रवीन्द्र संगीत स्वरलिपि – rabindra Sangeet Swarlipi बांग्ला संगीत को लिपि बद्ध करने की आवश्यकता ने रबिन्द्र नाथ टैगोर को प्रेरित किया बांग्ला संगीत के लिए उपयुक्त स्वरलिपि पद्धति की रचना करने के लिए ।
विषय - सूची
आकारमात्रिक स्वरलिपियाँ ( नोटेशन ) अर्थात् रवीन्द्र संगीत स्वरलिपि
- रवीन्द्रनाथ टैगोर , भातखण्डे जी व उनके द्वारा रचित स्वरलिपि से अत्यधिक प्रभावित थे , परन्तु उन्हें लगा कि रवीन्द्र संगीत की गहराई को प्रकट करने में भातखण्डे स्वरलिपि समर्थ नहीं हो सकेगी , इसलिए रवीन्द्र संगीत के लिए उन्होंने ‘ आकारमात्रिक स्वरलिपि ‘ को ही उपयुक्त माना ।
- संगीत नाटक अकादमी द्वारा गृहीत मानक स्वरलिपि की मुख्य विशेषता यह है कि इसके अन्तर्गत कृति में व्यवहत सरगम स्वरों को उनके सरगम पचन मूल व्यंजनों से निर्देशित किया जाता है । यह स्वरलिपि ‘ गोत शैली ‘ की अतिसूक्ष्म भावों की बारीकियों को दशनि में सक्षम सिद्ध हुई है । रवीन्द्रनाथ जी को स्वरलिपि व उसकी अकन पद्धति इस प्रकार है –
- शुद्ध सप्तक स र ग म प ध न – मन्द्र सप्तक स्वरों के नीचे हलन्त चिह दर्शाया जाता है । जैसे – म् , प् ,
- तार सप्तक स्वरों के ऊपर रेफ का चिह दिया जाता है , जैसे – मे रे गे मे
- कोमल , तीव्रस्वर कोमल व तीव्र स्वर दर्शाने के लिए टैगोर साहब ने विभिन्न अक्षरों का प्रयोग किया है , जो इस प्रकार है –
शुद्ध स्वर | कोमल स्वर |
रे | ऋ |
ग | ड़ |
ध | द |
न | ण |
म | घृ ( तीव्र ) |
अनुकोमल स्वर
अनुकोमल स्वर – स्वरों पर 1 का अंक लिखकर उन्हें दर्शाया जाता है ; जैसे – र1 ग1 ध1 नि1 ।
इन स्वरों का स्थान –
स व रे के बीच ,
रे व ग के बीच ,
प व ध के बीच ,
ध व नि के बीच होता है ।
अतिकोमल स्वर
- अतिकोमल स्वर • स्वरों पर दो का अंक लिखकर दर्शाया जाता है । जैसे – रे2 ग2 ध2 नि2 . इन स्वरों का स्थान रे व रे के बीच ग व ग के बीच ध व ध के बीच होता है ।
- यदि किसी कृति में सप्तक नम्बर 0,0 यानि बिलावल थाट का प्रयोग हुआ है , तो राग लक्षण या संगीत लक्षण में उसका ज्ञान ‘ सब स्वर शुद्ध कथन से मिल जाएगा और स्वरलिपि में व्यवहत मूल व्यंजन उन्ही सात स्वरों का निर्देश करेंगे जो सप्तक नम्बर 4 में सामान्यतः प्रयुक्त होते है और जिनमें चार स्वर कोमल होते हैं , अन्य सप्तको के सम्बन्ध में भी यही नियम लागू होगा ।
ताल लिपि पद्धति
- ताल विभाग एक खड़ी लकीर
- एक आवर्तन के बाद एक खड़ी लकीर
- एक पद के आदि व अन्त में दो खड़ी लकीरे ।।
- पूरे गीत के अन्त में चार खड़ी लकीरे ।।
- स्थायी को पुनरावृत्ति के लिए जोड़ी को लकीरें होती है ।।
- चार लकीरें ।। ।। देकर जहाँ पर दो खड़ी लकीरे हो , वहां से स्थायी दोहराई जाती है । स्थायी के आरम्भ में , दो खड़ी लकीरों के बाहर का हिस्सा एक ही बार गाया जाता है ।
- ताल संख्या व ताल चिह्न ताल खण्ड 12340 इस प्रकार दर्शाया जाता है , 0 यह खाली का चिह्न है तथा 1 के चिह्न का संकेत सम से है , ताली को 2 , 3 , 4 , मात्रा संख्या से दर्शाया जाता है ।
- मात्रा चिह्न – एक मात्रा T ( आ की मात्रा ) आधी मात्रा दो 1/2 मात्रा = सम , चार 1/4 मात्रा = सरगमा , दो 1/4 मात्रा = स र दो 1/4 मात्रा मिलकर = सः सरः एक 1/2 मात्रा मिलकर = रा : गः
कण
- किसी स्वर के पूर्व यदि किसी अन्य स्वर का कण लगे , तो कण स्वर मुख्य स्वर के बाईं ओर लगेगा ।
- कभी किसी स्वर के बाद में किसी स्वर का कण लगाया जाता है , तो उन कण स्वरों को मुख्य स्वर के दाईं ओर लिखेंगे ।
विराम
विराम- आड़ी लकीर या हायफन का चिह्न , पद के अन्त में यदि किसी स्वर पर दो खड़ी लकीरें हों , तो वहाँ पर या तो पूरी तरह रुक जाएँगे या थोड़ी देर रुककर दूसरा पद आरम्भ करेंगे ।
कोष्ठक के चिह्न
कोष्ठक के चिह्न • यदि किसी पंक्ति की पुनरावृत्ति आवश्यक हो , तो वह टुकड़ा ( ~ ) सर्पाकार कोष्ठक के बीच लिखा जाएगा । यदि गीत का कोई भाग पुनरावृत्ति में छोड़ा जाए , तो ( ) छोटे कोष्ठक के बीच लिखा जाएगा ।
खाली मात्रा के चिह्न
खाली मात्रा के चिह्न – यदि स्वर के नीचे गति के अक्षर न हों , तो स्वर के साथ हायफन का चिह्न व गीत के शब्द के साथ शून्य लगेगा ; जैसे स — 1- = 0 तू 000
विराम का चिह्न
विराम का चिह्न – विराम चिह्न आड़ी लकीर के द्वारा दर्शाया जाता है । यही चिह्न मात्राओं के समूह के लिए भी प्रयुक्त होता है ।
रवीन्द्र संगीत स्वरलिपि / आकारमात्रिक स्वरलिपि व भातखण्डे स्वरलिपि का तुलनात्मक अध्ययन
स्वरांकन संकेत | आकारमात्रिक स्वरलिपि पद्धति | भातखण्डे स्वरलिपि पद्धति |
शुद्ध स्वर | स र ग म प ध न | स रे ग म प ध नि |
कोमल स्वर | ऋ ज्ञ द ण | स रे ग म प ध नि |
तीव्र मध्यम | ह्य | म1 |
मन्द्र सप्तक | स् र् ग् म् प् ध् न् | स रे ग म प ध नि |
तार सप्तक | से रे गे मे पे धे ने | सं रें गं मं पं |
मात्रा | | | __ |
ताल विभाग | एक आवर्तन के बाद एक लकीर | व नए पद के प्रारम्भ में ।। गीत के अन्त में II , गीत के जिस अंश को दोहराने का संकेत देना हो , वहाँ गीतांश के आगे व बाद में दो – दो लकीरें दी जाती हैं । गीत के नीचे 0 हो तो खाली और 1 लिखकर हलन्त हो तो सम । | आवर्तन के लिए अलग कोई संकेत नहीं है , गीत जिस ताल में होता है , उसके अनुसार एक आवर्तन एक ही पंक्ति में लिखी ती है व नीचे ताल चिह्न दिए जाते हैं । |
रवीन्द्र संगीत स्वरलिपि – Rabindra Sangeet Swarlipi
इस प्रकार रवीन्द्र संगीत ऐसा सम्पूर्ण संगीत है , जिसमें संगीत के मूल गुणों का समावेश है और जो अपने निरालेपन के कारण भारतीय संगीत जगत की सहज निर्मल धारा के रूप में सतत विद्यमान व प्रवाहमान है ।
ऐसा माना गया है कि जो स्थान काव्य में छन्द का है , वही स्थान गीत में ताल का है । छन्द को साधारण रूप से दो भागों में बाँटा जा सकता है – पहले समान चलन के छन्द को असम मात्रा का चलन कहा जाता है ।
तीन मात्रा के चलन को असम मात्रा का चलना कहा जाता है । रवीन्द्र संगीत में तीन मात्रा में चलन चंचल होता है , आठ मात्रा का चलन गम्भीर प्रकृति का होता है । इस आधार पर गीत की प्रकृति के अनुसार ताल का चयन किया जाता है ।
रवीन्द्र संगीत में ताल तथा लय गीत के भाव के अनुसार चुनी जाती है । रवीन्द्र संगीत में ताल को एकसमान रखना आवश्यक नहीं होता , भाव पक्ष के आगे ताल तथा स्वर गौण हैं । इसी को सामने रखकर रवीन्द्र संगीत में सम पर आने का नियम कठोर नहीं है । रवीन्द्र संगीत में सम का बन्धन नहीं माना जाता है ।
रवीन्द्र संगीत स्वरलिपि के इस अध्याय में बस इतना ही जुड़े रहें सप्त स्वर ज्ञान के साथ धन्यवाद ।