Difference between Rabindra Sangeet and Classical Music in Hindi हिंदी में

Difference between Rabindra Sangeet and Classical Music in Hindi – रविंद्र संगीत का सम्बन्ध सीधे तौर से गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर जी से तथा भारत के पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश से है । गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर जी जटिल रागों और छंदों को सरल रूप में प्रस्तुत करने में विश्वास रखते थे । इनके द्वारा कई जटिल संगीत और साहित्य को सरल बनाने का कार्य किया गया ।

शास्त्रीय संगीत और रवीन्द्र संगीत में अंतर

रवीन्द्र संगीत और शास्त्रीय संगीत में कई अंतर है जो नीचे दिए 11 बिंदु दिए गए हैं । इस अध्याय में हम जानेंगे की हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत , हिंदुस्तानी रविंद्र संगीत से किस प्रकार भिन्न है ।

Gurudev Rabindra Nath Tagore
Gurudev Rabindra Nath Tagore – गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर

Main difference between rabindra sangeet and classical music.

शास्त्रीय संगीत और रवीन्द्र संगीत में मुख्य अंतर

1. संगीत की यह धारा वैदिक युग से प्रवाहमान है , पंडित भरत तथा पंडित शारंगदेव के समय से ही शास्त्रीय संगीत विकसित रूप से प्रवाहमान है ।

2. संगीत कार्यक्रम को अलंकृत करने के लिए विभिन्न प्रकार के गमक मूर्छना प्रभृति का बहुत प्रयोग ।

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3. दक्षिणी या कर्नाटक ताल में केवल ” भरी ‘ ही होते हैं । ‘ खाली ‘ नहीं होते ।

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4. उत्तरी या हिन्दुस्तानी ताल पद्धति में प्रत्येक ताल में ‘ भरी ‘ और ‘ खाली ‘ यह दोनों चीजें होती हैं

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5. शुद्ध थाट बिलावल माने जाते हैं एवं थाट संख्या कुल दस अभी तक मानी जा रही है।

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6. शास्त्रीय संगीत के कुछ गीतों का प्रकार प्राचीन ‘ प्रबंध गायन से आया है ; जैसे – उत्तर भारत का ‘ ध्रुपद्र ‘ तथा दक्षिण भारत का कीर्तन ।

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7. सुगम संगीत में गजल , भजन , चैती , सावन , कजरी , लोरी आदि गीतभेद प्रचलित हैं ।

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8. ध्रुपद धमार की गायकी मीड़ प्रधान होती है । ख्यालों में भी राग विशेष पर मीड़ का काम निर्भर है । कई मीड़ प्रधान राग भी होते हैं जिन्हें मीड़ से गाया जाता है ।

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9. शास्त्रीय संगीत में कलाकार का मुख्य लक्ष्य राग रूप स्पष्टीकरण रहता है ।

10. कार्यक्रम के प्रारंभ में आकार या नोम तोम का आलाप किया जाता है ।

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11. रागरूप स्पष्टीकरण के लिए स्वर विस्तार लिया जाता .

1. रवीन्द्र संगीत 19 वीं शताब्दी से लगभग बंगला 1881 से प्रवाहमान है । .

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2. अलंकार का बड़ा ही मर्यादित प्रयोग एवं अलंकार बाहुल्य का निषेध ।

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3. जहां हिन्दुस्तानी तालों में रवीन्द्रनाथ ने गीत रचना की केवल उन्हीं गीतों में ‘ ताली ‘ ‘ खाली ‘ आदि का प्रयोग हुआ है एवं स्वरलिपि में भी उन्हें दर्शाया गया है ।

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4. रवीन्द्र सूट तालों में कर्नाटक तालों के समान केवल ‘ भरी ‘ होते हैं । ‘ खाली ‘ नहीं होते ।

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5. शुद्ध थाट सम्बन्धी कोई चर्चा नहीं है । वर्तमान में जिसे शुद्ध थाट माना गया है उसका आशय  राग ‘ बिलावल ‘ पर कवि के काफी गीत मिलते है ।

6. रवीन्द्र संगीत अनेक दीर्घ या लम्बे गीत प्रबंध गीत जैसा ही है । उदाहरण के लिए , ‘ कृष्णकलि ‘ ओम तोरइ वलि ‘ ( स्वर वितान -13 )

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7. तराने पर आधारित गीत भी हैं पर संख्या में बहुत ही कम । इन गीतों पर अतिरिक्त सुगम श्रेणी के अनेक प्रकार के गीत बाउल , भटियाली , सारी , वेद – उपनिषद् से गृहीत मंत्रगान , स्वदेशी गान , विभिन्न नाट्यों के गीत , अनुष्ठानिक गीत प्रभृति पर्याप्त परिमाण में मिलते हैं ।

8. विशेष गीतों में जगह – जगह पर मीड़ को बड़ा ही महत्व दिया गया है । विशेष रूप से धुपदांग धमारांग के गीतों में मीड़ का काफी काम मिलता है । गंभीर भावनाओं के प्रकाशन में मीड़ बड़ी ही सहायक होती है ।

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9. कलाकार का लक्ष्य रहता है काव्यों का सही भावाभिव्यंजन ।

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10. कार्यक्रम के प्रारम्भ में आलाप प्रथा नहीं है ।

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11. रागरूप स्पष्टीकरण का प्रश्न ही नहीं उठता है । गीत की भावाभिव्यक्ति के लिए प्रयोजनानुसार रागों का प्रयोग होता है ।

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