रागों के समय सिद्धान्त का महत्त्व व उपयोगिता – राग/ Raag
रागों के समय सिद्धान्त का महत्त्व व उपयोगिता – संगीत का मुख्य उद्देश्य मनुष्य के मन का रंजन करना है । किसी भी प्रकार के गायन व वादन की सार्थकता वहीं सिद्ध हो जाती है , जब संगीत को सुनकर या गा – बजाकर दिल खुश हो जाता है , चाहे वह राग गायन हो या किसी और प्रकार का संगीत ।
पण्डित दामोदर के अनुसार “ यथेच्छा वा गातव्याः सर्वर्तुषु सुखप्रदः “ अर्थात् इच्छा के अनुसार कोई भी राग किसी भी समय अथवा किसी भी ऋतु में सुख प्रदान करेगा ।
राजतरंगिणी के अनुसार , संगीत गोष्ठियों में भी प्रायः कलाकार समयानुकूल पश्चात् श्रोताओं के आग्रह पर और अपनी इच्छा से भी , कुछ राग प्रस्तुत करने असमय राग प्रस्तुत करते हैं , इसे दोष नहीं समझना चाहिए । कुछ ऐसे राग भी सामने | आए हैं , जो राग गायन नियम के बन्धन मुक्त होते गए ।
जैसे बसन्त राग की अवतारणा नियमतः दिन के उत्तरार्द्ध में होनी चाहिए और बहार राग के लिए भी मध्यरात्रि का समय निश्चित है , किन्तु बसन्त ऋतु में इन्हें अभ्यास में हर समय ग्रहण करने की प्रथा है । ठीक वैसे ही भैरवी का समय प्रातः काल है , पर आजकल संगीत सभाओं में रात्रि में भैरवी की धुन अन्य कालों की अपेक्षा अधिक भली लगती है । राग के स्वभाव के साथ प्रकृति का अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है । अतः जहाँ कुछ रागों में समय नियम बन्धन के समान प्रतीत होता है , वहीं कुछ रागों को समय नियम से गाना मनोवांछित सुख प्रदान करने में भी पूर्णतः सक्षम प्रतीत होता है ।
यथोक्तकाल एवैते गेयाः पूर्वविधानतः ।
राजाज्ञया सदा गेया म तु काल विवारियेत् ।।
अर्थात् प्राचीनकाल के आचार्यों के अनुसार , रागों को यथा योग्य काल में गाना चाहिए , परन्तु साथ ही उन्होंने कहा है कि यदि राजा की आज्ञा हो , तो समय नियम की उपेक्षा करके किसी भी राग को किसी भी समय गाया – बजाया जा सकता है ।
रागों के समय में प्राचीन ग्रन्थकारों में भी मतैक्य नहीं है । ‘ संगीत पारिजात ‘ में भूपाली को प्रातः काल का राग वर्णित किया गया है , जबकि वह रात का राग मान्य है । के साथ – साथ रागों का रूप भी परिवर्तित होता है । वर्तमान समय में हम जिन का प्रयोग कर रहे हैं , उनके प्राचीन स्वरूप की जानकारी सही मायने में प्रमाणित रूप में उपलब्ध नहीं होती है ।
रागों की जब रूपरेखा बदल जाती है , तो ग्रन्थों में वर्णित उनका समय कैसे यथावत रह सकता है । आज के व्यस्त जीवन में इतना समय कहाँ कि रागों को निश्चित समय पर ही गाए – बजाए या सुनें । यदि रागों के समय के पालन पर प्रतिबन्ध लगा देंगे तो अनेक राग हम जलसे तथा त्योहारों को छोड़कर कभी नहीं सुन पाएँगे ।
संगीत का मुख्य उद्देश्य तो मन का रंजन करना है । कुशल कलाकार को चाहिए कि संगीत के उद्देश्य को सामने रखकर ‘ रंजको जनचितानों ‘ को लक्ष्य में रखकर ही रागों का व्यवहार करें ।
रागों के समय नियम को बन्धन के रूप में न मानकर विवेक के आधार पर समय सिद्धान्त को पथ – प्रदर्शक के रूप में स्वीकार करना ही उचित जान पड़ता है , ऐसा प्रतीत होता है कि रागों का समय सिद्धान्त सही मायने में उन संगीतज्ञों की देन है , जिन्हें मध्यकाल में राज दरबारों में निर्धारित कालों पर नित्य गाना बजाना पड़ता था ।
वे प्रतिदिन नए – नए राग कहाँ से लाते , अतः उन्होंने विभिन्न रागों का समय बाँध दिया , जिससे कि उनमें नूतनता बनी रहे । उन्होंने रागों को देवी – देवताओं का प्रतीक बताया और कहा कि किसी भी समय आह्वान करने से वे उनकी प्रार्थना सुनेंगे । निर्धारित समय पर ही गाने से वे प्रसन्न होकर वांछित प्रभाव उत्पन्न कर सकेंगे ।
इसके विपरीत किसी भी राग के गायन – वादन का पूर्णतः आनन्द तभी उठाया जा सकता है , जब वह अपने नियत समय पर गाया – बजाया जाए । लेखिका ने स्वयं इस बात का अनुभव किया है कि रागों को उनके नियत समय पर गाने से ऐसा प्रतीत होता है कि स्वर जैसे अपने आप प्रस्फुटित होते जा रहे हों और परमानन्द का अनुभव होता जा रहा हो ; परन्तु आज के व्यस्तता भरे जीवन में हमारे पास समय की कमी है । इसलिए जब मन चाहे तभी संगीत का आनन्द उठाकर स्वर लहरियों में अपने आप को बहा देना चाहिए , यही संगीत की सार्थकता है । यही रागों की सार्थकता है ।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि रागों का समय सिद्धान्त पूर्णतया वैज्ञानिक नहीं है । अनेक विरोधाभास स्पष्ट रूप से लक्षित होते हैं । सामाजिक , सांस्कृतिक एवं तकनीकी परिवर्तनों के कारण मनुष्य का जीवन अत्यन्त कठिन हो गया है तथा आधुनिक समय में राग समय सिद्धान्त अनुसार रागों को सुनना लगभग असम्भव है । आज का युग तकनीकी युग है , रेडियो टी.वी ; सी.डी आदि के सकता है । प्रचार से किसी भी राग को कभी भी सुना जा सकता है तथा आनन्द लिया जा सकता है ।
” राग उपयोगिता का सिद्धान्त ” के इस अध्याय में बस इतना ही ।