राग का अर्थ परिभाषा – Raag ka Arth / Paribhasha

राग की परिकल्पना

अर्थ एवं परिभाषा – राग की परिकल्पना प्राचीनकाल में जाति गायन का प्रचलन था , परन्तु आधुनिक काल में राग गायन प्रचलित है या हम कह सकते हैं कि जाति गायन का स्थान आज राग गायन ने प्राप्त किया है । राग शब्द का प्रयोग संगीत आचार्यों ने अनेक अर्थों में किया है ।।

संगीत के सन्दर्भ में उपलब्ध सबसे प्राचीन ग्रन्थ ‘ नाट्यशास्त्र ‘ में भरत ने राग शब्द को विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त किया है । जैसे – जिस प्रकार कोई चित्र बिना रंगों के शोभायमान नहीं होता , उसी प्रकार राग के बिना नाटक के स्वरूप कोई रंजकता नहीं आती । यहाँ राग शब्द का प्रयोग रंजन के अर्थ में किया गया है ।

राग शब्द को सर्वप्रथम प्रमाणिक परिभाषा ‘ मतंग ‘ कृत वृहदेशों में मिलती सिंहभूपाल को टीका के अनुसार , जो चार वर्णों से युक्त होकर शोभायमान होता है , वह राग कहलाता है । कुछ तत्त्व राग के नादमय स्वरूप की रचना एवं भावो को प्रदर्शित करने में सहायक होते हैं यह कहना अनुचित न होगा कि इन्हीं तत्त्वों के उचित सम्मिश्रण से विभिन्न रागो की रचना होती है ।

ये तत्त्व निम्न प्रकार से है- नाद , श्रुति स्वर , वर्ण , अलंकार , स्थायी , गमक मीण्ड कण , तान तथा काकु आदि ।

पण्डित भातखण्डे के अनुसार , प्राचीन मतंग आदि विद्वानों ने रागों को दस लक्षणों से युक्त किया है । ये लक्षण इस प्रकार है ग्रह , अंश , मन्द्र , तार , न्यास , अपन्यास , सन्यास , विन्यास , बहुत्व तथा अल्पत्य इन्हीं को जाति के लक्षण भी कहा जाता है ।

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राग का अर्थ एवं परिभाषा

राग का अर्थ एवं परिभाषा – राग शब्द की व्युत्पत्ति ‘ रज ‘ धातु से हुई है । ध्वनि की यह विशिष्ट रचना , जिसे स्वर तथा वर्ण द्वारा सौन्दर्य प्राप्त हुआ हो और जो श्रोताओं को प्रसन्न करे , राग कहते हैं ।

पण्डित अहोबल के अनुसार , ” रंजक : स्वर सन्दर्भों राग इत्यिभिधीयते । ”

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अर्थात् रंजक स्वर सन्दर्भ अथवा समूह को राग कहते हैं । राग श्रोता के चित्त को प्रसन्न करने का अद्भुत गुण होता है । ‘ रंजनात रागता ‘ ऐसा हो वर्णन मतंग ने अपनी वृहदेशी में किया है ।

सिंह भूपाल एवं कल्लिनाथ दोनों टीकाकारों ने मतंग द्वारा दिए गए राग के लक्षण एवं राग शब्द की व्युत्पत्ति उद्धृत की है , जो इस प्रकार है ।

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“ याऽसौ ध्वनिविषेषस्तु स्वर वर्ण विभूषितः ।

रंजको जनचिन्तानां स रागः कथितो उदाहृतः ।। ”

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अर्थात् स्वर और स्थायी , आरोही आदि वणों से विभूषित ध्वनि के जिस विशेष प्रकार द्वारा चित्त का रंजन होता है , वह ‘ राग ‘ कहलाता है ।

इस प्रकार शारंगदेव ने रंजन को राग का मुख्य लक्षण अथवा धर्म माना है और यही सिद्धान्त वर्तमान समय में भी राग के विषय में स्वीकार किया जाता है । साधारण अर्थों में स्वरों को श्रुतिमधुर सम्मिश्रणों के साथ मनोरंजक रीति से गाना ही राग कहा जाता है ।

आज उत्तर भारतीय संगीत में जो राग प्रचलित हैं , उनके स्वरूप के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है । परम्परानुसार उनके स्वरूप यथावत् हैं या उनके स्वरूप में परिवर्तन हुआ है । इस विषय में प्रामाणिक रूप से कुछ कह पाना असम्भव है ।

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