रस के प्रकार या भेद (विस्तृत वर्णन)-Ras ke Prakar

रसों के सन्दर्भ में एक निश्चित मत का अभाव है , जिसके कारण कहीं 10 रस की चर्चा है , तो कहीं 11 रस की चर्चा की जाती है । मुख्य रूप से रस के 10 प्रकार हैं , जो निम्न प्रकार से हैं –

रस के प्रकार

  1. शृंगार रस
  2. करुण रस
  3. वीर रस
  4. हास्य रस
  5. रौद्र रस
  6. भयानक रस
  7. वीभत्स रस
  8. अद्भुत रस
  9. शान्त रस
  10. वात्सल्य रस

भारतीय साहित्य में काव्यशास्त्रानुसार नौ रस माने गए हैं . दसवाँ रस भक्ति रस के नाम से जाना जाता है । इसे हम आगे ” रस – निष्पत्ति का प्रयोग में जानेंगे ।

1. श्रृंगार रस

1. श्रृंगार रस शृंगार रस को ‘ रसों का राजा ‘ एवं महत्त्वपूर्ण प्रथम रस माना गया है । विद्वानों के मतानुसार शृंगार रस की उत्पत्ति ‘ शृंग + आर ‘ से हुई है । इसमें ‘ शृंग ‘ का अर्थ है ‘ काम की वृद्धि तथा ‘ आर ‘ का अर्थ है ‘ प्राप्ति ‘ , अर्थात् कामवासना की वृद्धि एवं प्राप्ति ही श्रृंगार है । इसका स्थायी भाव ‘ रति ‘ है । सहदय के हृदय में संस्कार रूप में या जन्मजात रूप में विद्यमान रति नामक स्थायी भाव अपने प्रतिकूल विभाव , अनुभाव और संचारी भाव में सहयोग से अभिव्यक्त होकर जब आशीर्वाद योग्य बन जाता है तब वह शृंगार रस में परिणत हो जाता है । शृंगार का आलम्बन विभाव नायक – नायिका या प्रेमी – प्रेमिका है ।

उद्दीपन विभाव नायक – नायिका की परस्पर चेष्टाएँ उद्यान , लता कुंज आदि हैं । अनुभाव – अनुरागपूर्वक स्पष्ट अवलोकन , आलिंगन , रोमांच , स्वेद आदि हैं । उग्रता , मरण और जुगुप्सा ( घृणा ) को छोड़कर अन्य सभी संचारी भाव श्रृंगार के अन्तर्गत आते हैं । शृंगार रस में सुखद एवं दुःखद दो प्रकार की अनुभूतियाँ होती है , जो निम्न प्रकार से हैं –

श्रृंगार रस के प्रकार

( i ) संयोग श्रृंगार

( i ) संयोग श्रृंगार संयोग शृंगार के अन्तर्गत नायक – नायिका के परस्पर मिलन प्रेमपूर्ण कार्यकलाप एवं सुखद अनुभूतियों का वर्णन होता है ; जैसे

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” कहत , नटत , रीझत , खीझत , मिलत , खिलत , लजियात । भरै भौन में करत है , नैनन ही सों बात ।। “

प्रस्तुत दोहे में बिहारी कवि ने एक नायक – नायिका के प्रेमपूर्ण चेष्टाओं का बड़ा कुशलतापूर्वक वर्णन किया है , अत : यहाँ संयोग शृंगार है ।

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( ii ) वियोग श्रृंगार

( ii ) वियोग श्रृंगार इसे ‘ विप्रलंभ शृंगार ‘ भी कहा जाता है । वियोग शृंगार वहाँ होता है , जहाँ नायक – नायिका में परस्पर उत्कृष्ट प्रेम होने के बाद भी उनका मिलन नहीं हो पाता । इसके अन्तर्गत विरह से व्यथित नायक – नायिका के मनोभावों को व्यक्त किया जाता है

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” अति मलीन वृषभानु कुमारी हरि ऋम जल संतर तनु भीजै , ता लालत न घुआवति सारी । ” ” मधुबन तुम कत रहत हरे , विरह वियोग श्याम सुंदर के ठाड़े क्यों न जरे । ” वर्णन किया है , अत : यहाँ वियोग शृंगार है ।

प्रस्तुत अंश में सूरदास जी ने कृष्ण के वियोग में राधा के मनोभावों एवं दुःख का वर्णन किया है , अतः यह वियोग श्रृंगार है।

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2. करुण रस

2. करुण रस जहाँ किसी हानि के कारण शोक भाव उपस्थित होता है , वहाँ ‘ करुण रस ‘ उपस्थित होता है । यह हानि , अनिष्ट या किसी के निधन अथवा प्रेमपात्र के चिर वियोग के कारण सम्भव होती है ।

शास्त्र के अनुसार शोक ‘ नामक स्थायी भाव अपने अनुकूल विभाव , अनुभाव एवं संचारी भावों के सहयोग से अभिव्यक्त होकर जब आस्वाद का रूप धारण कर लेता है , तब उसे करुण रस कहा जाता है ।

प्रिय जन का वियोग , बन्धु , विवश , पराभव , खोया ऐश्वर्य , दरिद्रता , दुःख पूर्ण परिस्थितियाँ आदि ‘ आलम्बन ‘ हैं । प्रिय व्यक्ति की वस्तुएँ , सुर्खियाँ , यश एवं गुण कथन संकटपूर्ण परिस्थितियाँ आदि उद्दीपन ‘ विभाव हैं ।

करुण रस के अनुभाव – रोना , जमीन पर गिरना , प्रलाप करना , छाती पीटना , आसू बहाना , छटपटाना आदि अनुभाव हैं । इसके अन्तर्गत निर्वेद , मोह , जड़ता , ग्लानि , चिन्ता , स्मृति , विषाद , मरण , घृणा आदि संचारी भाव आते हैं ।

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भवभूति का मानना है कि “ करुण ही एकमात्र रस है , जिससे सहदय पाठक सर्वाधिक सम्बन्ध स्थापित कर पाता है । ” यथा ‘ रामचरितमानस ‘ में दशरथ के निधन के वर्णन द्वारा करुण रस की चरम स्थिति का वर्णन किया गया है ।

” राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम । तनु परिहरि रघुबर बिरह राउ गयऊ सुरधाय ।। ”

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आधुनिक कवियों ने करुण रस के अन्तर्गत भी दरिद्रता एवं सामाजिक दुःख – सुख का वर्णन सर्वाधिक किया है । इसी रूप में करुण रस की अभिव्यक्ति सर्वाधिक रूप में देखी जा सकती है । सूर्यकांत त्रिपाठी ‘ निराला ‘ कृत उत्साह ‘ शीर्षक कविता में व्याकुल जन – मानस का वर्णन करते हुए बादलों को करुणा प्रवाहित करते हुए बरसने का वर्णन किया गया है

” विकल विकल , उन्मन थे उन्मन विश्व ने निदाघ के सकल जन , आए अज्ञात दिशा से अनन्त के घन ।

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तप्त धरा , जल से फिर शीतल कर दो बादल गरजो । “

3. वीर रस

3. वीर रस जहाँ विषय और वर्णन में उत्साह युक्त वीरता के भाव को प्रदर्शित किया जाता है , वहाँ वीर रस होता है । शास्त्र के अनुसार उत्साह का संचार इसके अन्तर्गत किया जाता है , किन्तु इसमें प्रधानतया रणपराक्रम का ही वर्णन किया जाता है । सहृदय के हृदय में विद्यमान उत्साह नामक स्थायी भाव अपने अनुरूप विभाव , अनुभाव और संचारी भावों के सहयोग से अभिव्यक्त होकर जब आस्वाद का रूप धारण कर लेता है , तब उसे ‘ वीर रस ‘ कहा जाता है ।

आचार्यों के अनुसार वीर रस के चार भेद हैं – युद्धवीर , धर्मवीर , दानवीर एवं दयावीर ।

वीर रस का आलम्बन शत्रु , तीर्थ स्थान , पर्व , धार्मिक ग्रन्थ या दयनीय व्यक्ति माना गया है । शत्रु का पराक्रम अन्नदाताओं का दान , धार्मिक इतिहास आदि अन्य व्यक्ति की दुर्दशा वीर रस उद्दीपन विभाव हैं ।

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गर्वोक्तियाँ , याचक का आदर सत्कार , धर्म के लिए कष्ट सहना तथा दया पात्र के प्रति सांत्वना , अनुभाव है । धृति , स्मृति , गर्व , हर्ष , मति आदि वीर रस में आने वाले संचारी भाव हैं तथा युद्धवीर का एक उदाहरण देखा जा सकता है , जिसमें वीर अभिमन्यु अपने साथी से युद्ध के सम्बन्ध में उत्साहवर्द्धक पंक्ति कह रहे हैं

” हे सारथे है द्रौण क्या , देवेन्द्र भी आकर अड़े ।

है खैल क्षत्रिय बालकों का , व्यूह भेद न कर लड़े ।

मैं सत्य कहता हूँ सखे , सुकुमार मत जानो मुझे

यमराज से भी युद्ध को प्रस्तुत सदा मानो मुझे

है औरों की बात क्या , गर्व मैं करता नहीं ,

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मामा और निज तात से भी समर मैं डरता नहीं ।।

4. हास्य रस

4. हास्य रस हास्य रस मनोरंजक है । आचार्यों के मतानुसार ‘ हास्य ‘ नामक स्थायी भाव अपने अनुकूल , विभाव , अनुभाव और संचारी भाव के सहयोग से अभिव्यक्त होकर जब आस्वाद का रूप धारण कर लेता है तब उसे हास्य कहा जाता है । सामान्य हास्य रस की निष्पत्ति होती है । हास्य दो प्रकार का होता है – आत्मस्थ तथा विकृत आकार – प्रकार वेशभूषा वाणी तथा आंगिक चेष्टाओं आदि को देखने से परस्त हास्या आत्मस्थ हास्य केवल हास्य के विषय को देखने मात्र से उत्पन्न होता है , जबकि परस्त हास्य दूसरों को हँसते हुए देखने से प्रकट होता है ।

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विकृत आकृति वाला व्यक्ति किसी की अनोखी और विचित्र वेशभूषा , हँसाने वाली या मूर्खतापूर्ण चेष्टा करने वाला व्यक्ति हास्य रस आलम्बन होता है , जबकि आलम्बन द्वारा की गई अनोखी एवं विचित्र चेष्टाएँ उत्पन्न होती हैं । आँखों का मिचना , हँसते – हँसते पेट पर बल पड़ जाना , आँखों में पानी आना , मुस्कुराहट , हँसी , ताली पीटना , आदि अनुभाव हैं , जबकि हास्य रस के अन्तर्गत प्रत्येक सफलता , अश्रु , उत्सुकता , स्नेह , आवेग , स्मृति आदि संचारी भाव होते हैं ।

एक हास्य रस का उदाहरण इस प्रकार है जिसमें पत्नी के बीमार पड़ने के चित्र को हल्की हास्यास्पद स्थिति का चित्रण काका हाथरसी अपने एक छन्द में करते हैं

” पली खटिया पर पड़ी , व्याकुल घर के लोग । व्याकुलता के कारण , समझ ना पाए रोग ।

समझ ना पाए रोग , तब एक वैद्य बुलाया । इस को माता निकली है , उसने यह समझाया ।

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यह काका कविराय सुने , मेरे भाग्य विधाता । हमने समझी थी पत्नी , यह तो निकली माता । “

5. रौद्र रस

5. रौद्र रस क्रोध भाव को व्यंजित करने वाला रस “ रौद्र रस ” कहलाता है । शास्त्र के अनुसार , सहदय में वासना में विद्यमान क्रोध रस नामक स्थायी भाव अपने अनुरूप विभाव , अनुभाव और संचारी भाव के सहयोग से जब अभिव्यक्त होकर आस्वाद का रूप धारण कर लेता है , तब उसे रौद्र कहा जाता है । वस्तुतः जहाँ विरोध , अपमान या उपकार के कारण प्रतिरोध की भावना क्रोध उपजती है वहीं ‘ रौद्र रस ‘ साकार होता है ।

अतः अपराधी व्यक्ति , विपक्षी या दुराचारी रौद्र का आलम्बन है ।

अनिष्टकारी , निन्दा , कठोर वचन , अपमानजनक वाक्य आदि उद्दीपन विभाव हैं । रौद्र रस का अनुभाव आँखों का लाल होना , होठों का फड़फड़ाना , भौहों का तरेरना , दाँत पीसना , शत्रुओं को ललकारना , अस्त्र – शस्त्र चलाना आदि हैं । वहीं मोह , उग्रता , स्मृति , भावेश , चपलता , अति उत्सुकता , अमर्ष आदि संचारी भाव है ।

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एक उदाहरण देखा जा सकता है , जिसमें कृष्ण के वचनों को सुनकर अर्जुन के क्रोध भाव को व्यक्त किया गया है

” श्रीकृष्ण के सुन वचन , अर्जुन क्षोभ से जलने लगे । लब शील अपना भूलकर करतल युगल मलने लगे ।

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संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े । करते हुए यह घोषणा वह हो गए उठ खड़े ।। ”

6. भयानक रस

6. भयानक रस शास्त्र के अनुसार किसी बलवान शत्रु या भयानक वस्तु को देखने पर उत्पन्न पय ही ‘ भयानक रस है । भय नामक स्थायी भाव जब अपने अनुरूप आलम्बन , उदापन एवं संचारी भावों का सहयोग प्राप्त कर आस्वाद का रूप धारण कर लेता है , तो इसे भयानक रस कहा जाता है । इसका आलम्बन भयावह या जंगली न्तर्सम्बन्ध जानवर अथवा बलवान शत्रु है । निस्सहाय और निर्बल होना शत्रुओं या हिंसक जीवों की चेष्टाएँ उद्दीपन हैं एवं स्वेद , कम्पन , रोमांच आदि इसके अनुभाव हैं । संचारी भावों के अन्तर्गत प्रश्नों , गिलानी , दयनीय , शंका , चिन्ता , आवेश आदि आते हैं ।

” एक और अजगरहि लखि , और मृगराय । विकल बटोही बीच ही परयो मूर्छा खाए । ”

प्रस्तुत उदाहरण में एक मुसाफिर अजगर और सिंह के मध्य फँसने एवं उसके कार्य का वर्णन किया गया है ।

7. वीभत्स रस

7. वीभत्स रस वीभत्स घृणा के भाव को प्रकट करने वाला रस है । आचार्यों के मतानुसार जव घृणा या जुगुप्सा का भाव अपने अनुरूप आलम्बन , उद्दीपन एवं संचारी भाव के सहयोग से आस्वाद का रूप धारण कर लेता है , तो इसे वीभत्स रस कहा जाता है ।

घृणास्पद व्यक्ति या वस्तुएँ इसका आलम्बन है । घृणित चेष्टाएँ एवं ऐसी वस्तुओं की स्मृति उद्दीपन विभाव है । झुकना , मुँह फेरना , आँखें मूंद लेना इसके अनुभाव हैं , जबकि इसके अन्तर्गत मोह , अपस्मार , आवेद , व्याधि , मरण , मूर्छा आदि संचारी भाव हैं ।

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” सिर पै बैठ्यो काग , आँख दोउ खात निकारत । खींचत जिभहि स्यार , अतिहि आनन्द उर धारत ।। ”

उपरोक्त उदाहरण में शव के सम्बन्ध में गिद्ध के घृणित विषय की प्रस्तुति के कारण यहाँ वीभत्स है ।

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8. अद्भुत रस

8. अद्भुत रस विस्मय करने वाला “ अद्भुत रस ” कहलाता है । जो विस्मय भाव अपने अनुकूल आलम्बन , उद्दीपन , अनुभाव और संचारी भाव का संयोग पाकर आस्वाद का रूप धारण कर लेता है , तो उसे ‘ अद्भुत रस ‘ कहते हैं । इसका आलम्बन आलौकिक या विचित्र वस्तु या व्यक्ति है ।

आलम्बन की अद्भुत विशेषताएँ एवं उसका श्रवण – वर्णन उद्दीपन हैं । इससे स्तम्भ स्वेद , रोमांच , आश्चर्यजनक भाव , अनुभव उत्पन्न होते हैं । इसके अतिरिक्त वितर्क , आवेश , हर्ष , स्मृति , मति , त्रासदी संचारी भाव हैं ।

” अखिल भुवन चर अचर सब , हरिमुख में लखि मात चकित भई गदगद वचन विकसित दृग पुलकात ।

” प्रस्तुत अंश में माता यशोदा का कृष्ण के मुख में ब्रह्माण्ड दर्शन से उत्पन्न विषय के भाव को प्रस्तुत किया गया है । यह असम्भव से लगने वाले भाव को उत्पन्न करता है ।

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9. शान्त रस

9. शान्त रस तत्त्वज्ञान और वैराग्य से शान्त रस की उत्पत्ति मानी गई है । इसका स्थायी भाव ‘ निर्वेद ‘ या शम है । जो अपने अनुरूप विभाव , अनुभाव और संचारी भाव से संयुक्त होकर आस्वाद का रूप धारण करके शान्त रस रूप में परिणत हो जाता है । संसार की क्षणभंगुरता कालचक्र की प्रबलता आदि इसके आलम्बन हैं ।

संसार के प्रति मन न लगना उचाटन का भाव या चेष्टाएँ अनुभाव हैं , जबकि धृति , मति , विबोध , चिन्ता आदि इसके संचारी भाव हैं । उदाहरणस्वरूप तुलसी के निम्न छन्द में संसार का सत्य बताया गया है कि समय चुकने के बाद मन पछताता है ; अत : मन को सही समय पर सही क्रम के लिए प्रेरित करना चाहिए –

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” मन पछितैही अवसर बीते

दुरलभ देह पाइ हरिपद भुज , करम वचन भरु हिते ।

सहसबाहु दस बदन आदि नृप , बचे न काल बलिते ।। “

10. वात्सल्य रस

10. वात्सल्य रस – माता – पिता एवं सन्तान के प्रेम भाव को प्रकट करने वाला रस वात्सल्य रस है । ‘ वत्सल ‘ नामक भाव जब अपने अनुरूप विभाव , अनुभाव और संचारी भाव से युक्त होकर आस्वाद का रूप धारण कर लेता है , तब वह वत्सल रस में परिणत हो जाता है । माता – पिता एवं सन्तान इसके आलम्बन हैं । माता – पिता सन्तान के मध्य क्रियाकलाप उद्दीपन है । आश्रय की चेष्टाएँ प्रसन्नता का भाव आदि अनुभाव हैं , जबकि हर्ष , गर्व आदि संचारी भाव हैं ।

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इसका एक उदाहरण देखा जा सकता है , जिसमें बालक कृष्ण को घुटने के बल चलते देख यशोदा की प्रसन्नता का वर्णन किया गया है

“ किलकत कान्ह घुटवानि आवत ।

मछिमय कनक नंद के भांजन विंब परखिये धातात

बालदशा मुख निरटित जसोदा पुनि पुनि चन्द बुलवान ।

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अँचरा तर लै ढाँकि सुर के प्रभु को दूध पिलावत ।।

रस – निष्पत्ति का प्रयोग

” रस – निष्पत्ति का प्रयोग संगीत में जब यथा समय राग के माध्यम से श्रोता को आनन्द की अनुभूति होती है , वही रसावस्था है । भारतीय साहित्य में काव्यशास्त्रानुसार नौ रस माने गए हैं । इसी प्रकार भारतीय संगीत शास्त्रज्ञों ने भी नव रसों का विस्तृत वर्णन किया है , जो इस प्रकार हैं

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1. शृंगार रस 2. वीर रस 3. करुण रस 4. शान्त रस 5. रौद्र रस 6. भयानक रस 7. वीभत्स रस 8. अद्भुत रस 9. हास्य रस

एक दसवाँ रस भक्ति रस के नाम से जाना जाता है । इन सभी रसों का उल्लेख हमारे काव्यों में मिलता है । संगीत में काव्य होने के नाते उन सभी रसों का समावेश हो सकता है । संगीत को स्वरों की भाषा कहा है , परन्तु वाद्यसंगीत में शब्दों का स्थान नहीं है । वीर रस , श्रृंगार रस , करुण रस व शान्त रस इनका संगीत में उपयोग इस तरह से माना जाता है ; जैसे – सा – म की प्रकृति वाले रागों में शान्त रस , ग – ध वाले रोगों में गम्भीर रस , प की चर्चा व निषाद की सरल प्रकृति मानी है ।

शारंगदेव ने संगीत रलाकर ‘ में निम्न प्रकार से रस – निष्पत्ति मानी है

सा – वीर रस , रौद्र रस

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रे – वीर रस , रौद्र रस

ग – करुण रस

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म – करुण रस

प – हास्य रस व शृंगार रस

ध – भयानक रस

नी – करुण रस

शारंगदेव ने रसों को विभिन्न स्वरों में निम्न प्रकार जोड़ा है

स रे – वीर रस

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ग नि – करुण रस

प म – हास्य रस

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ध – वीभत्स रस

भरत ने स्वरों में रस का विभाजन इस प्रकार किया है

म – हास्य रस

प – शृंगार रस

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स – वीर रस,

रे – रौद्र रस

कुछ विद्वानों ने राग में प्रयुक्त होने वाले स्वर से रस की निष्पत्ति मानी है । राग में प्रयुक्त होने वाले स्वरों के माध्यम से उसमें रस को जोड़ा है । जैसे कोमल स्वर वाले रागों का सम्बन्ध भक्ति रस से जोड़ा गया है । इसके अतिरिक्त दोनों माध्यमों का प्रयोग शृंगार रस से जोड़ा गया है तथा कोमल ग ध नि स्वरों से वीर रस का सम्बन्ध जोड़ा गया है । कुछ विद्वानों ने ऐसा भी माना है कि किसी विशिष्ट राग से विशिष्ट रस की उत्पत्ति होती है । जैसे भैरवी राग को करुण व शृंगार रस के लिए उपयुक्त माना है । मल्हार अंग के सभी राग वियोग शृंगार रस के लिए उपयुक्त माने गए हैं ।

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