देशी और मार्गी ताल पद्धति – Margi and Deshi Taal Paddhati

देशी और मार्गी ताल पद्धति

मार्ग – देशी ताल

देशी और मार्गी ताल :- मार्ग – देशी ताल प्राचीन उपलब्ध ग्रन्थों में आचार्य भरतमुनि का नाट्यशास्त्र सर्वप्रथम ग्रन्थ है । उन्होंने अपने ग्रन्थ के 31 वें अध्याय में ताल विधान का विश्लेषण तथा परिभाषाओं को स्पष्ट किया है । ताल पद्धति से आशय ताल व्याख्या , ताल के गठन के नियम , ताल खण्ड , निश्चित पटाक्षर , सशब्द – निशब्द क्रिया , ताल प्रस्तुति , ताल विस्तार आदि का विवेचन है ।

मार्गी ताल

मार्गी ताल – भरतमुनि ने सर्वप्रथम अपने ग्रन्थ में ताल पद्धति का प्रारम्भ किया तथा पाँच मार्गीय तालों का वर्णन किया , मार्ग ताल पद्धति शारंगदेव के समय तक किसी – न – किसी रूप में प्रचलित थी ।

पाँच मार्गीय तालों के नाम निम्न हैं – चंचत्पुट , चाचपुट , षटपितापुत्रक , सम्यक् वेष्टाक् तथा उद्घट्ट ।

उन्होंने ताल की परिभाषा को निम्न प्रकार से अभिव्यक्त किया है :-

वाद्यं तु यद्धनं प्रोक्तं कलापात लयान्वितम् कांस्तस्य प्रमाणं हि विधेय ताल योशातः ।।

अर्थात् कलापात और लय से अन्वित ताल जो घनवाद्य पर होने वाली क्रियाओं के द्वारा काल को नापता है , वह ताल है । घनवाद्य पर सशब्द – निशब्द क्रियाओं से युक्त लय के द्वारा काल का प्रमाण किया जाता है , वही ताल है । उस समय ताल की दृष्टि से घनवाद्य कला , पात , लय और मार्ग का अत्यधिक महत्त्व था । घनवाद्य द्वारा ही ताल को स्पष्ट किया जाता था । अवनद्ध वाद्य केवल अनुरंजन ही किया करते थे । घनवाद्यों में खिंचाव , ढीलापन या दबाव घटता बढ़ता नहीं है और आघात के द्वारा कालखण्ड दिखाना अधिक सरल होता था । इस प्रकार हम देखते हैं कि घनवाद्य का ताल स्वरूप की दृष्टि से आधारभूत महत्त्व था । 

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मार्गी ताल पद्धति

  • कला -कला के दो प्रकार ‘ सशब्द ‘ और नि : शब्द है । जब कला और पात का एक साथ प्रयोग किया जाता था , तो कला को निःशब्द क्रिया के अर्थ में लिया जाता था और पात सशब्द क्रिया के लिए प्रयोग होता है ।
  • पात – पात का अर्थ ‘ गिरना होता है , जिसको वर्तमान में भरी के नाम से जाना जाता है । पात क्रिया को सशब्द क्रिया कहा गया है । ताल की दृष्टि से काल का अत्यधिक महत्त्व है , क्योंकि काल का खण्ड करने के लिए किसी क्रिया का होना आवश्यक है । कला और पात का साथ – साथ प्रयोग होने से कला का अर्थ निःशब्द और पात का अर्थ सशब्द क्रिया होता है ।
  • ताल – तल ‘ का अर्थ है प्रतिष्ठा देने वाला , चूँकि ‘ ताल ‘ संगीत की गति , वाद्य और नृत्य तीनों विधाओं को अपने में धारण कर प्रतिष्ठा प्रदान करता है , इसलिए उसे ताल कहा गया है ।
  • क्रिया – क्रियाएँ दो प्रकार की बताई गई हैं – निःशब्द क्रिया और सशब्द क्रिया । निःशब्द क्रिया वह है , जिसमें क्रिया से कोई ध्वनि नहीं सुनाई पड़ती , जबकि सशब्द क्रिया वह है , जिसमें ध्वनि क्रिया द्वारा स्पष्ट सुनाई पड़ती है ।
  • मार्ग – प्राचीन समय में मात्रा का प्रयोग न करके मार्ग का प्रयोग होता था । मार्ग का अर्थ ‘ रास्ता ‘ होता है । इस प्रकार जिस तरह का मार्ग होता था , उसी तरह का गायन – वादन होता था । भरतनाट्शास्त्र में चित्र , वार्तिक और दक्षिण तीन मार्ग तथा संगीत रत्नाकर ‘ में चार मार्ग – ध्रुव , चित्र , वार्तिक और दक्षिण का वर्णन है । ध्रुव में एक लघु की कला , चित्र वार्तिक एवं दक्षिण में क्रमशः 2 , 4 और 8 लघु की कला होती है । ताल की दृष्टि से इसका अत्यधिक बड़ानीमनदिनेबेडो महत्त्व था ।
  • अंग – ताल नामों के पटाक्षर के अनुसार लघु , गुरु एवं प्लुत आदि मात्रा खण्डों के अंग कहते थे । जितने अंग होते थे उतने ही ताल के भाग होते थे । ताल खण्डों को लघु , गुरु प्लुत आदि चिह्नों द्वारा दर्शाया जाता था । जैसे – लघु = 1 मात्रा काल , गुरु = 2 मात्रा काल तथा प्लुत = 3 मात्रा काल । इन चिह्नों के अनुसार ही मात्राएँ जानी जाती थीं ।
  • ग्रह – आचार्य भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में समपाणि , अवपाणि एवं उपरिपाणि तीन ग्रह बताए है , किन्तु शास्त्र पक्ष से इसका कोई सम्बन्ध नहीं बताया है । आचार्य शारंगदेव ने पाणि को ‘ ग्रह ‘ कहा है जिसका अर्थ है ‘ हाथ ‘ , क्योंकि हाथ के द्वारा क्रिया की जाती है एवं ग्रह का अर्थ ‘ ग्रहण करना ‘ या पकड़ना है ।
  • जाति – नाट्यशास्त्र में मार्गी तालों की मुख्य दो जातियाँ बताई गई है । एक ‘ चतुरश्र ‘ और दूसरी ‘ त्रयश्री ‘ । दोनों जातियों के दो ताल बताए हैं , जो क्रमश : ‘ चंचत्पुट ‘ : तथा ‘ चाचपुट ‘ : है । इसके अतिरिक्त तीसरी जाति ‘ मिश्र ‘ भी बताई है ।

पाँच मार्गी ताल

पाँच मार्गी ताल कुछ इस प्रकार हैं-

1. चंचत्पुट – | ऽ ( स श ता श ) = 8 मात्रा चतुरश्र जाति

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2. चाचपुट – | | ( श ता श ता ) = 6 मात्रा त्रयस्त्र जाति

3. षट्पितापुत्रक – ऽ | | ऽ ( स ता श ता श ता ) = 12 मात्रा

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4. सम्यक् वेष्टाक् – ऽ ऽ ऽ ( ता श ता श ता ) = 12 मात्रा

5. उद्घट्ट-   ( नि श श )  = 6 मात्रा

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देशी ताल

  • देशी ताल नरतमुनि के नाट्यशास्त्र के पश्चात् निम्नलिखित चार प्राचीन ग्रन्थ ऐसे हैं , जिनमे । जाल के सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन किया गया है ।
  1. मतंग का वृहदेशी
  2. सोमेश्वर का मानसोल्लास
  3. जगदेवमल्ल का संगीत – चूड़ामणि
  4. शारंगदेव का संगीत – रत्नाकर
  • मतंगकृत वृहदेशी में ताल के बारे में उल्लेख किया गया है , किन्तु सम्पूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध न होने के कारण ताल के सम्बन्ध में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है ।
  • मानसोल्लास तथा चूड़ामणि में देशी तालों के संकेत एवं उनके लक्षण अवश्य मिलते हैं , किन्तु इन तालों में देशी ताल संज्ञा का प्रयोग नहीं हुआ है । जिन तालों का निरूपण ( प्रयोग ) इनमें हुआ है , वे ताल देशी वर्ग के है । तथा इन्हें संगीत रत्नाकर में देशीताल कहा गया है । इसमें पाँच इकाइयाँ एवं उनके चिह्न हैं । ये इकाइयाँ एवं चिह्न निम्न है – द्रुत , = 0 , लघु = 1 , गुरु = 5 , प्लुत = 5 एवं विराम = 1
  • चार प्रकार के मार्ग वर्तिक , दक्षिण , चित्र एवं चित्रतर तथा ध्रुव व 30 तालों के लक्षण भी दिए हैं । उनमें से एक दो के अतिरिक्त शेष सभी तालों के नाम व लक्षण संगीत रलाकर में वर्णित 120 तालों से मिलते हैं ।

देशी और मार्गी ताल पद्धतियों में समानता

देशी और मार्गी ताल पद्धतियों में समानता देशी और मार्गी ताल पद्धतियों में निम्नलिखित समानताएँ पाई जाती थीं ।

  • इकाई लगभग एक – सी ही रहती है । किसी सीमा तक दोनों प्रकार की तालों में इकाइयों में समानता बनी रहती है ।
  • दोनों तालों ( मार्गी व देशी ) में एक प्रमाणित लय रही ।
  • दोनों तालों में घनवाद्य का प्रयोग अवश्य होता था ।
  • सशब्द और निशब्द क्रियाओं का प्रयोग कुछ – न – कुछ रूप में अवश्य रहता है ।
  • द्रुत , मध्य एवं विलम्बित लयों का सम्बन्ध दोनों प्रकार की तालों में रहता है ।

देशी और मार्गी ताल पद्धति में अन्तर

देशी और मार्गी ताल पद्धति में अन्तर देशी और मार्गी ताल पद्धति में निम्नलिखित भिन्नताएँ पाई जाती थीं । इसे निम्न तालिका के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है

मार्गी ताल देशी ताल
मार्गी ताल देशी ताल मार्गताल केवल पाँच है देशी तालों की संख्या 120 है तथा पाँच मार्गी तालों के खण्डभेद देशी तालों का जन्म हुआ है ।
मार्ग तालों में लघु , गुरु एवं लुप्त तीन इकाइयाँ थीं । जबकि देशी तालों में चार इकाइयाँ द्रुत , लघु , गुटन व लुप्त थी ।
मार्गतालों में सशब्द और निःशब्द क्रियाओं के विभिन्न रूपों का हाथ से की जाने वाली क्रियाओं का स्पष्ट उल्लेख है । जबकि देशी तालों में ऐसा नहीं है ।
मार्ग तालों में तीन मार्ग का उल्लेख है । जबकि देशी तालों में चार मार्ग – ध्रुव , चित्र , ताली है , वार्तिक और दक्षिण का उल्लेख है ।
मार्गतालों में यथाक्षर रूप से सबसे छोटा ताल चाचपुट है , जिसका स्वरूप | | है । तथा सबसे बड़ा ताल सम्यक् वेष्टाक् है , जिसका स्वरूप है । देशी तालों में सबसे छोटी ताल एक ताली है जिसका स्वरूप ( एकदुत ) है । सबसे बड़ी ताल सिंह नन्दन है ,
जिसका मार्ग तालों में यति , मार्ग , यथाक्षर , द्विकल , चतुष्फल , गृह आदि का उल्लेख है । जबकि देशी तालों में ऐसा नहीं है ।
मार्ग तालों की इकाइयों का मान पाँच लघु उच्चारण काल था उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन सम्भव नहीं था । जबकि देशी तालों में लघु इकाई 4 : 5 : 6 आवश्यकतानुसार कोई भी हो सकती थी । 

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