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अध्याय- 13 ( ठुमरी गायन ) | गायन के 22 प्रकार
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ठुमरी गायन क्या है ?
ठुमरी शब्द का व्यवहार हिन्दुस्तानी संगीत की एक विशेष गेय विधा के लिए किया जाता है । यह एक भावप्रधान व चपल चाल वाला गीत हैं । इसे आजकल शास्त्रीय संगीत में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । यह एक प्रकार का शृंगार रस प्रधान नृत्य गीत ही है , क्योंकि शब्दों की कोमलता और स्वरों की नजाकत लिए हुए है । यह गीत शैली स्वरों के माध्यम से वही भाव मुखरित कर देती है , जो भाव नृत्य में अभिनय के द्वारा व्यक्त किए जाते हैं ।
ठुमरी के नाजुक व चपल मिजाज होने के कारण इसे गाने के लिए इसके मिजाज के रागों को चुना जाता है । ये राग हैं – खमाज , काफी , माण्ड , बरवा , तिलंग , पीलू तथा भैरवी । इस गायन विधा में राग की शुद्धता का ध्यान नहीं किया जाता है , इसलिए मिश्र राग इसके लिए उपयुक्त हैं ।
सुनील कुमार के अनुसार , ‘ ठुम ‘ और ‘ री ‘ इन दोनों शब्दों के योग से ठुमरी शब्द बना है । ठुम शब्द ‘ ठुमकत चाल ‘ अर्थात् राधा जी की चाल और ‘ री ‘ ‘ शब्द ‘ रिझावत ‘ अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण के मन को रिझाने की ओर संकेत करता है ।
ठुमरी की उत्पत्ति
ठुमरी का जन्म सम्भवतः लखनऊ के दरबार में हुआ है । विद्वानों का मत है कि इसके आबिष्कारक गुलामनबी शोरी या उनके वंशज ही थे । ठुमरी का अधिकतर विकास नृत्य के साथ हुआ । जबकि आधुनिक ठुमरी का विकास अवध के दरबार में हुआ । इस गायन शैली का सम्बन्ध ‘ गौड़ी ‘ गीति के सा भी जोड़ा जाता है ।
ठुमरी गायन के भेद क्या है ?
ठुमरी गायन के भेद – ठुमरी को दो भेदों में विभाजित किया जा सकता है ।
- बोल – बाँट या बन्दिश की ठुमरी बोल – बाँट की ठुमरी को बन्दिश की ठुमरी भी कहते हैं । यह ठुमरी छोटे ख्याल से मिलती – जुलती है , इसमें शब्द अधिक होते हैं । इसमें शब्दों और बन्दिशों में कसाव रहता है और मात्राओं के विभाजन का पूरा ध्यान रखा जाता है , इनमें प्रायः रचयिता के नाम के साथ पिया लगा होता है ; जैसे – कदर पिया तथा सनदापिया आदि । कदर पिया व लगन पिया वाजिद अलीशाह के समय के प्रथम ठुमरी गायक थे ।
- बोल बनाव की ठुमरी इनमें प्रायः बन्दिश गाकर थोड़ा बहुत आलाप व तान का काम ख्याल ढंग से किया जाता है । इनमें त्रिताल , झपताल जैसी तालों का प्रयोग होता है । बोल – बनाव की ठुमरियों में शब्द बहुत कम होते हैं , ये प्रायः ढीली और लचीली होती हैं , इसके लिए कण्ठ की मधुरता पहला गुण है ।
ठुमरी के अंग अथवा शैलियाँ
ठुमरी के मुख्य रूप से तीन अंग माने गए हैं , जो निम्नलिखित हैं ।
- पूर्वी अंग पूरब अंग लखनऊ तथा बनारस में प्रसिद्ध है । रसूलन बाई , बड़ी मोती बाई , सिद्धेश्वरी देवी , बेगम अख्तर तथा गिरिजा देवी पूरव अंग की प्रसिद्ध गायिकाएँ हैं , इसमें बोलबनाव का काम प्रमुखता रखता है । विभिन्न भावों की अभिव्यक्ति एक ही शब्द के माध्यम से अनेक बिरादरियों के आधार पर की जाती है । भोजपुरी बोली इसके माधुर्य में वृद्धि करती है ।
- पहाड़ी अंग पहाड़ी शैली लखनऊ , मुरादाबाद , सहारनपुर , मेरठ और दिल्ली में प्रचलित रही है बरकत अली पंजाब के पहाड़ी प्रदेशों में प्रचलित लोकधुनों में विशेष तरीके से प्रयुक्त होने वाले स्वरों का ठुमरी में बहुत खूबसूरती से प्रयोग करते थे , इसी से यह पहाड़ी अंग की ठुमरी कही जाने लगी । पूर्वी व पहाड़ी में पंजाबी तथा बोलबनाव में तान का काम अधिक होता है ।
- पंजाबी अंग यह शैली अन्य की अपेक्षा नई है , इसका सम्बन्ध पंजाब के बरकत अली खाँ , बड़े गुलाम अली तथा नजाकत सलामत अली से माना जाता है ।
डॉ . गीता पैन्तल के अनुसार , पंजाबी अंग की ठुमरी में टप्पा अंग की तानों की भरमार रहती है । पंजाबी अंग की ठुमरी मुल्तानी , काफी और सिन्धी काफी गायन शैलियों में साम्यता रखती है । पंजाबी अंग की ठुमरी सप्तक के ऊँचे स्वरों में अधिक गाई जाती है ।
- संगीत की शब्दावली Vocabulary – bani, giti, alptva, nyas, gamak
- पारिभाषिक शास्त्रीय संगीत शब्दावली Vocabulary- vadi, kan, khatka, murki, mend