शारंगदेव “संगीत रत्नाकर” Sharangdev’s sangeet ratnakar

शारंगदेव “संगीत रत्नाकर” -13 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में शारंगदेव ने संगीत रत्नाकर की रचना की। शारंगदेव का समय 1210 से 1247 ईसवी के मध्य का माना जाता है। यह देवगिरि (दौलताबाद) के यादव वंशीय राजा के दरबारी संगीतज्ञ थे।

“संगीत रत्नाकर” संगीत जगत का महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह काफी बड़ा और पूर्ण ग्रंथ है। इसमें सभी बातों का स्पष्ट विवेचन हुआ है। सभी लोग भारतीय संगीत में “रत्नाकर” को आधार ग्रंथ मानते हैं। सिंह भूपाल कल्लिनाथ ने संस्कृत में तथा विट्ठल ने तेलुगु में इस पर टीका की है। इसकी हिंदी (ब्रजभाषा) टीका के कर्ता कोई गंगाराम हुए हैं।

संगीत रत्नाकर में कितने अध्याय हैं ?

“संगीत रत्नाकर” में प्राचीन एवं सामयिक संगीत का विस्तृत वर्णन है। 7 अध्यायों में क्रमशः स्वर , राग, प्रकीर्ण, प्रबंध, ताल, वाद्य एवं नृत्य का विशद वर्णन शारंगदेव ने किया है। इसलिए इस ग्रंथ को ” सप्ताध्यायी ” कहा जाता है।

शारंगदेव कृत “संगीत रत्नाकर” के अध्याय / Chapter

यह ग्रंथ कुल चार भागों में प्रकाशित है । इस ग्रंथ के सातों अध्यायों का वर्णन इस प्रकार है।

1. स्वराध्याय

स्वराध्याय – इस अध्याय को 8 प्रकरणों में बांटा गया है।

Advertisement

(i) पहले प्रकरण का नाम है पदार्थ संग्रह है – जिसके अंतर्गत सबसे पहले शिव की स्तुति मंगलाचरण के द्वारा की गई है। पूरे ग्रंथ का उद्देश्य पदार्थ संग्रह किया है। इस प्रकरण में 48 श्लोक हैं और इस प्रकरण का नाम भी पदार्थ संग्रह है।

(ii) पिण्डोत्पत्ति प्रकरण – इसमें पहले गीत, वाद्य व नृत्य के लिए नाद की अनिवार्यता बताई गई है और नाद की प्रशंसा की गई है।

Advertisement
Advertisement

(iii) नाद कुल, द्वैवत, दैवतार्षि, द्वैवाश्चिछंदो, रस प्रकरण :- 12 विकृत स्वर बताए गए हैं फिर वादी, संवादी, चार भेद, स्वर श्रुति, जाती आदि बातों का इसमें निरूपण किया गया है।

(iv) ग्राम मूर्छना क्रमतान प्रकरण :- सबसे पहले तीनों ग्रामों के लक्षण दिए हैं फिर तीनों ग्रामों को देवता और ऋतु समय बताया गया है।

Advertisement

(v) पांचवा प्रकरण :- स्वर साधारण और जाति साधारण इसमें दोनों प्रकार का साधारण और इन दोनों की विधि बताई गई है।

(vi) वर्णालंकार प्रकरण :- इस प्रकरण में वर्ण का लक्षण, उसके चार भेद, अलंकार का लक्षण, उसके चार प्रकार के अलंकार, आरोही, अवरोही, संचारी, स्थाई इनके लक्षण बताये हैं ।

Advertisement

(vii) सातवां प्रकरण :- इस प्रकरण में 18 जातियां, शुद्धा जातियों के विकृत भेद, दोनों ग्रामों की जातियां और उसके निश्चित प्रकार, ग्रह, अंश आदि जातियों के 13 लक्षण, 18 जातियों के अलग-अलग लक्षण प्रस्तार सहित हैं।

(viii) गिनती प्रकरण :- सात प्रकार के कपाल, चार प्रकार की गीति, मागधी इत्यादि के बारे में बताया गया है।

2. राग विवेकाध्याय

2. राग विवेकाध्याय :- गीतियों के आधार पर ग्राम रागों के पांच प्रकार, उपराग, राग, भाषा, भाषा जनक राग तथा विभाषा, अन्तर्भाषा इत्यादि का उल्लेख मिलता है। रागांग आदि देशी रागों को पूर्व प्रसिद्ध और अधुना प्रसिद्ध ऐसे दो भागों में गिनाया गया है। इस प्रकरण में कुल 264 रागों का वर्णन मिलता है।

3. प्रकीर्ण अध्याय

3. प्रकीर्ण अध्याय :- इस अध्याय के अंतर्गत वाग्येयकार, गांधर्व स्वरादि, गायक के गुण दोष, शिक्षाकार आदि गायक के प्रकार, शब्द भेद, शब्द के गुण और दोष, 15 प्रकार के गमको के लक्षण, 96 स्थायों के लक्षण, आलप्ति के लक्षण और भेद – प्रभेद, वृंद के लक्षण और भेद तथा गुण एवं तीन प्रकार के कुतुप इत्यादि का निरूपण किया गया है।

Advertisement

4. प्रबंधाध्याय

4. प्रबंधाध्याय – इसमें गांधर्व – गान, मार्ग – देशी, निबद्ध – अनिबद्ध प्रबंध के 6 अंग, नियुक्ति, अनियुक्ति, सूड आलि, विप्रकीर्ण, इला, इला के भेद, रीति, गुण, मात्रा, आदि का वर्णन मिलता है।

5. तालाध्याय

5. तालाध्याय :- ताल शब्द की व्युत्पति और लक्षण, पांच प्रकार के मार्गताल, मात्रा, मार्ग, कला, लघु, गुरु, लुप्त, चचत्पुट, चाचपुट, षटपितापुत्रक, पात और कला, 14 प्रकार के गीतकों का लक्षण, देशी ताल का लक्षण, उनका उद्देश्य, 120 देशी तालों के नाम तथा रूप और विस्तार का वर्णन है।

Advertisement

6. वाद्याध्याय

6. वाद्याध्याय :- इसमें तत, अवनध , शुषिर, और घनवाद्यों का वर्गीकरण है। वीणा वादन की तकनीक, वंशी व उसके भेद जैसे मुरली, काहल, सुरंगा, शंख, आदि तथा अवनध वाद्यों में पाट, सोलट, हस्तपाट, मर्दल तथा घनवाद्यों में घंटा आदि का वर्णन मिलता है।

7. नर्तन अध्याय

7. नर्तन अध्याय :- इसमें अंग, प्रत्यंग, 108 करण, अंगहार, रेचक, चारी, देशी, मार्गी, मंडल, देशी लास्य अंग, अभ्यास के लिए निर्देश दिए गए हैं।

Advertisement

परिशिष्ट Appendix of शारंगदेव कृत संगीत रत्नाकर

अंत में पांच परिशिष्ट हैं।

पहले परिशिष्ट में भाषा, विभाषा, आदि रागों के नाम हैं।

दूसरे परिष्ठ में परिशिष्ट में सप्त स्वरों का विस्तार है।

तीसरे परिशिष्ट में 22 श्रुतियों पर शुद्ध तथा विकृत स्वरों की स्थापना की गई है।

Advertisement
Advertisement

चौथे परिशिष्ट में श्रुतियों के आधार पर सड़ज, मध्यम व गंधार ग्राम के अनुसार स्वरों की स्थिति को बताया है।

पांचवें परिशिष्ट में संगीत के ग्रंथकारों के नाम है इस प्रकार यह ग्रंथ पूरे 1,000 पृष्ठों में संस्कृत के अनुष्टुप छंद में रचा गया है।

इसे आचार्य बृहस्पति द्वारा संपादित किया गया।

इसे भी पढ़े ।

Advertisement
Advertisement
Advertisement

Advertisement

Share the Knowledge

Leave a Comment