वाद्य वृंद / वृंद वादन का महत्व – Vadya Vrinda (आर्केस्ट्रा/ Orchestra)

वाद्य वृंद या वृन्द वादन का अर्थ – वाद्य यंत्रो ( Musical Instruments ) का समूह। उपयुक्त वाद्यों का वह संगीत जो ताल, लय इत्यादि के दृश्टिकोण से एक साथ बजने पर उत्पन्न होता है। एक शब्द में इंग्लिश हम इसे (​आर्केस्ट्रा/ Orchestra) कहेंगे ।

Akashvani Vadya Vrinda

वृन्दवादन का महत्व – सन् 1952 में जब ऑल इंडिया रेडियो ‘ ने अपने वाद्य वृंद की स्थापना की , तो इस दिशा में पहली बार गंभीर प्रयत्न प्रारंभ हुआ । शुरू में इस वाद्य – वृंद में 28 संगीतज्ञ थे । तीन भागों में 15 तंतु – वाद्य इसके मूलाधार थे । ये सारे तंतु – वाद्य गज से बजने वाले थे ।

इसके तार तार – स्वरीय सात वाद्यों में 5 वायलिन और 2 छोटी सारंगियाँ , मध्य – स्वरीय भाग में दो मझोली सारंगियाँ , 2 Viola ( बेला ) और 1 इसराज तथा मंद्र – स्वरीय भाग में 1 Cello (चेलो) , 1 मंदरबहार और 1 डबल बास आदि वाद्य थे ।

भारतीय और पश्चिमी वाद्यों के सम्मिश्रण से तंतु वाद्यों को एक विशेष स्वर गुण मिला । इस वाद्य – वृंद में मिजराब से बजनेवाला कोई वाद्य नहीं था , यद्यपि दो सरोद अलंकरण के रूप में मौजूद थे । इस वाद्य – वृंद में पीतल का कोई सुषिर वाद्य नहीं था और काष्ठ के सुषिर वाद्यों में दो वंशियाँ , दो क्लारनेट और एक ओबोए थे । भारत के सभी महत्वपूर्ण घनवाद्य इसमें मौजूद थे । सौभाग्यवश इस वाद्य – वृंद के संचालक पहले दो विख्यात संगीतज्ञ रहे- पं . रविशंकर और श्री टी.के. जयराम अय्यर दोनों ही उच्चकोटि के संगीतकार हैं ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वृंद – वादन की यह टोली समय – समय पर विभिन्न केन्द्रों पर अपना प्रदर्शन करती रहीं और उनके रिकार्ड आकाशवाणी के केन्द्रों से प्राय : प्रसारित होते रहे ।

आचार्य भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में ‘ कुतप ‘ नामक शब्द व उसकी धारणा का निरूपण किया है । जो निश्चित ही आज का वाद्य – वृंद है । भरतमुनि ने एक स्थान पर आनद्ध कुतप भी प्रयोग किया है , जो आज की तालवाद्य कचहरी है ।

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परन्तु ऐसा लगता है कि प्राचीन भारत में इसका उपयोग स्वतन्त्र रूप से नहीं हुआ । वह संस्कृत के नाटकों से ही जुड़ा रहा था । 

वाद्य वृंद के वाद्य / Instruments

हिन्दुस्तानी संगीत के अंतर्गत वाद्य – वृंद की रचनाओं में या तो कोई राग – विशेष होता है या एक ही रचना में एक में अधिक रागों का मिश्रण होता है या संपूर्ण रचना लोक – पुला पर आधारित होती है । इन रचनाओं में अनेक प्रकार की लयकारियाँ और झाले बहुतायत से पाए जाते हैं ।

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हिन्दुस्तानी संगीत के बूंद – वादन में पाश्चात्य संगीत को वाद्य – रचनाओं की भांति न तो अधिक भेद होते है और न ही वादकों की संख्या ही 30-40 से अधिक होती है ।

हिन्दुस्तानी वाद्य वृंद में जो वाद्य साधारणतया काम में आते हैं ये विचित्रवीणा , सितार , सरोद , गोटुवाद्यम् , स्वरमंडल , सारंगी , वायलिन , इसराज , वंशी शहनाई , नागस्वरम , क्लरीनट , जलतरंग , काष्ठ – तरंग , मुकुर – तरंग , तवला और मृदंग इत्या हैं ।

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कभी – कभी इनके अतिरिक्त जो अन्य वाद्य सुनाई देते है . उनमें चैलो , खंजरी , शंख , झाँझ , मोरचंग और घटम् इत्यादि हैं । तकनीक की दृष्टि से वाद्य – वृंद की रचनाओं में मैलॉजी ही प्रधान रहती है , परंतु उसमें आनंद उत्पन्न करने के लिए यदा – कदा कॉर्ड्स का भी सहारा लिया जाता है ।

परंतु भारतीय वृंद वादन में वाद्यों की जाति के आधार पर , कुछ स्वर – समतों को शीघ्रता से बजवाकर जो टोन कलर उत्पन्न किया जाता है , उसका अपना पृथक् स्थान है ।

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ताल – Rhythm

भारतीय संगीत में तालों के आधार पर अगणित रिदम्स उपलब्ध हैं । अत : यहाँ ताल – वाद्य – कचहरी नामक जो ताल वाद्यों का छोटा सा वृन्दवादन होता है , उसमें श्रोताओं को झुमा देने वाली अनेक प्रकार की रिदम्स पाई जाती हैं । यह भारतीय संगीत के वृन्द – वादन को एक अलग मौलिकता है ।

संगीत का सर्जन सांगीतिक ध्वनियों का किसी कलात्मक रूप से अथवा किसी तकनीक के आधार से मिला देने से नाति होता , वरन् उसमें आंतरिक भावनाओं को स्वरों के माध्यम से प्रकट करना होता है ।

स्वर तो वे बाहा उपकरण – मात्र जिनके द्वारा भावनाओं को व्यक्त किया जाता है । इसलिए वृंद – वादन के मध्य में जब भारतीय कलाकार को अपने वाद्य – विशेष को एकाकी रूप से बजाने का अवसर प्राप्त होता है तो वह मुक्त रूप से अपनी भावनाओं को व्यक्त करता है । और वह गर्व के साथ अपने व्यक्तित्व को उस वृंद – वादन के मध्य में छोड़ जाता है ।

इस प्रकार भारतीय वृंद – वादन में भारतीय कलाकार सामूहिक रूप से अपने अन्य कलाकारों के साथ में पूर्ण रूप से सहयोग करते हुए अपने स्वयं के अस्तित्व को भी स्थिर रखता है , यह भारतीय वृंद – वादन की एक विशेष मौलिकता है ।

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वाद्य वृंद की मौलिक बातें

हमें यदि वृंदीकरण की दिशा में आगे बढ़ना है , तो कुछ मौलिक बातों पर ध्यान देना आवश्यक है ।

पहले तो हमें एक अचल मूल स्वर ( पिच ) निर्धारित और स्थिर करना होगा ।

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दूसरे वृंद – वादकों के लिखे हुए संगीत को बजाना सीखना पड़ेगा और इसके लिए एक समुचित तथा संतोषजनक स्वरलिपि पद्धति का विकास बहुत ही जरूरी है ।

तीसरे व्यक्तिगत उपज के आधार पर बजाने वाले भारतीय संगीतज्ञों को पूर्णतः समवेत रूप से एक साथ बजाने का अनुशासन मानना होगा ।

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वाद्य – वृंद का संचालन

वाद्यवृंद के लिए तंतु – वाद्यों में एक ही प्रकार से गज और उँगलियाँ चलाना , सुषिर वाद्यों में एक ही प्रकार से फूंक भरना और धन – वाद्यों को सुनिश्चित और नियंत्रित ढंग से बजाना अनिवार्य रूप से आवश्यक है ।

वाद्य – वृंद के संचालन की सर्वस्वीकृत पद्धतियों का विभिन्न लयों के निर्देशन , अलग – अलग वाद्यों के आरंभ के लिए बाएँ हाथ के स्वतंत्र उपयोग आदि का विकास करना होगा ।

रचनाकारों को वाद्यों की प्रकृति और वाद्य – समुदाय के रूप में अपने संगीत को रूपायित करना सीखना होगा । उन्हें यह भी समझना होगा कि वाद्यों के विशिष्ट स्वर – गुण आदि का अपने आप में बड़ा भारी महत्व है । साथ ही उन्हें कथात्मक , इतिवृत्तात्मक संगीत का अथवा किसी घटना के चारों ओर संगीत रचने का प्रलोभन छोड़ना होगा ; क्योंकि इसके फलस्वरूप प्राय : संगीतकार वास्तविक संगीतगत मूल्यों से हटकर सस्ती अनुकरण – मूलक तिकड़मों में फँस जाता है ।

अंत में उत्तम वृंदीकरण के लिए वाद्य – वृंद की आवश्यकता के अनुरूप संगीत – रचना की योग्यता होना ।

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वाद्य वृंद का संरक्षण

10 वीं सदी के बाद विदेशियों के आक्रमण तथा देशी राजाओं में आपसी फूट के कारण देश की एकता छिन्न – भिन्न होने लगी । आगे चलकर अंग्रेजों ने देश को हथिया लिया और हमारी परम्पराओं को नष्ट करना प्रारम्भ कर दिया । शनै : शनैः संस्कृत नाटकों के साथ बूंद – वादन का भी लोप होने लगा । नाटकों को पुन : जीवन तब मिला जब क्षेत्रीय भाषाओं में नाटक खेले जाने लगे ।

देश में विभिन्न नाटक कम्पनियाँ बनी , जो स्थान – स्थान पर जाकर अपना प्रदर्शन किया करती थीं । इस प्रकार विदेशी वाद्य जैसे हारमोनियम , क्लारोनेट , ट्रमपेट , वायलिन आदि जोड़ दिये गये और साथ – साथ धुनें भी सर्वसाधारण की रूचि को ध्यान में रखते हुये बनाई गयी ।

जन साधारण ने रूचिकर धुनों को वृंद – वादन में सुनकर उसकी उपयोगिता और आवश्यकता का मूल्यांकन किया ।

फिर देश के कई संगीत प्रिय राजाओं और नवाबों ने भी इसका स्वागत और पोषण किया , जिसमें नवाब रामपुर , बड़ौदा और मैहर के राजाओं के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।

वृंद वादन का प्रथम मंचीय प्रदर्शन बंगाल के श्री क्षेत्रमोहन गोस्वामी ने श्री जीतेन्द्र मोहन तथा सौरेन्द्र मोहन टैगोर ने सन् 1859 में किया । 

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