हैं और वह अकेली विरह में तप रही है बादल बरसे , बिजुरी चमके , जियरा ललचे मोर सखिया । सइयाँ घरे न अइलें पानी बरसन लागेला मोर सखिया ।
12 ठेठ रूप में कजली की ध्वनि दो प्रकार की मानी सकती है एक को बहर या ग़ज़ल की बंदिश में कजरी – दंगलों में सुना जा सकता है । दूसरी है दुनमुनिया कजली , जिसे औरतें वृत्त बनाकर ताल देते हुए झुक – झुककर गाती कहो चित लाके , शीश नवाके , गणपति बाँके ना । सँवलिया सुत गिरजा के ना ।। शायद ही ऐसा कोई विषय बचा होगा , जिस पर कजली न लिखी गई हो । राष्ट्रीय – अंतरराष्ट्रीय समस्याओं , गांधीजी के अहिंसा – आंदोलन , गोरक्षा , ऐतिहासिक लड़ाइयों के साथ साथ ताश के खेल , कुश्ती के दाँव – पेंच , मिठाई एवं फलों के प्रकारों आदि पर भी शायरों ने कजली लिखी हैं । देवी देवताओं की प्रार्थना के रूप में भजन – कजली और निर्गुणियाँ कजली भी मिलती हैं ।
‘ ककहरा ‘ कजरी , जिसमें ‘ क ‘ से ‘ ज्ञ ‘ तक प्रत्येक अक्षर पर पंक्तियाँ लिखी गई हैं , से लेकर ‘ अधर ‘ कजरी तक लिखी गई हैं , जिसमें प – वर्ग वर्गों का प्रयोग नहीं किया जाता । कजरी के शायर लोग समाज के प्रति कितने सजग रहते थे , इसका प्रमाण इसी बात से मिलता है कि इन्होंने समाज की प्रत्येक बुराई की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया । ये अपने पूरे परिवेश से जुड़े रहते थे- बड़ी से लेकर छोटी छोटी घटनाएँ तक इन पर असर डालती थीं ।
कजरी – एक पर्व
मिर्जापुर की कजरी काफी प्रसिद्ध है । इस संबंध में एक कहावत प्रचलित है- ‘ लीला रामनगर की भारी , कजली मिर्जापुर सरनाम ‘ । अष्टभुजा के ऊपर का पर्वत वर्षाकाल में और भी सुंदर हो जाता है । नीचे पुण्यसलिला गंगा , बहुत दूर तक विंध्यमाला चारों ओर छाए हुए काले – काले मेघ – मिर्जापुर की कजरी की मादकता इनसे और बढ़ जाती है और प्रसिद्ध कवि प्रेमधन कह उठते हैं साँचहुँ सरस , सुहावन , सावन गिरिवर विंध्याचल पैरामा , हरि – हरि मिर्जापुर की कजरी लागे प्यारी रे हरी । यहाँ नागपंचमी के पहले झूले पड़ जाते हैं । कजरी तीज को ‘ कजरहवा ताल ‘ पर रात – भर कजली उत्सव होता है , जिसे सुनने के लिए श्रोताओं की अपार भीड़ होती है । से लोग बनारस से भी आते हैं और रातभर झूम – झूमकर बहुत कजरी सुनते हैं । यहाँ के कजली शायरों में वक्फत , सूरा , हरीराम , लक्ष्मण , मोती आदि के नाम लिए जाते रहे हैं ।
चित्र खींचा है लक्ष्मण मिर्जापुरी ने विरहिणी राधा का कैसा मर्म – स्पर्शी नहिं आए घनश्याम , घेरि आई बदरी । बैठी तीरे बृज – बाम , तू न मेरो लाज धाम ॥ आई सावन की बहार , मुझे मोरवा पुकार । पड़े बुन्दन फुहार , घेरि आई बदरी ॥ कान्हा हमें बिसराय , रहे सौतन लगाय । करी कौन उपाय , घेर आई बदरी ।।
मिर्जापुर की कजरी का अपना एक रंग है और बनारस की कजरी का एक अलग रंग । इन दोनों रंगों में से कोई भी एक – दूसरे से कम नहीं । स्त्रियों द्वारा गाई जाने वाली कजलियों में अब भी वास्तविक सौंदर्य और माधुर्य सुरक्षित है ।
दंगल में अब कजरी का स्थान धीरे – धीरे कव्वाली लेती जा रही है । पहले कजरी गाते समय हारमोनियम का इस्तेमाल नहीं होता था , अब हारमोनियम भी बजाया जाता है ।
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