विष्णु नारायण भातखंडे जीवनी / Biography in Hindi

विष्णु नारायण भातखंडे जीवनी in Hindi – Pandit Vishnu Narayan Bhatkhande का जन्म बम्बई प्रान्त के बालकेश्वर नामक स्थान में कृष्ण जन्माष्टमी के दिन एक उच्च ब्राह्मण वंश में हुआ था । इनके माता पिता संगीत के बड़े प्रेमी थे । भातखण्डेजी को संगीत में बचपन से रुचि थी । बचपन में अपनी माता के मधुर कंठ का अनुकरण कर इन्होंने अपनी संगीत – शिक्षा प्रारम्भ की ।

संगीत – शिक्षा

इन्होंने संगीत – विद्या को कई गुरुओं द्वारा प्राप्त किया था और इनके मुख्य गुरु मुहम्मद अली खां थे , जो जयपुर में रहा करते थे । इनके अन्य गुरुओं में ग्वालियर के श्री एकनाथ पण्डित , रामपुर के नवाब कलवे अली खां तथा पण्डित बुआ बेल बाघकर थे । सितार की शिक्षा पण्डितजी ने सेठ बल्लभदास से प्राप्त की थी ।

भातखण्डे जी जब किसी गुणी से कोई बन्दिश सीखते , तो उसकी स्वरलिपि लिखते । उस्ताद को सुनाते कोई भूल होती तो उसे ठीक करते और उस्ताद के सन्तुष्ट होने पर ही उस बन्दिश को संग्रह में स्थान देते थे । दक्षिण में लक्षण गीतों की प्राचीन – परंपरा थी । भातखण्डेजी ने पुरानी बन्दिशों की स्वरलिपि पर बोल रखकर अपने लक्षण – गीतों की रचना की , जिससे कि उन लक्षण गीतों के राग – पक्ष पर आक्षेप न किया जा सके ।

भातखण्डेजी एक कुशल , सुदर्शन , वाक्पटु एवं परिश्रमी व्यक्ति थे । भातखण्डे साहित्य का अधिकांश भाग मराठी भाषा में लिखा गया था , अतः उसकी प्रतिक्रिया महाराष्ट्र में हुई । उस साहित्य का हिन्दी अनुवाद जब हुआ , तब उस साहित्य की प्रतिक्रिया सार्वदेशिक रूप में हुई ।

पढ़े लिखे लोगों में संगीत ज्ञान के आम प्रचार में भी इस स्वरलिपि से बहुत सहायता मिली है । ध्यान से देखने पर हम पंडितजी का काम 4 भागों में बाँट सकते हैं

कार्य

( 1 ) सबसे पहला कार्य जो पंडित भातखण्डे जी ने किया वह संगीत कला और शास्त्र का मेल था । उन्होंने प्रचलित और अप्रचलित रगों की खोज करके थाट – राग पद्धति में बैठाया । उन्होंने 10 ठाट माने और हिंदुस्तानी सारे राग इन्ही थाटों के अंतर्गत रखे । इस प्रकार जनक जन्य पद्धति अथवा ठाट – राग पद्धति को प्रचार में लाया ।

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भातखण्डेजी ने स्वरलिपि पद्धति का निर्माण किया । यह पद्धति आसान है और सभी इसे बड़ी ही सुगमता से प्रयोग में ला सकते हैं । संगीत – शिक्षा और संगीत – प्रचार दोनों को इस सरल स्वरलिपि ने बहुत प्रोत्साहन दिया है । 

( 2 ) दूसरा महत्वपूर्ण कार्य यह किया की बड़े बड़े उस्तादों के पास जाकर उनकी खानदानी चीजों ( गीता ) को लेकर इकठ्ठा किया । इन सब खानदानी चीजों को इन्होने ‘ क्रमिक पुस्तक मलिका ‘ के 6 भागों में प्रकाशित किया । इनका यह कार्य बहुत ही सराहनीय है । इस प्रकार संगीत की पुरानी चीजें ( गीत ) अमर हो गयी ।

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( 3 ) पण्डितजी का तीसरा महत्वपूर्ण कार्य एक नयी नोटेशन पद्धति अर्थात स्वरलिपि पद्धति (Swarlipi Paddhati) को बनाना था । उन्होंने एक स्वतंत्र स्वर लेखन पद्धति अथवा नोटेशन स्वरलिपि पद्धति की स्थापना की जो सरल होने के साथ साथ वैज्ञानिक भी है ।

( 4 ) चौथा कार्य पण्डितजी का आधुनिक संगीत शिक्षा प्रणाली का है। जिसके अन्तर्गत संगीत की संस्थागत शिक्षण पद्धति का महत्त्वपूर्ण स्थान है ।

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पुस्तकें

कुछ लोगों ने पण्डितजी के कार्यों की आलोचना भी की और उन पर अनेक आक्षेप किये । पण्डितजी के अनेक कार्य सराहनीय हैं और संगीत जगत सदैव उनका आभारी रहेगा । इसीलिए उन्हें भारतीय संगीत शास्त्र का प्राणदाता कहकर पुकारते हैं ।

भातखण्डेजी ने भारतीय संगीत पर अंग्रेजी , हिन्दी , संस्कृत , गुजराती और मराठी भाषाओं में कई पुस्तकें लिखी ।

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इनके कुछ ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं –

  • हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति ‘ , ‘ क्रमिक पुस्तक मालिका ‘ ( 6 भागों मे ) ,
  • अभिनन राग मंजरी ‘ ( संस्कृत में ) ,
  • हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति ‘ ( चार भाग मराठी भाषा में )
  • स्वर मालिका ( गुजराती भाषा में ) ,
  • लक्ष्यगीत ‘ ( संस्कृत में ) इत्यादि ।

इनकी पुस्तकों का अवलोकन करने से पता चलता है कि आप संगीत कला के साथ साथ कविता करने में भी कुशल थे । क्रमिक पुस्तकों की बहुत – सी चीजों में ‘चतुर ‘ शब्द का प्रयोग हुआ है, यह चीजें पण्डितजी द्वारा ही रची हुई हैं । आपका उपनाम ‘ चतुर पण्डित ‘ था ।

संगीत – शिक्षा लाभ

पण्डित भातखण्डेजी ने रागों का वर्गीकरण, 10 ठाटों के अनुसार करके आधुनिक हिंदुस्तानी संगीत की उचित और सैद्धांतिक व्यवस्था कर दी , जिससे संगीत – शिक्षा में भी बड़ी आसानी हो गई । संगीत – शिक्षकों को और संगीत के विद्यार्थियों को इससे बड़ी सुविधा हो गई । सामान्य रूप से इस प्रकार का वर्गीकरण सुगम और लाभदायक साबित हुआ । संगीत के शिक्षकों और संगीत से संबंधित संस्थाओं को भी इस प्रकार के वर्गीकरण और सरल स्वरलिपि के आविष्कार से लाभ पहुंचा और अधिक सुविधा भी हुई । बड़ौदा , बम्बई , नागपुर , ग्वालियर और लखनऊ के संगीत विद्यालय इन्हीं सुविधाओं का प्रयोग कर रहे हैं ।

लखनऊ का ‘ भातखण्डे संगीत विश्वविद्यालय ‘ भातखण्डे पद्धति का मुख्य केन्द्र ही माना जायेगा । यही पहले मैरिस म्यूजिक कालेज के नाम से पुकारा जाता था । मैरिस म्यूजिक कॉलेज के शिक्षकों में उस्ताद अहमद खां , उस्ताद आबिद हुसैन , नसीर खां , बड़े मुन्ने खां , हामिद हुसैन , सखाबत खां , श्रीकृष्ण नारायण रातनजनकर ऐसे सुविख्यात धुरंधर संगीतज्ञ थे जिनके व्यक्तित्व से भी छात्रों को प्रोत्साहन मिलता था ।

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भातखण्डेजी 1884 ई . में बम्बई की ‘ गायन उत्तेजक मण्डली ‘ के सदस्य हो गये । 1890 ई . में उन्होंने संगीत ग्रंथों का अध्ययन आरंभ किया । सन् 1904 में इन्होंने भ्रमण करना शुरू कर दिया । वे मद्रास , तंजौर , मदुरै , रामनाडु , रामेश्वरम् , त्रिवेन्द्रम इत्यादि स्थानों में गये । 1906 में वे मनरंग घराने के प्रसिद्ध उस्ताद मुहम्मद अली खां से रामपुर में मिले । 1902 ई . में वे नागपुर , कलकत्ता , हैदराबाद इत्यादि स्थानों में गये । मियां की सारंग की शिक्षा भातखण्डेजी को उस्ताद वज़ीर खां से मिली थी ।

संगीत महाविद्यालय की स्थापना

सन् 1916 में पण्डितजी ने बड़ौदा में एक बहुत बड़ा संगीत सम्मेलन किया । इस सम्मेलन का उद्घाटन स्वयं बड़ौदा – नरेश ने किया । इस सम्मेलन के परिणामस्वरूप इन्होंने सन् 1919 में ‘ आल इण्डिया म्यूजिक ऐकेडमी ‘ खोली । इस | संगीत सम्मेलन के बाद पण्डितजी ने भिन्न – भिन्न नगरों में जाकर संगीत सम्मेलन किये , जिनमें दिल्ली , बनारस , लखनऊ आदि प्रमुख हैं ।

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पण्डितजी ने संगीत के तीन महाविद्यालय खोले ।

पहला लखनऊ में स्तिथ ‘ मैरिस म्यूजिक कॉलेज ‘ जो आजकल ‘ भातखण्डे संगीत विश्वविद्यालय ‘ कहलाता है ।

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दूसरा संगीत विद्यालय ग्वालियर में खोला जो ‘ माधव संगीत महाविद्यालय ‘ के नाम से प्रसिद्ध है ।

तीसरा बड़ौदा में खोला ।

इन विद्यालयों के द्वारा संगीत का बहुत प्रचार हुआ । इन संस्थाओं ने अपने पाठ्यक्रम निर्धारित किये और उत्तीर्ण छात्रों को उपाधियां भी प्रदान की । आजकल ये विद्यालय भारतीय संगीत की प्रमुख संस्थाएं मानी जाती हैं । संगीत को स्वतंत्र विषय के रूप में मान्यता दिलाने के क्षेत्र में इन्होंने अभूतपूर्व योगदान दिया । इन्हीं की प्रेरणा और लगन के परिणामस्वरूप आज देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में अनेक विषयों की भांति संगीत भी एक स्वतंत्र विषय बन गया है ।

वास्तव में भारतीय संगीत के इतिहास में भातखण्डेजी का नाम सदा के लिए स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा । विष्णु नारायण भातखण्डे जीवनी का वृतांत – तीन साल की लम्बी बीमारी के बाद गणेश चतुर्थी के दिन पंडित विष्णु नारायण भातखंडे जी का निधन हो गया । तब लगा कि संगीत – क्षेत्र का यह बहुमूल्य हीरा हम सभी संगीत साधकों से 19 सितम्बर , सन् 1936 को हमेशा के लिए छिन गया लेकिन उनके बहुमूल्य कार्य हमें हमेशा उनकी याद दिलाते रहेंगे ।

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