राग अड़ाना श्लोक – कोमल ग – ध दोउ निषाद , मानत स – प सम्वाद । तृतीय रात्रि गावत गुनिजन , चढ़त न ग लगात ।।
विषय - सूची
राग अड़ाना का संक्षिप्त विवरण
- राग अड़ाना की उत्पत्ति आसावरी थाट से मानी गयी है ।
- इसमें ग , ध कोमल और दोनों निषाद प्रयोग किये जाते हैं ।
- इसका वादी स्वर तार सा और संवादी पंचम है ।
- रात्रि के तीसरे प्रहर में इसे गाया – बजाया जाता है ।
- आरोह में गंधार वर्ज्य और अवरोह में वक्र है , इसलिये इस राग की जाति षाडव – सम्पूर्ण मानी जाती है ।
- आरोह – सा रे म प , ध नि सां ।
- अवरोह – सां ध नि प , म प ग म रे सा ।
- पकड़ – म प ध नि सां , ध नि प , म प ग म रे सा ।
राग अड़ाना की विशेषता
( 1 ) प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में इसका उल्लेख नहीं हुआ है । सर्व – प्रथम मध्य काल के लोचन कवि कृत ‘ राग तरंगिणी ‘ में इसका वर्णन मिलता है । इससे यह सिद्ध होता है कि इस राग अड़ाना का जन्म और विकास मध्य काल में हुआ ।
( 2 ) कुछ समय पहले कुछ विद्वान अड़ाना में शुद्ध धैवत प्रयोग करते थे , किन्तु आजकल इस मत के अनुयायी लगभग नहीं के बराबर हैं , प्रचार में कोमल धैवत वाला अड़ाना राग है ।
( 3 ) राग अड़ाना के अवरोह को देखने से यह मालूम होता है कि आरोह में गंधार स्वर बिल्कुल वर्ण्य है , किन्तु ऐसा नहीं है । कभी – कभी + आरोह में भी कोमल गंधार अल्प लगता है , जैसे- नि सा ग म , किन्तु अवरोह में कोमल ग वक्र प्रयोग किया जाता है , जैसे ग म रे सा । अड़ाना के आरोह में ग उसी समय वर्जित किया जाता है जब कि आरोह सारंग अंग से लिया जाता है । सारंग अंग का आरोह प्रचार में अधिक है ।
( 4 ) कानड़े के इस प्रकार को कुछ गुणीजन मेघ और कानड़ा का मिश्रित रूप मानते हैं और कुछ सुघराई , कानड़ा और सारंग का ।
( 5 ) शुद्ध नि आरोह में तथा कोमल नि अवरोह में प्रयोग किया जाता है । कभी – कभी कोमल नि का प्रयोग आरोह में भी होता है , जैसे म प नि ध नि रें सां ।
( 6 ) इसकी चलन मध्य तथा तार सप्तकों में होती है । इसलिये इसकी अधिकतर चीजें मध्य सप्तक के मध्यम , पंचम , निषाद तथा तार ऋषभ से प्रारम्भ होती हैं ।
( 7 ) राग अड़ाना उत्तरांग प्रधान तथा चंचल प्रकृति का होने के कारण इसमें विलम्बित ख्याल कम गाये जाते है ।
( 8 ) कानड़ा के अट्ठारह प्रकारों में यह भी एक प्रकार है जिसका प्रचार अन्य प्रकारों की अपेक्षा अधिक है ।
न्यास के स्वर– प और सां ।
समप्रकृति राग – दरबारी कानड़ा और नायकी कानड़ा ।
दरबारी– म प नि ध ऽ ध नि सां , ध ऽ ध नि प ,
अड़ाना– म प ध ऽ नि सां , रें सां नि सां , ध नि प ,
मतभेद
अड़ाना राग की जाति के विषय में विद्वानों में मतभेद है । कुछ विद्वानों ने षाड़व – षाड़व जाति का राग माना है और आरोह में गंधार और अवरोह में धैवत वयं माना है ।
राग अड़ाना सारंग अंग से गाया जाता है , अतः आरोह में अधिकतर गंधार वर्ज्य रहता है । इसलिये आरोह षाड़व जाति का मानने में कोई आपत्ति नहीं , किन्तु अवरोह में ध का प्रयोग अधिक होता है । केवल वक्र प्रयोग होने से उसे वर्ण्य मानना उचित नहीं है । अतः लेखक के मतानुसार इसे षाड़व – सम्पूर्ण जाति का राग माना जाना चाहिये ।
विशेष स्वर संगतियाँ
1. सां निध नि सां 2. मपनिसां मंग मं रे सां , 3. सारेमप निध निध नि प , 4. सा रे म प निध नि सां , रे सां
स्वरों का अध्ययन
- सा – सामान्य
- रे- अलंघन बहुत्व
- ग – आरोह में लंघन अल्पत्व किन्तु कभी – कभी विशिष्ट स्थान पर अलंघन बहुत्व और अवरोह में अलंघन बहुत्व ,
- म – अलंघन बहुत्व
- प – प दोनों प्रकार का बहुत्व
- ध – अलंघन बहुत्व ( अवरोह में कभी – कभी लंघन )
- नि – अलंघन बहुत्व
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