दिल्ली घराना तबला : विशेषता Delhi Gharana Tabla

दिल्ली घराना – तबला के दिल्ली घराने की उत्पत्ति एवं विकास का आधार देश की राजनैतिक तथा सांस्कृतिक स्थिति थी । देश में मुस्लिम राज होने पर उनकी संस्कृति का प्रभाव हमारे संगीत पर अत्यधिक था । दिल्ली देश की राजधानी होने के कारण दिल्ली के शहंशाही दरबार में भारतीय , मुस्लिम दोनों प्रकारों के संगीत का प्रचलन था तथापि ख्याल , ठुमरी , कव्वाली , गजल आदि गीत प्रकारों का प्रचलन अधिक था तथा जनरुचि के फलस्वरूप ख्याल व ठुमरी का प्रचार व प्रसार अधिक था ।

दिल्ली घराना : तबला का वंश परम्परा

सिद्धार खाँ , मोहम्मद शाह रंगीले के दरबारी संगीत कलाकार थे । इन्होंने ही शृंगार रस प्रधान गीतों तथा ख्याल गायिकी के लिए मृदंग , पखावज , ढोलक आदि वाद्यों की अपेक्षा अन्य किसी ताल वाद्य की आवश्यकता महसूस की तथा वाद्यों में प्रचलित दो अंगों वाले तबला वाद्य में सुधारकर उसमें नवीन वादन शैली को प्रस्तुत किया । अपने हुनर एवं रचनात्मकता के कारण नवीन बोल बन्दिशों की रचना की । ये बोल बन्दिशें सामयिक गीतों के लिए उत्तम साबित हुईं तथा उसको सीखने के लिए अनेक कलाकार आगे आए और प्रस्तुत बोल बन्दिशों का प्रचलन प्रारम्भ हुआ तथा यही परम्परा दिल्ली घराने के नाम से जानी जाने लगी ।

दिल्ली घराना : तबला के प्रमुख कलाकार

दिल्ली घराने की वंश परम्परा इसी घराने में उस्ताद अहमद जान थिरकवा हुए , जो अपने समय के अद्वितीय तबला वादक थे । इस घराने में सिद्धार खाँ का जन्म 17 वीं शताब्दी में माना जाता है । बोलीबख्श खाँ के सुप्रसिद्ध शिष्यों में ललियाने के मुनीर खाँ हुए , जिन्होंने अनेक शिष्यों को तैयार कर संगीत में योगदान दिया , जिनमें से मुनीर खाँ के भाँजे अमीर हुसैन खाँ , शिष्य अहमद जान खाँ ( थिरकवा ) , नजीर खाँ पानीपत वाले तथा शमसुद्दीन खाँ इत्यादि प्रसिद्ध तबला वादक हुए हैं । 

वादन की विशेषताएँ

वादन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  • इस बाज में तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग अधिक किया जाता है ।
  • इसे चाँटी प्रधान बाज , किनार का बाज , बन्दबाज तथा दो अंगुलियों का बाज नामों से भी जाना जाता है । इनमें चॉट के बोलों का व्यवहार होता है
  • इस बाज में कायदे और रेले अधिक बजाए जाते हैं ।
  • इसमें घिट , तिटकिट , धाति , धागेनधा , धिन गिन , तिन किन आदि बोले के व्यवहार की प्रधानता रहती है ।
  • दिल्ली बाज में गत , टुकड़े तथा परन इत्यादि प्रायः कम ही बजते हैं और इनके स्थान पर छोटे मोहरे , मुखड़े और तिहाइयों का प्रयोग अधिक किया जाता है
  • पेशकार का वादन इस बाज की अन्यतम विशेषता है ।
  • इस घराने में अधिकतर रचनाएँ चतुश्र जाति में बद्ध होती हैं ।
  • इसके वर्णों की ध्वनि लालित्ययुक्त कोमल एवं मधुर होती है । संगीत की समस्त विधाओं और कत्थक नृत्य की संगति में यह बाज पूर्णत : सफल है इसमें आड़ी लय का काम सुन्दर एवं वैचित्र्यपूर्ण ढंग से दिखाया । जाता है । तबले के प्रचार व प्रसार में दिल्ली घराने का स्थान सर्वप्रमुख माना जाता है ।

उपसंहार / निष्कर्ष

स्पष्टत : दिल्ली घराने की विशेषता इसकी निजी और मौलिक वादन शैली है , यही तबले का सर्वप्रथम घराना है । दिल्ली घराने का बाज अत्यन्त कोमल एवं मधुर है अतः इसे किनार का बाज भी कहते हैं ।

  • बाएँ की मीन्ड अथवा गूँज का आवश्यक उपयोग दिल्ली बाज में नहीं किया जाता , इसमें मध्यमा और तर्जनी से बार – बार हाथ उठाए बिना बायाँ बजाया जाता है ।
  • दिल्ली बाज में दाएँ – बाएँ में से मुलायम और कोमल नाद निर्मित किए जाते हैं , इसलिए उनकी गति काफी द्रुत होती है ।
  • अन्तत : दिल्ली बाज तबला वादन का प्रथम बाज है ।

दिल्ली घराना ( ख्याल गायकी ) Delhi Gharana

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