सारणा चतुष्टयी – श्रुति पर प्रयोग, भरत मुनि के द्वारा (Sarna Chatushtayi- Bharat)

सारणा चतुष्टयी अपनी पुस्तक ‘ नाट्य शास्त्र ‘ में भरत मुनि ने श्रुति पर किये गये एक प्रयोग का वर्णन किया है । इस प्रयोग का नाम है ‘ सारणा चतुष्टयी ‘ यह प्रयोग मोटे तौर से चार भागों में विभक्त है । प्रत्येक भाग को सारणा और सम्पूर्ण प्रयोग को सारणा चतुष्टयी की संज्ञा दी । भरत ने गणित का आधार न लेकर संवाद भाव अर्थात् षडज – मध्यम और षडज – पंचम भाव का आधार लिया है ।

प्रयोग की प्रत्येक सारणा में भरत इस बात को अवश्य देख लिया करते थे कि संपूर्ण सप्तक जिसके लिये उसने ग्राम शब्द प्रयोग किया, सम्वाद – भाव की दृष्टि से ठीक है कि नहीं । उसके ग्राम की मुख्य विशेषता यह थी कि सम्पूर्ण ग्राम सम्वाद – भाव से परिपूर्ण थी । उसने यह ध्यान रक्खा कि प्रयोग में किसी भी समय सम्वाद भाव बिगड़ने न पाए ।

सारणा विधि (सारणा चतुष्टयी)

सारणा विधि – प्रयोग में सर्वप्रथम भरत ने समान आधार, समान लम्बाई – चौड़ाई तथा एक ही लकड़ी की बनी दो वीणा ली । प्रत्येक में एक किस्म के पर्दे समान दूरी पर लगाये । उसके बाद प्रत्येक में 7-7 तार बांधने के बाद दोनों वीणा को एक समान षडज ग्रामिक स्वरों से मिलाया ।

सारांश यह है कि जहाँ तक सम्भव हो सका दोनों वीणा को समान रक्खा जिससे दोनों से एक ही नाद उत्पन्न हों ।

षडज ग्राम के अनुसार सा 4 थी श्रुति पर , रे 7 वीं श्रुति पर , ग 9 वीं पर , म 13 वीं पर , प 17 वीं पर , 20 वीं पर और नि 22 वीं श्रुति पर स्थापित हुआ । कारण यह है कि ‘ चतुश्चतुश्चैव ‘ के अनुसार सा , म , प की 4-4 , रे,ध की 3-3 और ग – नि की 2-2 श्रुतियां होती हैं ।

भरत ने प्रत्येक स्वर को अंतिम श्रुति पर स्थापित किया । इसलिये षडज 4 थी श्रुति पर आया और अन्य स्वर भी इसी प्रकार स्थित हुये । दोनों वीणा में षडज ग्रामिक स्वरों की स्थापना करने के बाद एक वीणा को प्रमाण के लिये अलग रख दिया जिसे उसने अचल अथवा ध्रुव वीणा कहा । दूसरी वीणा को चल अथवा अध्रुव वीणा कहा । भरत ने इसी वीणा पर प्रयोग करना शुरू किया ।

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प्रथम सारणा

प्रथम सारणा– दोनों वीणा में पंचम 17 वीं श्रुति पर था । सर्वप्रथम उसने चल वीणा के पंचम को एक श्रुति इतना उतारा कि रिषभ के साथ षडज – मध्यम भाव स्थापित हो जाय । षडज – मध्यम भाव में 9 श्रुतियों की दूरी होती है । रिषभ सातवीं श्रुति पर है , अतः सोलहवीं श्रुति पर स्थापित पंचम में सा – म भाव स्थापित होगा । इस तरह उसने सम्वाद के आधार पर स्वरों का सही स्थान पता लगाया ।

द्वितीय सारणा

द्वितीय सारणा– दूसरी सारणा में भरत ने सर्वप्रथम पंचम को एक श्रुति नीचा किया और तत्पश्चात् उसी पंचम को पुनः षडज का पंचम मानकर अन्य श्रुतियों को एक – एक श्रुति नीचा कर दिया ।

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प्रथम सारणा में पंचम सोलहवीं पर था और अब द्वितीय सारणा में 15 वीं श्रुति पर आ गया । पंचम को 15 वीं श्रुति पर करने से मध्यम ग्राम की रचना हुई , क्योंकि मध्यम ग्राम में पंचम स्वर मध्यम से 3 श्रुति ऊँचा और धैवत स्वर पंचम से 4 श्रुति ऊँचा होता है ।

इसके बाद अन्य स्वरों को 1-1 श्रुति कम कर देने से षडज ग्राम की रचना हुई । इस दूसरी सारणा के बाद भरत ने देखा कि वीणा का गन्धार और निषाद अचल वीणा के रिषभ और धैवत से मिल गये हैं , क्योंकि अब चल वीणा के सातों स्वर क्रमशः 2 , 5 , 7. 11 , 15 , 18 और 20 वीं श्रुति पर आ गये हैं ।

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याद दिला दें कि सप्तक के स्वरों में श्रुत्यांतर बदल जाने से एक ग्राम दूसरे से अलग होता है ।

तृतीय सारणा

तृतीय सारणा- तीसरी सारणा की रचना करते समय भरत ने प्रथम दो सारणाओं की तरह सर्वप्रथम पंचम को एक श्रुति नीचा कर मध्यम ग्राम की रचना की और इस नवीन पंचम को षडज ग्राम का पंचम मानकर अन्य स्वरों को षडज – पंचम भाव के अनुसार एक – एक श्रुति नीचा कर दिया । अतः तीसरी सारणा के अन्त में 3 श्रुति नीचे वीणा पुनः षडज ग्राम में आ गया और सातों स्वर क्रमशः 1 , 4 , 6 , 10 , 14 , 17 और 19 वीं श्रुति पर आ गये । दोनों वीणाओं को पारस्परिक मिलाने से चल वीणा का रे और ध , अचल वीणा के क्रमशः सा और प से तादात्म हो गये ।

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चौथी सारणा

चौथी सारणा- प्रयोग के इस अन्तिम चरण में भरत ने अन्य सारणाओं के समान सर्वप्रथम पंचम को एक श्रुति कम पर स्थित किया और उसके बाद अन्य स्वरों को एक – एक श्रुति नीचा किया । इस सारणा में पंचम 13 वीं श्रुति पर था ।

इस प्रकार केवल पंचम ही नहीं वरन् सभी स्वर अचल वीणा की तुलना में 4-4 श्रुति नीचे आ गये । चौथी सारणा की क्रिया के पश्चात् भरत ने अचल और चल वीणा के स्वरों को मिलाया । उसने देखा की चल वीणा का प , म और सा क्रमशः अचल वीणा के म , ग और मंद्र नि से मिल गये हैं ।

इस सम्पूर्ण क्रिया को भरत ने ‘ सारणा चतुष्टयी ‘ की संज्ञा दी । 17 वीं शताब्दी के पं 0 शारंगदेव ने अपनी पुस्तक ‘ संगीत रत्नाकर ‘ में भरत के इस प्रयोग का पूर्ण समर्थन किया और सारणा चतुष्टयी का सविस्तार वर्णन अपने ढंग से किया है ।

भरत और शारंगदेव के प्रयोग में मुख्य अन्तर यह है कि भरत ने दोनों वीणा में सात – सात तार और शारंगदेव ने 22-22 तार बाँधे । तालिका से चारों सारणाओं का स्पष्टीकरण और अधिक हो जावेगा ।

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उपर्युक्त 4 सारणा की तालिका ( सारणा चतुष्टयी- भरत)

Sarna Chatushtayi के इस अध्याय में इतना ही । अगर यह वेबसाइट आप संगीत प्रेमियों को पसंद आ रही है तो इसे अपने संगीत प्रेमी साथियों, परिवारजनों, और सहयोगियों के बीच शेयर करें, सब्सक्राइब करें ।

सप्त स्वर ज्ञान से जुड़ने के लिए आपका दिल से धन्यवाद ।

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4 thoughts on “सारणा चतुष्टयी – श्रुति पर प्रयोग, भरत मुनि के द्वारा (Sarna Chatushtayi- Bharat)”

    • जानकार अत्यंत खुशी हुई, आपको यह पसंद आयी । आपके बहुमूल्य टिप्पणी के लिए धन्यवाद। बने रहें सप्त स्वर ज्ञान के साथ।

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