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वात्स्यायन द्वारा निर्दिष्ट चौंसठ (64) प्रकार के कला का सामान्य ज्ञान
कला के 64 प्रकार- वात्स्यायन या मल्लंग वात्स्यायन प्राचीन भारतीय दार्शनिक थे , जिनका समय गुप्तवंश के समय ( छठी शताब्दी से सातवीं शताब्दी ) माना जाता है । उन्होंने ‘ कामसूत्र ‘ और ‘ न्यायसूत्र भाष्य आदि ग्रन्थों की रचना की । महर्षि वात्स्यायन ने कामसूत्र में न केवल दाम्पत्य जीवन का वर्णन किया , अपितु कला , शिल्पकला एवं साहित्य का भी सम्पादन किया । ऐसा भी कहा जाता है कि अर्थ के क्षेत्र में जो स्थान कौटिल्य का है , काम के क्षेत्र में वहीं | स्थान महर्षि वात्स्यायन का है ।
कामसूत्र के रचयिता : वात्स्यायन
चाणक्य एवं वात्स्यायन के जीवन , स्थिति और नामकरण आदि पर अतीत काल से मतभेद चला आ रहा है । हेमचन्द्र , वैजयन्ती , त्रिकाण्डशेष और नाममालिका कोशों में इनके नाम ‘ कौटिल्य और वात्स्यायन ‘ ही माने गए हैं । इसके अतिरिक्त चाणक्य , विष्णुगुप्त , मल्लनाग , पक्षिलस्वामी , द्वामिल या द्रोमिण , वररुचि , मेयजित् , पुनर्वसु और अंगुल नाम भी इन्हीं के साथ जोड़े गए हैं । ‘ नीतिसार ‘ के रचयिता कामन्दक को चाणक्य ( कौटिल्य ) का प्रधान शिष्य कहा गया है ।
शास्त्रज्ञों के मतानुसार , कामन्दक ही वात्स्यायन था और कामन्दक नीतिसार में उन्होंने प्रारम्भ में ही कौटिल्य का अभिनन्दन कर उनके अर्थशास्त्र के आधार पर नीतिसार लिखने की बात कही है । इसके विपरीत कामन्दकीय नीतिसार की उपाध्याय – निरपेक्षिणी टीका के रचयिता ने कौटिल्य को ही न्यायभाष्य , कौटिल्य भाष्य ( अर्थशास्त्र ) , वात्स्यायन भाष्य और गौतमस्मृतिभाष्य इन सभी भाष्य ग्रन्थों का रचयिता माना है ।
यदि कामन्दकीय नीतिसार एवं गौतमधर्मसूत्र के मस्करी भाष्य को देखा जाए , तो कौटिल्य के लिए ‘ एकाकी ‘ और असहाय विशेषणों के प्रयोग मिलते हैं । सुबन्धु द्वारा रचित ‘ वासवदत्ता ‘ में कामसूत्राकार का नाम ‘ मल्लनाग ‘ उल्लिखित है । कामसूत्र के लब्धप्रतिष्ठ ‘ जयमंगला टीकाकार में यशोधरा ने वात्स्यायन का वास्तविक नाम “ मल्लनाग ” माना है ।
कौन थे वात्स्यायन ?
इस प्रकार कौटिल्य , वररुचि , मल्लनाग सभी को वात्स्यायन कहा जाता है । अभी तक यह और निर्णय नहीं किया जा सका है कि वात्स्यायन कौन थे । न्यायभाष्यकर्ता वात्स्यायन और कामसूत्राकार वात्स्यायन एक ही थे या अलग – अलग । जिस प्रकार वात्स्यायन के नामकरण पर मतभेद है , उसी प्रकार उनके स्थितिकाल में भी अनेक मत प्रचलित हैं । विद्वानों के अनुसार , उनका जीवनकाल 600 ई.पू. तक पहुंचता है ।
कुछ आधुनिक इतिहासकारों में हरप्रसाद शास्त्री , वात्स्यायन को ईसवी पहली शताब्दी का मानते हैं । शेष प्रायः सभी इतिहासकारों में कुछ तो तीसरी और कुछ चौथी शताब्दी स्वीकार करते हैं । सूर्यनारायण व्यास ने कालिदास और वात्स्यायन के कृतित्व की तुलना करते हुए वात्स्यायन को कालिदास के उपरान्त ईसवी पूर्व प्रथम शती का माना है । व्यास जी ने ऐतिहासिक और आध्यन्तरिक अनेक प्रमाणों द्वारा भी अपने मत की पुष्टि की है , किन्तु उन्होंने वात्स्यायन नाम के पर्यायों का कोई संकेत नहीं दिया ।
भारतीय साहित्य में कलाओं की भिन्न – भिन्न गणना दी गई है । वात्स्यायन द्वारा रचित ‘ कामसूत्र ‘ में 64 कलाओं का वर्णन किया गया है । इसके अतिरिक्त ‘ प्रबन्ध कोश ‘ तथा ‘ शुक्रनीति सार ‘ में भी कलाओं की संख्या 64 ही दी गई है । ‘ ललित – विस्तार ‘ में कलाओं की संख्या 86 एवं ‘ शैवतन्त्रों में चौसठ कलाओं का उल्लेख मिलता है ।
दण्डी के अनुसार , काव्यदर्श में कला को ‘ कामार्थसंश्रया ‘ कहा गया है । अर्थात् काम और अर्थ , कला पर आश्रय पाते हैं । वात्स्यायन ने जिन 64 कलाओं की नामावली कामसूत्र में प्रस्तुत की , उन सभी कलाओं के नाम यजुर्वेद के तीसवें अध्याय में मिलते हैं । इस अध्याय में कुल 22 मन्त्र हैं , जिनमें से चौथे मन्त्र से लेकर बाइसवें मन्त्र तक उन्हीं कलाओं का और कलाकारों का उल्लेख किया गया है ।
कला के 64 प्रकार की सूचि
ललित कलाओं के अन्तर्गत मुख्य रूप से 64 कलाएँ मानी गई हैं , जिनके नाम निम्नलिखित हैं –
- गीत
- वाद्य
- नृत्य
- नाट्य
- आलेख्य ( चित्रकारी )
- विशेष – कच्छेद्यं ( ललाट पर तिलक लगाना )
- तण्डुल – कुसुमकलि विकाराः ( चावल तथा फूलों का चौक बनाना )
- पुष्पान्तरण ( फूलों की सेज सजाना )
- दाशनवसानांगराग ( दाँतों , कपड़ों तथा अंगों को रंगना )
- मणिभूमिका – कर्म ( घर सजाना )
- श्यान – रचना
- उदक ( जलतरंग ) वाद्य बजाना
- उदकघात ( गुलाब जल आदि छिड़कना )
- चित्रायोग ( जवान को बूढ़ा , बूढ़े को जवान बनाना )
- माल्यग्रन्थ विकल्प ( माला गूंथना )
- केश – शेखरापीड – योजन ( सिर पर फूल सजाना )
- नेपथ्य योग ( वस्त्र भूषणादि पहनना )
- कर्ण पत्रभंग ( कर्ण फूलादि बनाना )
- गन्धयुक्ति ( इत्र बनाना )
- भूषण योजन
- इन्द्रजाल
- कौचुमार योग ( कुरूप को सुन्दर बनाने का उबटनादि तैयार करना )
- हस्तलाघव
- चित्रशाकाकूपभक्ष्य विकार क्रिया ( तरह – तरह के शाक , पकवानादि बनाना )
- पानकरस – रागासाव योजन ( शरबत आसवादि बनाना )
- सूचीकर्म ( सीने का काम )
- सूत्रक्रीड़ा ( बेल – बूटे काढ़ना ) साल
- प्रहेलिका
- प्रतिमाला ( अन्त्याक्षरी )
- दुर्वाचकयोग ( कठिन पदों का अर्थ करना )
- पुस्तकवाचन
- नाटिकाख्यायिका – दर्शन ( नाटक देखना , दिखलाना )
- काव्यसमस्यापूरण ( समस्या पूर्ति )
- पट्टिका – वेत्र – बाण – विकल्प ( नेवार , बाँध आदि से चारपाई बुनना )
- तर्कुकर्म
- तक्षण
- वास्तुविद्या
- रूप्यरल परीक्षा
- धातुवाद ( कीमियागिरी )
- मणिराग – ज्ञान ( रलों के रंग जानना )
- आकर ज्ञान ( खानों की विद्या )
- वृक्षायुर्वेद योग
- मेष – कुकुट लावक युद्ध विधि
- शुक्रसारिका – प्रलापन
- उत्सादन ( उबटन लगाना )
- केशमार्जन कौशल
- अक्षरमुष्टिका – कथन ( अंगुलियों के संकेत बोलना )
- म्लेच्छितक विकल्प ( विदेशी भाषाएँ जानना )
- देश – भाषा ज्ञान
- पुष्प – शकटिकानिमित्तज्ञान ( देवी लक्षण देखकर भविष्य कथन )
- यन्त्रमातृका ( यन्त्र बनाना )
- धारण मातृका ( स्मरण बढ़ाना )
- सम्यपाठ्य ( किसी के कुछ पढ़ने पर उसी प्रकार पढ़ देना )
- मानसीकाव्य क्रिया ( मन में काव्य कर सुनाते जाना )
- क्रियाविकल्प ( क्रिया का प्रभाव बदल देना )
- छलितकयोग ( ऐयारी करना )
- अभिधान – कोषछन्दोज्ञान
- वस्त्र – गोपन ( कपड़ों की रक्षा )
- छूत – विशेष
- आकर्षण – क्रीडा ( पासा फेंकना )
- बाल – क्रीडा कर्म ( बच्चों को खिलाना )
- वैनायिकी विद्याज्ञान ( विनय तथा शिष्टाचार )
- वैजयिकी विद्याज्ञान
- वैतालिकी विद्याज्ञान ।
अत्यधिक प्रभावशाली कला कौन सी है ?
मानविक सभ्यता के साथ – साथ ही विभिन्न प्रकार की कलाओं का विकास भी हुआ । 64 कलाओं में संगीत कला , चित्रकला और काव्यकला विशेष महत्त्व रखती हैं । इनमें भी संगीत कला अत्यधिक प्रभावशाली कला है । मनुष्य के हृदय के अन्दर स्थित भावों को जगाने में संगीत जितना सक्षम है , उतनी और कोई भी विधा नहीं है । जो कुछ चित्र कहने में असक्षम होते हैं , वह काव्य या भाषा से समझा जा सकता है और जिन भावों को प्रदर्शित करने में भाषा भी असमर्थ होती है , उन्हें संगीत के द्वारा आसानी से समझा जा सकता है ।
लॉटरी खुलने की प्रसन्नता , न भाषा से व्यक्त की जा सकता है और न ही चित्र से । उसकी अभिव्यक्ति नाचने – कूदने एवं उन्मत – गान से ही सम्भव है । इसी प्रकार पुत्र – शोक , प्रिय – विछोह और समर्पण भाव इत्यादि , सिर्फ और सिर्फ संगीत के द्वारा ही शीघ्र रूप से प्रकट किए सकते हैं ।
ललित कला के लिए यह आवश्यक है कि उसमें सौन्दर्य , माधुर्य , सहजता सरलता , प्रवाह और ओज हों । लयात्मकता लालित्य का सर्वप्रमुख गुण है । संगीत, काव्य और चित्रकला में ये सभी गुण सामान्य रूप में पाए जाते हैं । कुछ विद्वानों ने इन तीनों कलाओं को एकसमान माना है , जबकि अधिकांश विद्वानों के मतानुसार संगीत सर्वश्रेष्ठ कला है । वास्तव में कलाओं का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को भौतिक सुख – दुःख से ऊपर उठाकर , भौतिक आलौकिक आनन्द प्राप्त कराना है । उसी को रसानुभूति की चरम अवस्था कहते हैं ।
सभी कलाएँ मन को शान्ति , आनन्द और प्रेरणा प्रदान करती हैं । संगीत कला में एक विशेष गुण यह भी है कि वह मनुष्य के साथ – साथ पशु – पक्षियों को भी आकर्षित करती है । अतः काव्य , चित्र , वास्तु – कला एवं शिल्प – कला , बुद्धि के संयोग से ही भावों उत्कर्ष करने में सफल होती है । वही संगीतकला भी अनादि काल से मानव रसानुभूति व आनन्दानुभूति कराने में सफल रही है ।
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