राग वर्गीकरण का इतिहास काल – Raga/Raag Classification

राग वर्गीकरण – वर्गीकरण एक प्राकृतिक नियम है । प्रकृति में स्थान – स्थान वर्गीकरण दिखाई पड़ता है । आदि काल से आज तक प्रकृति में पेड़ – पौधे मिट्टी , पहाड़ , पत्थर आदि वर्ग देखने को मिलते हैं । स्वयं मनुष्य इससे वंचित न रहा। मनुष्य ने अपनी बनाई हुई चीजों का वर्गीकरण विभिन्न नामों में किया। अध्ययन में सरलता , ज्ञान – वृद्धि तथा विषय – विस्तार के लिये उसने प्रत्येक वस्तु को विभिन्न भागों में विभाजित किया। यह प्रक्रिया किसी विषय , देश अथवा काल तक सीमित न रही, संगीत में भी वर्गीकरण हुआ। रागों को विभिन्न तरीके से बाँटने की परम्परा प्राचीन काल से आज तक चली आ रही है।

राग का वर्गीकरण ( काल )

प्राचीन काल

वर्गीकरण के इतिहास को तीन कालों में बाँटा जा सकता है। नीचे इन पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जा रहा है।

जाति वर्गीकरण

( 1 ) जाति वर्गीकरण– प्राचीन काल में कुल 3 ग्राम षडज , मध्यम और गन्धार माने जाते थे और गन्धार ग्राम प्राचीन काल में ही लुप्त हो चुका था । ‘ भरत कृत ‘ नाट्य शस्त्र ‘ में यह वर्णन है कि शेष दो ग्रामों अर्थात षडज और मध्यम ग्रामों से 18 जातियाँ उत्पन्न हुई , षडज ग्राम से 7 और मध्यम ग्राम से 11 तथा इन 18 जातियों को ‘ शुद्ध ‘ और ‘ विकृत ‘ भागों में बाँटा गया । इनमें 7 शुद्ध व 11 विकृत मानी गई । षडज ग्राम की चार जातियाँ- षाडजी , आर्षभी , धैवती और नेषादी अथवा निषादवती और मध्यम ग्राम की 3 जातियाँ- गाँधारी , मध्यमा और पंचमी शुद्ध मानी गई। ये नाम सातों शुद्ध स्वरों के आधार पर रक्खे गये । शेष 11 जातियाँ- 3 षडज की और 8 मध्यम ग्राम की विकृत मानी गई। इस प्रकार कुल 18 जातियाँ हुई। शुद्ध जातियाँ वे थीं जिनमें सातों स्वर प्रयोग किये जाते थे और जिनका नामकरण सातों स्वरों के आधार पर हुआ था , जैसे लक्षण में षाडजी , आर्षभी , गांधारी , मध्यमा , पंचमी , धैवती आदि। इनमें नाम स्वर ही ग्रह, अंश और न्यास होते थे । शुद्ध जातियों के परिवर्तन करने से जैसे न्यास , अपन्यास , ग्रह व अंश स्वर बदल देने से अथवा एक या दो स्वर वर्ण्य कर देने से तथा दो या दो से अधिक जातियों को एक में मिला देने से विकृत जातियों की रचना होती थी- जैसे षाडजी और गांधारी को मिला देने से षडजकैशिकी , गांधारी और आर्षभी को मिला देने से आंधी विकृत जाति बनती थीं इत्यादि इत्यादि । जाति और राग एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द कहे जा सकते हैं ।

जिस प्रकार आजकल राग – गायन प्रचलित है , उसी प्रकार प्राचीन काल में जाति – गायन प्रचलित थी । स्वर और वर्ण युक्त सुन्दर रचना को जाति कहते थे। यही परिभाषा राग की भी है। भरत काल में जाति के दस लक्षण माने जाते थे- ग्रह , अंश , न्यास , अपन्यास , अल्पत्व , बहुत्व , औडव , षाडवत्व , मन्द्र और तार । इसे भरत ने ‘ दस विधि जाति लक्षणम् ‘ कहा है। ग्राम से मूर्छना और मूर्छना के आधार पर जातियों की रचना हुई। ‘ संगीत रत्नाकर ‘ में जाति के 13 लक्षण माने गये हैं और भरत की 10 जाति – लक्षणों को मानते हुये सन्यास , विन्यास और अर्तमार्ग , ये तीन लक्षण पं 0 शारंगदेव ने जोड़ दिये हैं ।

ग्राम – राग वर्गीकरण

( 2 ) ग्राम – राग वर्गीकरण– जाति वर्गीकरण के पश्चात् ग्राम राग – वर्गीकरण का जन्म हुआ । सर्वप्रथम मतंग मुनि द्वारा काल में ग्राम – राग भी जाति अथवा राग के समान सुन्दर और गेय रचनायें होती थीं । प्राचीन ग्रन्थों में 30 ग्राम राग मिलते हैं अर्थात 18 जातियों से कुल तीस ग्राम राग उत्पन्न माने गये । पीछे हम बता चुके हैं कि षडज और मध्यम ग्रामों की मूर्छना से जाति और भिन्न , गौड़ , बेसर तथा साधारण इन 5 गीतियों में विभाजित किया जाति से ग्राम राग उत्पन्न माने गये । इन ग्राम रागों को शुद्ध , गया । शुद्ध 7 , भिन्न 5 , गौड़ 3 , बेसर 8 और साधारण रीति से 7 ग्राम – राग थे । ग्राम – राग ही आगे चलकर आधुनिक रागों में विकसित हुये ।

दस विधि राग – वर्गीकरण

( 3 ) दस विधि राग – वर्गीकरण– 13 वीं शताब्दी में पं 0 शारंगदेव द्वारा लिखित ‘ संगीत रत्नाकर ‘ में समस्त रागों को दस वर्गों में विभाजित किया गया । उनके नाम हैं- ( 1 ) ग्राम राग , ( 2 ) राग , ( 3 ) उपराग , ( 4 ) भाषा , ( 5 ) विभाषा , ( 6 ) अन्तर्भाषा , ( 7 ) रागांग , ( 8 ) भाषांग , ( 9 ) उपाँग और ( 10 ) क्रियाँग । इनमें प्रथम 6 वर्ग मार्गी संगीत ‘ अथवा ‘ गांधर्व संगीत ‘ के अन्तर्गत आते हैं और अन्तिम चार देशी संगीत अथवा गान के अन्तर्गत आते हैं । वास्तव में इनकी स्पष्ट और विस्तृत व्याख्या किसी भी ग्रंथ में नहीं मिलती और जो कुछ मिलती भी है वे आपस में एक दूसरे के विरोधी हैं । अतः इनके विषय में बहुत थोड़ा ही कहा जा सकता है । नीचे इन पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जा सकता है ।

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ग्राम – राग , राग और उपराग- पीछे बता चुके हैं कि षडज और मध्यम ग्रामों से मूर्छना के आधार पर ग्राम राग उत्पन्न माने गये जिनकी संख्या 30 थी । ग्राम राग से ही कुछ अन्य गेय हुई जिन्हें राग और उपराग कहा गया । इस प्रकार से ग्राम राग , राग और उपराग , राग वर्गीकरण के प्रकार रचनायें उत्पन्न थे । ‘ संगीत रत्नाकर ‘ में 30 ग्राम रागों , 20 रागों और 8 उपरागों का वर्णन है ।

भाषा , विभाषा और अन्तर्भाषा

भाषा , विभाषा और अन्तर्भाषा– ग्राम राग से उत्पन्न रचनाओं में भाषा राग भी सम्मिलित थे । भाषा से विभाषा राग और विभाषा से अन्तर्भाषा राग उत्पन्न माने गये । प्राचीन ग्रंथों में भाषा , विभाषा और अन्तर्भाषा का प्रयोग मुख्य दो अर्थों में हुआ है । प्रथम अर्थ के अनुसार- भाषा , विभाषा तथा अन्तर्भाषा राग की तरह विशिष्ट गेय रचनाएँ थीं । दूसरे अर्थ के अनुसार- ये प्राचीन गीति ‘ अथवा गायन – विधि के प्रकार थे । जिन रागों में भाषा शैली प्रयोग की जाती थी वे भाषा राग कहलाते थे , जिनमें विभाषा शैली प्रयोग की जाती थीं वे विभाषा राग और जिनमें अंतर्भाषा शैली प्रयोग की जाती थीं वे अंतर्भाषा राग कहलाते थे ।

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बृहद्देशी मतंग मुनि कृत ग्रन्थ 

मतंग मुनि द्वारा लिखित ‘ वृहद्देशी ‘ में 7 प्रकार की गीतियाँ मानी गई हैं , जिनमें भाषा और विभाषा भी सम्मिलित हैं । मतंग ने भाषा के अन्तर्गत 10 और विभाषा के अन्तर्गत 13 राग माना है । यास्तिक ने ‘ गीति ‘ के केवल तीन प्रकार भाषा , विभाषा और अन्तर्भाषा रागों के नाम तो दिये हैं , किन्तु उनका स्पष्ट वर्णन नहीं किया है । यह वर्गीकरण गांधर्व संगीत के अन्तर्गत होने के कारण अप्रचलित हो गया ।

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रागांग , क्रियांग और उपांग

रागांग , क्रियांग और उपांग- ये देशी संगीत के अन्तर्गत आते हैं , अतः इनके विषय में अच्छी जानकारी रखना आवश्यक है । इनके विषय में प्राचीन ग्रंथों में मुख्य चार मत मिलते हैं
( 1 ) दामोदर पंडित ने ‘ संगीत दर्पण ‘ में यह बताया है कि जिनमें ग्राम राग की कुछ छाया हो वे रागांग , जिनमें भाषा राग की छाया हो वे भाषांग , जिनसे थकी हुई इंद्रियों को उत्साह प्राप्त हो वे क्रियांग और जिनमें राग की छाया बहुत थोड़ी हो वे भाषांग राग हैं । यहाँ क्रियांग और उपांग का अर्थ स्पष्ट नहीं है ।
( 2 ) दूसरे अर्थ में रागाँग का अर्थ राग के विभिन्न अंग , उपांग का अर्थ राग के अन्य छोटे अंग , भाषांग का अर्थ भाषा नामक गीति ( गायन विधि ) के विभिन्न अंग तथा क्रियांग का अर्थ गायन – क्रिया के विविध अंगों से लिया गया है ।
( 3 ) तीसरा अर्थ भातखण्डे संगीत शास्त्र के प्रथम भाग के हिन्दी संस्करण पृष्ठ 140 में इस प्रकार दिया गया है , जिन रागों में शास्त्रीय नियमों का पालन हो वे रागाँग राग कहलाते हैं । ‘ भाषांग राग ‘ वे हैं जिनकी रचना देश में प्रचलित शैलियों के आधार पर होती है । ये शास्त्रीय सिद्धान्त पर आधारित नहीं होते , बल्कि शास्त्रीय सिद्धान्तों के पास होते हैं। क्रियाँग राग वे हैं जिनके अवरोह में कभी – कभी राग की रंजकता बढ़ाने के लिये विवादी स्वर का प्रयोग कर लिया जाता है । उपाँग राग वे हैं जिनमें राग के मूल स्वरों में से कुछ या कोई स्वर हटा दिया जाता है और उसके स्थान पर विवादी स्वर प्रयोग किया जाता है ।

शुद्ध , छायालग और संकीर्ण वर्गीकरण

( 4 ) शुद्ध , छायालग और संकीर्ण वर्गीकरण– प्राचीन काल में रागों को शुद्ध , छायालग और संकीर्ण वर्गों में विभाजित करने की विधि भी प्रचलित थी , किन्तु आज इनका स्पष्ट वर्णन नहीं मिलता । ऐसा कहा जाता है कि जो राग स्वतंत्र होते हैं और जिनमें किसी भी राग की छाया नहीं आती वे शुद्ध राग और जिनमें किसी एक राग की छाया आती है वे छायालग राग तथा जिनमें एक से अधिक रागों की छाया आती है वे संकीर्ण राग कहलाते हैं । इस दृष्टि से कल्याण , मुलतानी , तोड़ी आदि शुद्ध राग , छायानट , तिलक कामोद , परज छायालग राग और पीलू , भैरवी आदि संकीर्ण राग कहे जा सकते हैं ।

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मध्य काल

शुद्ध , छायालग और संकीर्ण

( 1 ) शुद्ध , छायालग और संकीर्ण– मध्य काल में भी यह विभाजन प्रचलित रहा और इनके अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं हुआ । इतना अवश्य है कि इसके समर्थक दिन पर दिन कम होते गये ।
( 2 ) मेल राग वर्गीकरण– मेल को ‘ आधुनिक थाट ‘ का पर्यायवाची कहा जा सकता है । जिस प्रकार से आधुनिक काल में थाट – राग प्रचलित है उसी प्रकार मध्य काल में मेल राग प्रचलित था । मेलों की संख्या के विषय में अनेक मत थे । कुछ ने बारह , कुछ ने उन्नीस और व्यंकटमखी ने 72 मेल सिद्ध किये । आज भी कर्नाटक पद्धति में मेल शब्द प्रचलित है । जिस प्रकार यहाँ दस थाट माने जाते हैं उसी प्रकार कर्नाटक में उन्नीस मेल माने जाते हैं । मध्यकालीन मेल राग वर्गीकरण प्राचीन मूर्छना वर्गीकरण का विकसित रूप था । लोचन ने ‘ राग तरंगिणी ‘ में केवल 12 मेल माना । इसी प्रकार ‘ राग विबोध ‘ में 23 , “ स्वर मेल कलानिधि ‘ में 27 और ‘ चतुर्दन्डिप्रकाशिका ‘ में मेलों की संख्या 19 मानी गई ।

राग रागिनी वर्गीकरण के मत -(shiv, krisna, bharat, hanuman मत )

राग – रागिनी पद्धति

सर्वप्रथम पटना के मुम्मद रज़ा ने अपनी पुस्तक ‘ नगमाते आसफ़ी ‘ में सन् 1813 में उपर्युक्त चारों मतों की आलोचना की । उन्होंने तत्कालीन राग – रागिनी पद्धति को अवैज्ञानिक सिद्ध किया और एक नये वर्गीकरण की खोज में लग गये , किन्तु स्वयं राग – रागिनी पद्धति के बाहर नहीं जा सके । उन्होंने राग और रागिनियों में सामंजस्य स्थापित करते हुये हनुमान मत से मिलते – जुलते 6 राग व 36 रागिनियों की नई पद्धति बनाई । यह पद्धति केवल कुछ समय तक प्रचलित रही । उनकी राग – रागिनियों में कुछ समता अवश्य थी । उनकी नवीनता यह थी कि उन्होंने काफी के स्थान पर बिलावल को शुद्ध थाट माना ।

मुहम्मद रज़ा के 6 राग व 30 रागिनियाँ

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( 1 ) भैरव- भैरवी , रामकली , गुजरी , खट , गांधारी , आसावरी ।

( 2 ) मालकौंस- बागेश्वरी , तोड़ी , देशी , सूघराई , सूहा , मुल्तानी ।

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( 3 ) हिंडोल- पूरिया , बसंत , ललित , पंचम , धनाश्री , मारवा ।

( 4 ) श्री- गौरी , पूर्वी , गौरा , त्रिवण , मालश्री , जैताश्री ।

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( 5 ) मेघ- मधुमाध , गौड़ , शुद्ध सारंग , बड़हंस , सामन्त , सोरठ ।

( 6 ) नट- छायानट , हमीर , कल्याण , केदार , बिहागड़ा , यमन । स्व 0 भातखण्डे जी ने स्वीकार किया है कि मुहम्मद रज़ा के इस वर्गीकरण में राग और उनकी रागिनियों में समता अवश्य है , परन्तु इतना पर्याप्त नहीं है । इसलिये रज़ा की राग – रागिनी वर्गीकरण प्रचलित हो सकी ।

राग – रागिनी पद्धति की आलोचना

राग – रागिनी पद्धति की आलोचना ( 1 ) किसी को राग , किसी को रागिनी तथा किसी को पुत्र राग मानने का कोई आधार नहीं था । अपनी – अपनी कल्पना और इच्छा के अनुसार किसी को राग , रागिनी अथवा पुत्र राग माना ।

( 2 ) किस आधार पर मुख्य राग माने गये तथा संख्या 6 ही क्यों मानी गई , न कम और न ज्यादा ।

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( 3 ) प्रत्येक राग की 6-6 अथवा 5-5 ही रागिनियाँ क्यों मानी गईं ? कम या अधिक भी मानी जा सकती थीं ।

( 4 ) अगर 6 रागिनियाँ मानी भी गईं तो कुछ विशिष्ट रागिनियाँ किसी अमुक राग की ही क्यों मानी गई जैसे उदाहरण के लिये हनुमान मत के अनुसार भैरव की रागिनियाँ भैरवी , वैरारि , मुधुमाधवी ही क्यों मानी गईं ? अन्य नहीं । इस प्रकार अनेक कमियाँ सामने आई जिनका उचित जवाब नहीं मिलता ।

( 5 ) पुत्र – रागों की वधुयें तो मान ली गईं , किन्तु वधुओं की वंश का कोई अता – पता नहीं मिलता । 

( 6 ) आगे की वंशावली का कोई पता नहीं । समाप्त हो गई । मुहम्मद रज़ा ने राग और रागिनियों में स्वर – समता लाने की चेष्टा की , किन्तु केवल स्वर – साम्य पर्याप्त नहीं था ।

अतः मध्य काल के लिये राग – रागिनी पद्धति भले ही वैज्ञानिक और न्याय संगत रही हो , किन्तु आज इस पद्धति में अवैज्ञानिकता तथा न्याय असंगत की भरमार दिखाई पड़ती है । शायद इसका कारण यह था कि मध्य कालीन राग आधुनिक रागों से पूर्णतया भिन्न थे और पहले शुद्ध थाट काफी था और आज बिलावल माना जाता है । हनुमान मत के कुछ उदाहरण और देखिये । हिंडोल की रागिनियाँ रामकली , बिलावल और देवसाख तथा पुत्र विभाष और गौरी , श्री राग की रागिनियाँ , मारवा , धनाश्री , बसन्त , आसावरी और पुत्र बिहागड़ा , शंकरा आदि माने गये । रागों की वंशावली में अधिकतर कोई समानता नहीं दिखाई पड़ती ।

आधुनिक काल

शुद्ध , छायालग और संकीर्ण

( 1 ) शुद्ध , छायालग और संकीर्ण– आधुनिक काल में यह विभाजन नाम मात्र के लिये शेष है । कभी – कभार इसका प्रयोग दिखाई पड़ता है ।

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राग – रागिनी वर्गीकरण

( 2 ) राग – रागिनी वर्गीकरण– कुछ पुराने संगीतज्ञ इसी विभाजन को मान्यता देते हैं , किन्तु यह वर्गीकरण समय के साथ तेजी से कम होती जा रही है ।

रागांग वर्गीकरण

( 3 ) रागांग वर्गीकरण– कुछ दिनों पूर्व बम्बई के स्व ० नारायण मोरेश्वर खरे ने 30 रागांगों के अन्तर्गत सभी रागों को विभाजित किया । समस्त रागों का सूक्ष्म निरीक्षण करने के पश्चात् उन्होंने 30 स्वर समुदाय चुने , जैसे ग म रे सा अथवा ग म रे सा आदि । ये स्वर जिनमें सबसे अधिक प्रमुख थे , उसी राग – नाम न उस रागांग को पुकारा जैसे पहले स्वर – समुदाय को बिलावल और दूसरे को भैरव रागांग की संज्ञा दी । इस वर्गीकरण में स्वर – साम्य की तुलना में स्वरूप – साम्य पर अधिक ध्यान रक्खा गया । रागांगों की संख्या अधिक और वर्गीकरण कुछ जटिल होने के कारण यह प्रचार में नहीं आ सका । तीस रागांगों में कुछ इस प्रकार हैं- भैरव , भैरवी , बिलावल , कल्याण , खमाज , काफी , पूर्वी , मारवा , तोड़ी , कानड़ा , मल्हार , सारंग , बागेश्री , ललित , आसावरी , भीमपलासी , पीलू , कामोद आदि ।

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थाट और राग में अंतर, गुण, उत्त्पत्ति तथा परिभाषा क्या है ? That and Raag

थाट – राग वर्गीकरण

( 4 ) थाट – राग वर्गीकरण– हम बता चुके हैं कि मध्य कालं में मेल राग वर्गीकरण प्रचलित था और यह थाट का पर्यायवाची है अर्थात् दोनों का अर्थ एक ही है। मध्यकालीन मेलों की संख्या और नाम के विषय में विभिन्न मत – मतांतर होने के कारण यह पद्धति अच्छी होती हुई भी छोड़ दी गई । आधुनिक काल में यह पद्धति थाट – राग वर्गीकरण के नाम से प्रचार में आई जिसका मुख्य श्रेय स्व 0 भातखण्डे जी को है। उन्होंने समस्त रागों को दस थाटों में विभाजित किया । थाटों के नाम हैं- बिलावल , खमाज , कल्याण , भैरव , काफी , आसावरी , भैरवी , पूर्वी , मारवा और तोड़ी। बिलावल थाट में सभी शुद्ध स्वर , कल्याण में तीव्र मध्यम और शेष स्वर शुद्ध , खमाज में कोमल नि और शेष स्वर शुद्ध, काफी में ग और नि कोमल , आसावरी में ग , ध , नि कोमल , भैरव में रे, व ध कोमल , पूर्वी में रे, ध कोमल और म तीव्र , मारवा में रे कोमल और मध्यम तीव्र तथा तोड़ी थाट में रे , ग , ध कोमल , म तीव्र और अन्य स्वर शुद्ध माने गये हैं।

उत्तर भारत में थाट – राग वर्गीकरण की ही मान्यता है । इसमें स्वर – साम्य की तुलना स्वरूप – साम्य पर अधिक ध्यान रक्खा गया है । उदाहरण के लिये भूपाली को कल्याण थाट के अन्तर्गत और देशकार को बिलावल थाट के अन्तर्गत रक्खा गया है , जबकि दोनों के स्वर एक ही है । इसी प्रकार वृन्दावनी सारंग को स्वरूप – साम्य के आधार पर काफी थाट का राग माना गया है जबकि स्वर की दृष्टि से इसे खमाज थाट का राग माना जाना चाहिये । थाट से राग उत्पन्न माने गये हैं , इसलिये थाट को जनक थाट और राग को जन्य राग और थाट – राग वर्गीकरण की जनक – जन्य पद्धति कहा गया है ।

थाट – राग वर्गीकरण में कमियां

प्राचीन काल से आज तक राग वर्गीकरण के जितने भी विभाजन हो चुके हैं उनमें से थाट – राग वर्गीकरण आधुनिक काल के लिये सर्वोत्तम है , लेकिन फिर भी इसमें कुछ सुधार की आवश्यकता है । राग ललित , पटदीप , मधुवन्ती आदि राग किसी भी थाट के अन्तर्गत नहीं आते । ललित को जबरदस्ती मारवा थाट का राग कहा गया है । इसी प्रकार चन्द्रकोश , भैरव बहार , अहिर भैरव आदि रागों के साथ भी न्याय नहीं किया गया । मिश्रित रागों के थाट – निर्धारण में भी काफी परेशानी होती है । राग अहिर भैरव में राग भैरव और काफी का मिश्रण है । इन दोनों रागों के थाट अलग – अलग हैं । ठीक इसी प्रकार की कठिनाई भैरव बहार राग के थाट निर्धारण में आती है । इसलिये सुझाव यह है कि अगर थाटों की संख्या बढ़ा दी जाय तो इस प्रकार की दिक्कत में कमी अवश्य होगी ।

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सप्त स्वर ज्ञान से जुड़ने के लिए आपका दिल से धन्यवाद ।

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6 thoughts on “राग वर्गीकरण का इतिहास काल – Raga/Raag Classification”

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