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भारतीय संगीत में पाश्चात्य विद्वानों का योगदान
भारतीय संगीत में पाश्चात्य शास्त्रज्ञों का योगदान भारतीय संगीत में पाश्चात्य विद्वानों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । इसे भारतीय संगीत की स्वरलिपि में विशेष रूप से देखा जा सकता है भारतीय संगीत में योगदान देने वाले विद्वानों में कैप्टन एन . ए . बिलाई विलियम जॉन्स , कैप्टन सी . आर . डे इत्यादि प्रमुख हैं ।
पाश्चात्य संगीत
पाश्चात्य विद्वानों / संगीतज्ञों के अनुसार , स्वरों का वह विशेष मिश्रण , जोकि भावनाओं को प्रभावित करे , संगीत कहलाता है ।
पाश्चात्य संगीत का उद्भव ‘ ईसाई युग ‘ के प्रारम्भ से माना जाता है , जिसमें ‘ बाइबिल ‘ में वर्णित मन्त्रों अथवा पाठों के गायन की परम्परा का विशेष महत्व था । यह चर्च संगीत के रूप में भी जाना गया है । चर्च में होने वाले विभिन्न क्रियाकलापों में प्रयोग किया जाने वाला संगीत धीरे – धीरे विकास की ओर बढ़ने लगा ।
भारतीय संगीत की भाँति यह संगीत भी अनेक मान्यताओं , संस्कृतियों तथा परम्पराओं से प्रभावित रहा है । भारतीय संगीत की भाँति पाश्चात्य संगीत भी मुख्य दो धाराओं में विभाजित है प्रथम धार्मिक संगीत तथा द्वितीय धर्मनिरपेक्ष संगीत ।
पाश्चात्य संगीत में जहाँ एक ओर ईश्वरीय प्रेरणा को आधार माना गया है , वहीं दूसरी ओर सांसारिक रूढ़िवाद , परम्पराओं , संस्कृति एवं मान्यताओं की झलक भी देखने को मिलती है ।
पाश्चात्य संस्कृति का संगीत विभिन्न प्रक्रियाओं का परिणाम है जैसे विभिन्न शैलियों का अपनी शैली में प्रभावपूर्ण प्रयोग , नई तकनीकियों का विकास , नई – नई परम्पराओं का प्रभाव एवं विकास तथा स्वरलिपि पद्धति का विकास आदि ।
पाश्चात्य संगीत का काल निर्धारण
पाश्चात्य संगीत को महत्त्वपूर्ण कालो व रचनाकारों को दृष्टि से निम्न प्रकार से विभाजित किया गया है ।
पुनर्जागरण काल
- पुनर्जागरण काल का प्रारम्भ 15 वीं शताब्दी से माना गया है । इस दौरान संगीत केवल चर्च तक ही सीमित नहीं था वरन् इसका विकास पश्चिमी देशों के संगीत के रूप में भी हुआ , जिसके अन्तर्गत प्राचीन मान्यताओं को परिवर्तित स्वर तथा गायन का विकास हुआ । कर ऐसा भवीन संगीत विकसित किया गया , जो अद्भुत था । इस काल में संगीत को नवीन शैलियो एवं प्रभावपूर्ण
- • इस काल में ‘ Secular Music ‘ ( धर्मनिरपेक्ष संगीत ) भी प्रकाशित हुआ । यह संगीत चर्च के धार्मिक संगीत से अलग था , किन्तु इसको चर्च के द्वारा पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी । इनमें Jaled , frottolia , Channan , Madraugal तथा Villancieo प्रमुख थे ।
- • Baroque Era बैरोक संगीत पश्चिमी कला संगीत की एक अवधि या शैली है । बेरोक काल एक ऐसे युग को सन्दर्भित करता है जो 1600 ई . से शुरू हुआ और 1750 ई . के आस – पास समाप्त हो गया । इस अवधि में बाख बिबाल्डी और हेंडेल जैसे प्रमुख संगीतकार थे । इस अवधि में कंसर्ट , सोनट ओपेरा के और ओपेरा की शुरुआत के साथ नई संगीत शैलियों का उद्भव व विस्तार देखा गया । इस काल में श्रोताओं के आकर्षण का मुख्य केन्द्र एकल गायन का प्रतिभाशाली स्वरूप था । इसलिए बारोक ओपेरा में कॉन्सर्ट एक रूप ओरटोरिओ का प्रचलन होने लगा । ओरटोरिओ कॉन्सर्ट ओपेरा का ही एक रूप था , जो बाइबिल की कथाओं का नाट्य रूपान्तरण था , जिनका मंचन किसी विशेष वेशभूषा एवं दृश्यों के बिना किया जाता था 18 वीं शताब्दी में तत्कालीन संगीतज्ञ ‘ बच ‘ एवं ‘ हैंडल ‘ ने बारोक संगीत को ऊँचा उठाया ।
- Bach ने केवल पाश्चात्य संगीत के Opera को छोड़कर लगभग सभी विधाओं में अनेकों रचनाएँ कीं , जिसमें चर्च के सुधारवाद का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है , जबकि Handel ने Baroque शैली के अनेक आयाम प्रस्तुत किए । 17 वीं शताब्दी में ही वाद्यसंगीत का प्रचलन प्रारम्भ हुआ नए – नए वाद्य आविष्कृत हुए । ‘ Suites , Sonatas , Fugues ‘ जैसे वाद्य संगीत के लिए Keyboard एवं Organ जैसे वाद्ययन्त्रों का प्रयोग होने लगा । ऑर्केस्ट्रा ( Orchestra ) के अन्तर्गत ‘ Symphonies ‘ एवं ‘ Concertos ‘ जैसी रचनाओं का प्रचलन होने लगा , जिनमें विभिन्न प्रकार के वाद्ययन्त्रों का संयोजन था । ओपेरा ने संगीतकारों को अपने संगीत में आकर्षक मनोदशाओं को तरीके से विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया । इस अवधि में रचनाकार को भावनाओं को प्रभावित करना एक प्रमुख उद्देश्य बन गया ।
इस तरह से ओपेरा फ्रांस और इंग्लैण्ड में प्रचलित हो गया और रामो : हेंडेल और पर्सेल जैसे रचनाकारों ने इस पर काम करना प्रारम्भ कर दिया ।
बाख ( Bach ) को संगीत के इतिहास में प्रमुख प्रतिभाओं में से एक माना जाता है । उन्होंने सद्भाव के लिए एक मानक दृष्टिकोण का प्रदर्शन किया , जो 19 वीं शताब्दी के अन्त तक संगीत पर हावी रहा ।
क्लासिकल एवं रोमाण्टिक काल
क्लासिकल एवं रोमाण्टिक काल • 18 वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में पाश्चात्य संगीतकार Symphony वाद्यवृन्द रचनाओं की ओर आकर्षित हुए । बीथोवन की प्रमुख रचनाएँ मुख्यतः रोमाण्टिक संगीत पर आधारित थीं । इनकी रचनाओं में रोमाण्टिक तथा क्लासिकल म्यूजिक का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है ।
• तत्कालीन संगीत में इस शैली को अनेक संगीतकारों द्वारा अपनाया गया । • इसके परिणामस्वरूप 1725 से 1900 ई . के काल को ‘ पाश्चात्य संगीत की परम्परा ‘ के रूप में परिभाषित किया गया है ।
19 वीं शताब्दी में पाश्चात्य धार्मिक संगीत चर्च से हटाकर सामान्य जनता के समक्ष प्रदर्शित किया जाने लगा तथा पाश्चात्य संगीत में विभिन्न शैलियों के आधार पर अनेक रचनाएँ की जाने लगीं ।
बीथोवन ने Romantic तथा Classical Music का मिश्रण कर एक नए संगीत को जन्म दिया , जिसने लोगों को अत्यधिक प्रभावित किया । तत्कालीन रोमाण्टिक ( Romantic कुछ प्रमुख संगीतकार बरलियोज , वेबर , स्कबर्ट एवं मण्डेल्सन म्यूजिक के ( Mendelssohm ) आदि हैं ।
इस नवीन शैली का अनुसरण करते हुए । Deburry तथा Rowel रचनाकारों ने हारमोनियम का प्रयोग किए बिना अनेक रचनाएँ कीं । पाश्चात्य संगीत में लोकसंगीत के तत्वों का सम्मिश्रण सर्वप्रथम Barlok ने किया ।
आधुनिक काल
आधुनिक काल • 20 वीं एवं 21 वीं शताब्दी के मध्य कोरल म्यूजिक में नवीन प्रयोग कर उसका विकास किया गया । कुछ प्रसिद्ध रचनाकारों ने केवल कोरल म्यूजिक पर ही कार्य किया , जबकि अधिकांश रचनाकारों ने कुछ ऐसी उत्कृष्ट रचनाएँ भी कीं , जिनको नाट्य संगीत के संग्रह में विशेष स्थान मिला है । रोमाण्टिक रचनाकारों ने कोरस ( Chorus ) गायक की अलग – अलग शैलियों को विकसित कर अपना योगदान दिया , जिनमें ‘ Richard Strauss ‘ एवं Sergei Rachmaninoff ‘ के नाम प्रमुख हैं । 20 वीं शताब्दी में ( Atonality not Written in any Musical Key ) तथा अपरम्परागत हारमोनियम की शैली व तकनीक के विकास से कोरल ( Choral ) गायन प्रभावित हुआ ।
विभिन्न क्षेत्रों में पाश्चात्य संगीत
पाश्चात्य संगीत भी भारतीय संगीत की भाँति अनेक धाराओं में विभाजित है । इनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है ।
- पाश्चात्य संगीत में शास्त्रीय संगीत पाश्चात्य संगीत के 1760 से 1820 ई . के मध्य के काल को शास्त्रीय संगीत की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है । इस दौरान शास्त्रीय संगीत के महान् संगीतकार प्रसिद्ध थे- इन्हें ट्रिनिटी कहा जाता था । इनमें Ludwing Van Beethovan एवं Josept Haydn जैसे संगीतकारों के नाम प्रसिद्ध हैं । इसी प्रकार भारतीय शास्त्रीय संगीतकारों में मुथुस्वामी दीक्षितार एवं श्यामा शास्त्री आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत का स्वरूप भी भारतीय शास्त्रीय संगीत की भाँति विशाल स्वरूप में है । पाश्चात्य संगीत में शास्त्रीय शब्द का आशय ऐसे रूप से किया जाता है , जो स्वाभाविकता , सरलता , सौन्दर्यता , समानता , सहजता , स्पष्टता एवं सामंजस्यता जैसे सद्गुणों से सम्पन्न हो ।
- पाश्चात्य लोक एवं पारम्परिक संगीत का उद्भव पाश्चात्य संगीत में लोकसंगीत का जो स्वरूप प्राप्त होता है , वह अत्यन्त प्राचीन व पारम्परिक है , किन्तु समय के साथ – साथ इसमें व्यापक परिवर्तन भी आए हैं , लोकसंगीत की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें प्राचीन व आधुनिक दोनों प्रकार का संगीत प्रदर्शित होता है । इसके अन्तर्गत व्यक्तिगत रूप से भी अनेक रचनाएँ की गई । हैं । पाश्चात्य संगीत की यह मान्यता है कि लोकसंगीत का निर्माण एवं विकास व्यक्तिगत प्रयासों का परिणाम है , किन्तु इसके अन्तर्गत निरन्तर होने वाले परिवर्तन स्वरूप में विभिन्न संगीतज्ञों विद्वानों ने योगदान दिया है , जिसके कारण इसका स्वरूप आज भी एक नवीन रचना की भाँति दिखाई देता है ।
- • समूहगान के क्षेत्र में पाश्चात्य संगीत गायकों के समूह को ‘ Chorus ‘ कहा जाता है । Chorus शब्द का प्रयोग किसी संगीत रचना को एकसाथ गाने वाले समूह को निर्दिष्ट करने के लिए किया जाता है । अतः कहा जा सकता है कि पाश्चात्य संगीत में गायकों का एक समूह , जो एकसाथ गायन करे , समूहगान ( Chorus ) कहलाता है । ‘ Chorus ‘ को ‘ Opera ‘ संगीत का भी महत्त्वपूर्ण भाग माना जाता है । पाश्चात्य संगीत की भाँति भारतीय संगीत में भी समूहगान का अपना विशेष महत्त्व रहा है ।
प्रमुख पाश्चात्य संगीतज्ञ विद्वानों का योगदान
कुछ प्रमुख पाश्चात्य संगीतज्ञ विद्वानों , जिन्होंने पाश्चात्य संगीत के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया उन का विस्तृत विवरण निम्न प्रकार है
- जॉर्ज फ्रेडरिक हैण्डल फ्रेडरिक हैण्डल का जन्म 23 फरवरी , 1685 में हैले नामक स्थान पर हुआ । इनकी प्रथम प्रसिद्ध कृति ऑरिटोरियो , कनटाटा , हैण्सी एवं कॉर्डस्वीट हैं । इन्होंने लगभग 46 सफल ओपेरा , 100 कनटाटा एवं 32 ऑरेटोरियोज तथा अनेक वाद्यसंगीत की रचनाएँ कीं ।
- • जॉन सेबेस्टियन बाख पाश्चात्य संगीतकारों में सेबेस्टियन बाख का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है । इनका जन्म 21 मार्च , 1685 को जर्मनी के इसेनाक शहर में हुआ । इन्होंने आध्यात्मिक भावना से सराबोर चर्च सम्बन्धित रचनाएँ लिखीं । इनकी प्रमुख रचनाएँ – स्वीट्स चर्चकनटाटाज , सिम्फॉनी आर्केस्ट्रा , मोटैट्स , सोनाहटाह एवं टाक्काराज आदि हैं । इनके संगीत के विकास में समर्पित जीवन का अन्त 22 जुलाई , 1750 को हुआ ।
- मोजार्ट मोजार्ट का जन्म 27 जनवरी , 1756 में ऑस्ट्रिया के साल्जबर्ग शहर में हुआ था । मोजार्ट में बाल्यकाल से ही संगीत प्रतिभा विद्यमान थी । मात्र पाँच वर्ष की अवस्था में मोजार्ट संगीत में छोटी – छोटी रचनाएँ करने लगे । जल्द ही इनकी प्रसिद्धि यूरोप में हो गई । मोजार्ट के गीत , सिम्फॉनी , आर्केस्ट्रा तथा वाद्यसंगीत के लिए की गई रचनाओं को आज भी बड़े आदर एवं सम्मान से सुना जाता है । इन्होंने आज भी संगीत के क्षेत्र में अपने प्रभाव को बनाए रखा है । इनके अन्तिम ओपेरा का नाम ‘ दि मैजिक फ्ल्यूट ‘ है ।
- • बीथोवन लडबीन बैन बीथोवन का जन्म 19 दिसम्बर , 1770 को जर्मनी में हुआ । मात्र चार वर्ष की अवस्था से ही इन्होंने पियानो की शिक्षा लेनी प्रारम्भ की , जिसके प्रभाव स्वरूप ये पियानों के उच्चकोटि के कलाकार बन गए । इनकी ट्रायो सोनाटाह , क्वाटेण्ट , क्विण्टेड , मार्च , कोरस , कौनशियरटो , प्रील्यूड , सैप्टैड , ऑक्टेड एवं ऑर्केस्ट्रा फग कॉनटाटा आदि रचनाओं ने पाश्चात्य संगीत ने जगत में क्रान्ति ला दी । संगीत के क्षेत्र में इनके द्वारा किए गए कार्यों के लिए इन्हें सदैव याद किया जाता रहेगा ।
- शूबर्ट मैलौडी के विशेषज्ञ शूबर्ट का जन्म 31 जनवरी , 1797 को वियना में हुआ । ये प्रारम्भ से ही बीथोवन से प्रभावित थे । इन्होंने लगभग 600 गीत , 15 क्वोण्टटरन , 8 सिम्फॉनी आदि की रचना की । मात्र 31 वर्ष की आयु में 19 नवम्बर , 1828 में इनका निधन हो गया । इन्हें बीथोवन के निकट समाधिस्थ किया गया है । इनकी समाधि पर लगे पत्थर पर अंकित है “ यहाँ संगीत का खजाना गड़ा है ।
भारतीय संगीत में पाश्चात्य विद्वानों का योगदान
• भारतीय संगीत स्वयं में व्यापक एवं प्रगतिशील रहा है । प्राचीनकाल से लेकर आज तक भारत में संगीत की समृद्ध परम्परा रही है । बहुत कम देश ऐसे हैं , जिनमें संगीत की इतनी प्राचीन व समृद्ध परम्परा रही है , जितनी की भारत में है , किन्तु फिर भी समय – समय पर पाश्चात्य संगीत का प्रभाव एवं मिश्रण इसमें देखने को मिलता है । भारतीय संगीत के स्वरलिपि में पाश्चात्य संगीत का विशेष प्रभाव सरलता से देखा जा सकता है ।
• पाश्चात्य विद्वानों का योगदान की अगर हम बात करें तो स्वरलिपि पद्धति/ Staff Notation को कैसे भूल सकते हैं । पाश्चात्य संगीत स्वरलिपि की दृष्टि से इतना अधिक सम्पन्न रहा है कि यहाँ प्रचलित स्टाफ नोटेशन पद्धति को अन्तर्राष्ट्रीय स्वरलिपि पद्धति कहा जा सकता है ।
आज विश्व के अनेक देशों में “ स्टाफ नोटेशन पद्धति ” का प्रयोग किया जा रहा है । यद्यपि भारत में पहले से ही अनेक स्वरलिपि पद्धतियाँ प्रचलन में हैं । किन्तु फिर भी इस पर पाश्चात्य संगीत का प्रभाव देखा जा सकता है । लाइव कन्सर्ट (Live Concerts ) एवं सुगम संगीत की रिकॉर्डिंग में स्टाफ नोटेशन पद्धति का प्रयोग किया जाता है । इनके अतिरिक्त विभिन्न पाश्चात्य संगीतज्ञों / विद्वानों की भी विशेष रुचि , उत्साह एवं योगदान भारतीय संगीत के क्षेत्र में देखा जा सकता है , जिसका विवरण निम्न प्रकार है
कैप्टन एन . ऑगस्टस विलाई
• कैप्टन एन . ऑगस्टस विलार्ड एक सेना अधिकारी थे । इनकी हिन्दुस्तानी संगीत में विशेष रुचि थी , जिसके विस्तार स्वरूप इन्होंने वर्ष 1934 में ” द ट्रीटीज ऑन म्यूजिक ऑफ हिन्दुस्तान ” का सम्पादन किया तथा विलियम जॉन्स के साथ मिलकर ‘ म्यूजिक ऑफ इण्डिया ‘ पुस्तक लिखी । विलाई व्यक्ति थे , जिन्होंने हिन्दी एवं उर्दू गीतों को 15 प्लेटों के आकार प्रकार का अपने ग्रन्थ में संकलन किया । इनकी स्टाफ नोटेशन ने भार संगीत को एक विशेष शब्दावली दी ।
• इस श्रेणी में ऑगस्टस विलार्ड एवं विलियम जॉन्स को सभी विदे लेखकों में अग्रणी माना जाता है । बहुत से भारतीय लेखक भी ऑगस्ट विलाई के लेखन रो सावित हुए हैं । इनमें पण्डित भातखण्डे एवं के . टॉ बनर्जी का नाम प्रमुख है । पण्डित भातखण्डे जी ने इनके सम्मान में कहा है कि मैं उनके ग्रन्थ से उदाहरण ले रहा हूँ , इसका कारण यह है कि उन्होंने इस विषय पर खोज अर्थात् ऐतिहासिक खोज की है । बंगाल के ग्रन्थकारों में भी अपनी – अपनी पुस्तकों में उनके मत को स्वीकार किया है ।
विलियम जॉन्स
• विलियम जॉन्स एक महान विद्वान् एवं प्रमुख भाषाविद् थे । जॉन्स को 13 भाषाओं का ज्ञान था । भारतीय संगीत के सिद्धान्तों एवं उनके विकास में भी इनका विशेष योगदान रहा है । भारतीय संगीत में रुचि लेते हुए इन्होंने इसके विकास से सम्बन्धित विशेष कार्य किए । 1784 ई . में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना की तथा कई वर्षों तक इसके अध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहे । इनका प्रथम लेख 1793 ई . में प्रकाशित हुआ , जो भारतीय संगीत से सम्बन्धित एक विशेष लेखाप इसमें भारतीय संगीत की विस्तार से चर्चा की गई थी । 1793 ई . में इन्होंने भारतीय संगीत पर दो पुस्तकें “ ऑन द म्यूजिकल मेड ऑफ हिन्दुज उप एन . ऑगस्टस विलार्ड के साथ मिलकर ‘ म्यूजिक ऑफ इण्डिया ‘ लिखी , जो आज भी भारतीय संगीत की विशेष धरोहर है ।
कैप्टन सी . आर . डे
• सी . आर . डे एक प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् एवं भारतीय संगीत में रुचि रखने वाले संगीतज्ञ थे । इनकी पुस्तक ‘ संगीत और संगीत वाद्ययन्त्र ऑफ दक्षिणी भारत और दक्कन ‘ मुख्य रूप से दक्षिण भारत के संगीत से सम्बन्धित हैं । कैप्टन डे ने मुख्य रूप से दक्षिण भारतीय संगीत में रुचि दिखाई तथा इसके विषय में विस्तार से लिखा । • कुछ भारतीय विद्वानों एवं संगीतज्ञों ने कैप्टन डे के भारतीय संगीत प्रेम व उत्साह की सराहना की है , जिनमें पण्डित भातखण्डे प्रमुख हैं । पण्डित भातखण्डे ने कैप्टन डे के विषय में लिखा है ” Cap Day साहब खोजी व्यक्ति थे । इनका योगदान अपने संगीत के गुण और दोष काफी मात्रा में स्पष्ट रूप से बताए हैं । उनके मत से अमुक राग को सदैव अमुक स्वर में गाना , उस कोई नवीन स्वर न लगाना आदि कठोर नियमों से अपना संगीत संकुचित हो गया है ।
” ई . क्लेमेण्ट्स
• ई . क्लेमेण्ट्स प्रसिद्ध पाश्चात्य संगीतज्ञ एवं भारतीय संगीत में रुचि रखने थे , जो अंग्रेजी शासनकाल में भारत में नियुक्त हुए । इन्होंने वर्ष 1919 में • वाले थे । ये डिस्ट्रिक क्लेक्टर के पद पर कार्यरत इंग्लैण्ड के मूल नागरिक भारतीय संगीत के स्वर शास्त्र का अध्ययन करके ” Introduction 2 the Study of Indian Music ” शीर्षक से पुस्तक लिखी । श्रुतियों • इन्होंने श्रुति एवं स्वर सम्बन्धी चर्चा पर विशेष ध्यान दिया तथा इसमें देवल , प्रो . खर एवं अब्दुल करीम खाँ का सहयोग लिया , साथ ही में पण्डित भातखण्डे जी द्वारा आयोजित संगीत सम्मेलन में प्रदर्शन किया , किन्तु इनके द्वारा निर्मित श्रुति ‘ हारमोनियम ‘ को करीम खाँ सहित अन्य भारतीय संगीतज्ञों / विद्वानों ने स्वीकार नहीं किया । वर्ष 1930 में अहमदाबाद में कलेक्टर के पद पर कार्यरत् रहते हुए इन्होंने Fill Harmonik Society ‘ में संगीत परिषद् का आयोजन किया । इनके द्वारा लिखित प्रसिद्ध पुस्तक ‘ Introduction to the Study of Indian Music ‘ है । इसमें पाँच अध्याय हैं । इस पुस्तक का प्राक्कथन प्रसिद्ध विद्वान् ‘ आनन्द कुमार स्वामी ‘ ने लिखा था । इस पुस्तक के प्रथम अध्याय में वर्तमान काल के हिन्दुस्तानी संगीत की श्रुतियों पर चर्चा की गई है द्वितीय तथा तृतीय अध्याय में पाश्चात्य स्वरलिपि पद्धति एवं भारतीय श्रुतियों पर चर्चा की गई है । चतुर्थ अध्याय के अन्तर्गत भारतीय संगीत के प्राचीन ग्रन्थों का वर्णन किया गया है तथा पाँचवें अध्याय में भारतीय संगीत की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन किया गया है ।
आर्थर हेनरी फॉक्स स्टैंग्वेज
हेनरी फॉक्स स्टैंग्वेज ( 1859-1948 ) एक अंग्रेजी संगीतज्ञ , भाषा अनुवादक एवं सम्पादक थे । फॉक्स स्टैंग्वेज का जन्म नॉर्विघ में हुआ था । इनके पिता का नाम वाल्टर एस्टन फॉक्स स्ट्रेंजवेग्स तथा माता का नाम हैरियट एलिजाबेथ बुकर था । इनकी भारतीय संगीत में विशेष रुचि थी । इन्होंने ‘ द टाइम्स ‘ के लिए संगीत समीक्षा लिखी तथा संगीत की त्रैमासिक पत्रिका ‘ द ऑब्जर्वर ‘ के मुख्य संगीत समीक्षक रहे । इन्होंने वर्ष 1914 में ‘ द म्यूजिक ऑफ हिन्दुस्तान ‘ पुस्तक लिखी , जबकि उन्होंने यह स्वयं माना है कि इन्होंने इसमें विभिन्न नोटेड एवं भाषा के लिए दूसरों की सहायता ली तथा टेनर स्टुअर्ट विल्सन के साथ कई पुस्तकों का अनुवाद भी किया । इन्होंने ग्रोव्स डिक्शनरी के तीसरे संस्करण में अपना विशेष योगदान दिया , जिसका सम्पादन वर्ष 1927 में कोल्स ने किया । हर्बर्ट ऑर्थर पोपले इन्होंने ‘ फीयर प्रिंसिपल एण्ड टैक्नीक ऑफ इण्डियन म्यूजिक पुस्तक भी लिखी । इस पुस्तक में इन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत के सभी पक्षों का वर्गीकरण किया है ।
हेनरी फॉक्स स्ट्रेंग्वेज के अनुसार , “ संगीत एक सार्वभौमिक भाषा है अतः इसे समझने के लिए किसी भाषा विशेष की आवश्यकता नहीं होती ।
हर्बर्ट ऑर्थर पोपले
हर्बर्ट ऑर्थर पोपले ( 1878-1960 ) प्रसिद्ध संगीतज्ञ एवं लन्दन मिशन , इरोड के एक ईसाई मिशनरी थे । इन्होंने तिरुवल्लुवर कृत प्रसिद्ध तमिल ग्रन्थ तिरुक्कुरल का अंग्रेजी में अनुवाद किया तथा कर्नाटक ईसाई संगीत को कर्नाटक शैली में प्रस्तुत किया । तिरुक्कुरल का अनुवाद ‘ द सेक्रेड कुरल ‘ या ‘ द तमिल वेद ऑफ तिरुवल्लुर ‘ के नाम से किया था । इसमें लगभग कुरल पाठ के 346 दोहे सम्मिलित थे । वर्ष 1958 में संशोधित अनुवाद के साथ इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित किया , जिसमें 511 दोहों के अनुवाद शामिल थे । इनके अन्य प्रकाशन में ‘ द म्यूजिक ऑफ इण्डिया ‘ शामिल है , जिसे हेरिटेज ऑफ इण्डिया सीरीज , कोलकाता के द्वारा प्रकाशित किया गया है । ये अखिल भारतीय YMCA के सचिव थे । इन्होंने कुन्नूर सहकारी शहरी बैंक लिमिटेड के निदेशक के रूप में भी कार्य किया । इनकी मृत्यु 9 मई , 1960 को कुन्नूर में हुई ।
एलेन डैनिलो एलेन डैनिलो
पाश्चात्य विद्वानों में एलेन डैनिलो एलेन डैनिलो ( 1907-1994 ) एक फ्रांसीसी इतिहासकार एवं प्रसिद्ध संगीतज्ञ थे । भारतीय संगीत के उत्थान से सम्बन्धित कार्यों / योगदान के लिए इन्हें वर्ष 1991 का ‘ संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था । वे सर्वप्रथम अपने साथी फोटोग्राफर रेमण्ड बर्लियर के साथ भारत आए । ये यहाँ की कला एवं संस्कृति से बहुत प्रभावित हुए तथा भारतीय कला की तस्वीरों को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शित किया । इन्होंने भारतीय संस्कृति एवं कला से सम्बन्धित तस्वीरों को न्यूयॉर्क के मेट्रोपॉलिटन म्यूजियम में दिखाया ।
• वर्ष 1932 में भारत यात्रा के दौरान ये रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिले तथा ये इनसे विशेष रूप से प्रभावित हुए । वर्ष 1935 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश लेकर लगभग 15 वर्षों तक हिन्दू धर्म , भारतीय दर्शन एवं संगीत का अध्ययन किया । इन्होंने शिवेन्द्रनाथ बसु के साथ वाराणसी में भारतीय शास्त्रीय संगीत का अध्ययन किया ।
• वर्ष 1960 में यूरोप लौटने पर इन्हें यूनेस्को की अन्तर्राष्ट्रीय संगीत परिषद् का सलाहकार नियुक्त किया गया । इन्होंने भारतीय संगीत पर कार्य किया , किन्तु इनका विशेष झुकाव वेद , हिन्दू दर्शन एवं शैव धर्म के प्राचीन ज्ञान पर आधारित रहा । इन्होंने भारतीय संगीत एवं संस्कृति पर तीस से अधिक पुस्तकें लिखी हैं , जिनमें कुछ प्रमुख पुस्तक – म्यूजिक एण्ड द पॉवर ऑफ साउण्ड , ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ इण्डिया , सैकरेड म्यूजिक , इट्स ऑरिजन , पॉवर एण्ड फ्यूचर , नॉर्थन इण्डिया म्यूजिक एवं इण्ट्रॉडक्शन टू द स्टडी ऑफ म्यूजिक स्केल आदि हैं । इनके द्वारा किए गए कार्यों के लिए इन्हें कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया , जिसमें वर्ष 1981 का यूनेस्को संगीत पुरस्कार एवं वर्ष 1987 का काठमाण्डू मेडल आदि प्रमुख हैं ।
फिल्म में शास्त्रीय संगीतज्ञ का योगदान – Classical Musician Contribution in Film