पौराणिक युग में संगीत – Pauranik yug me Sangeet ( ch- 2/9 )

हिन्दुस्तानी संगीत के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन ( 2/9 )

  1. वैदिक काल में संगीत- Music in Vaidik Kaal
  2. पौराणिक युग में संगीत – Pauranik yug me Sangeet
  3. उपनिषदों में संगीत – Upnishadon me Sangeet
  4. शिक्षा प्रतिसांख्यों में संगीत – Shiksha Sangeet
  5. महाकाव्य काल में संगीत- mahakavya sangeet
  6. मध्यकालीन संगीत का इतिहास – Madhyakalin Sangeet
  7. मुगलकाल में संगीत कला- Mugal kaal Sangeet Kala
  8. दक्षिण भारतीय संगीत कला का इतिहास – Sangeet kala
  9. आधुनिक काल में संगीत – Music in Modern Period

2. पौराणिक युग में संगीत

पौराणिक युग में संगीत – वैदिक युग के पश्चात् हमें संगीत के साक्ष्य पौराणिक तथा महाकाव्य काल में भी प्राप्त होते हैं । अतः इस युग में संगीत की स्थिति को जानने के लिए हमें पुराणों , उपनिषदों , शिक्षा ग्रन्थों का सहारा लेना पड़ता है । इस समय संगीत के शास्त्रीय स्वरूप का स्तर अवश्य ही गिर गया था और लोकगीत स्वयं लोक नृत्यों के माध्यम से जनजीवन में संगीत का प्रचार बढ़ा था ।

ग्रन्थों में 18 प्रकार के मुख्य पुराण व महापुराणों का वर्णन मिलता है । संगीत के इतिहास की दृष्टि से जिन पुराणों में संगीत विषयक विशेष सामग्री उपलब्ध होती है , उनमें हरिवंश पुराण , मार्कण्डेय पुराण , विष्णु धर्मोत्तर पुराणवायु पुराण शामिल है ।

हरिवंश पुराण

उस समय भी संगीत की वैदिक एवं लौकिक दोनों धाराएँ प्रचलित थीं । पूर्वकाल में प्रचलित इस समय भी वैदिक संगीत के अन्तर्गत यज्ञादि में साम गान होता था । साम गान के अतिरिक्त यज्ञादि में गाथा आदि का गान भी होता है । हरिवंश में वैदिक की अपेक्षा गन्धर्व संगीत का अधिक प्रचलन था ।

संगीत के अन्तर्गत गीत , वाद्य एवं नृत्य तीनों का पूर्व प्रचार था । इस युग में लोक नृत्यों का अधिक विकास परिलक्षित होता है । लोकोत्सवों में नर – नारी दोनों समान रूप से गीत एवं नृत्यों में सम्मिलित होते थे । लोक संगीत में हल्लीसक एवं छालिक्य नामक गान्धर्व का उल्लेख किया गया था । यह हल्लीसक एक प्रकार का वादन – गान के साथ लोकनृत्य था । यही रास का प्रारम्भिक रूप था । छालिक्य एक समूह गीत था , जिसके अन्तर्गत विभिन्न वाद्यों का वादन एवं नृत्य होता था । विष्णु पर्व के अनुसार इसको विभिन्न ग्रामरागों के अन्तर्गत विविध स्थान तथा मूर्च्छनाओं के साथ गाया जाता था । यह गान शैली अत्यन्त कठिन थी । मूर्च्छना और जातिगायन के साथ – साथ छ ग्राम रागों का भी वर्णन मिलता है ।

षड्ज , मध्यम व गन्धार तीनों ग्रामों का इसमें उल्लेख मिलता है । वाद्यों के चतुर्विध प्रकार प्रचलित थे , जिसके अन्तर्गत वीणा , महती , पणव , दुर्दर , वेणु , शंख , मृदंग , भेरी , मुरज , वल्लकी इत्यादि का उल्लेख हरिवंश पुराण में जगह – जगह पर मिलता है ।

मार्कण्डेय पुराण

इसके अन्तर्गत संगीत की दोनों प्रणालियों साम तथा गन्धर्व का पूर्णरूपेण उल्लेख मिलता है , गान्धर्व के शास्त्रीय विवरण के अन्तर्गत षड्ज आदि सप्त स्वर , सप्त ग्राम , राग , सात गीतकों , तीन ग्राम , मूर्च्छना , पवताल चार पद – तीन लय ( विलम्बित , मध्य व द्रुत ) जाति गान आदि का विवरण 23 वें प्रकरण में है ।

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इस पुराण के प्रथम प्रकरण में नृत्यकला के अन्तर्गत रूप तथा गुण के साथ अंगसौष्ठव को अनिवार्य भेरी , पटग , मृदंग , वीणा , वेणु , दुर्दर , पणव , दुन्दुभि शंख आदि का वर्णन किया गया है । न

विष्णु धर्मोत्तर पुराण

विष्णु पुराण को एक उप पुराण माना गया है , जिसके तीन खण्डों में से संगीत की दृष्टि से तीसरा खण्ड महत्त्वपूर्ण है । इस पुराण के 18 वें एवं 19 वें अध्याय में गीत , वाद्य , ताल सम्बन्धी उल्लेख मिलता है ।

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संगीत के तीनों स्थान उर , कण्ठ तथा शिरा के साथ ही मन्द्र मध्य एवं तार सप्तकों का स्पष्ट वर्णन है । तीन ग्रामों , सप्त स्वरों , 21 मूर्च्छना , 40 तानों आदि का उल्लेख मिलता है , इसमें वादी , संवादी तथा अनुवादी को वृत्ति कहा गया है । जाति के दस लक्षण ग्रह , अंश , तार आदि का उल्लेख मिलता है ।

इस पुराण में सात स्वरों तथा नौ रसों के आपस में सम्बन्ध का विशद् वर्णन मिलता है । लयों के साथ भी रसों का सम्बन्ध बताया गया है । संगीत के सैद्धान्तिक पक्ष का विपुल विवरण विष्णु धर्मोत्तर पुराण में देखा जा सकता है ।

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वायु पुराण

मनीषियों के अनुसार , वायु पुराण भारत के प्राचीनतम पुराणों में से अन्यतम है । ऐसा माना जाता है कि इस पुराण का संकलन ई – शती -3 से ई – शती -5 तक हो चुका था ।

वायु पुराण के अध्याय 86 और 87 में संगीत विषयक का उल्लेख मिलता है । इसके अन्तर्गत स्वर मण्डल का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि 7 स्वर , 3 ग्राम , 21 मूर्च्छना तथा 49 तान के समुदाय को स्वर मण्डल की संज्ञा दी गई है ।

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इन तीनों तानों को ग्रामों में निम्न प्रकार विभाजित किया गया है ।

• मध्यम ग्राम में – 20 तानें

• षड्ज ग्राम में – 14 तानें .

• गन्धार ग्राम में – 15 तानें

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इन तानों का उपयोग यज्ञ के अवसर पर किया जाता था ।

गीतक गीतक का उल्लेख वायु पुराण में मिलता है । गुरु , लघु अक्षरों और भिन्न तालों के आधार पर विभिन्न प्रकार के रचित गीत , गीतक कहलाते हैं । ये गीत विभिन्न प्रकार के होते थे ; जैसे – वायु पुराण में मंद्रक , अपरान्तक , उल्लोण्यक , प्रकारी रोविन्द अथवा रोविन्दक , औवेजक तथा उत्तर जैसे सात प्रकार के गीतकों का उल्लेख मिलता है । 

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