लोकगीत क्या है? Lokgeet की परिभाषा, उत्पत्ति, विकास एवं विशेषताएँ

लोकगीत लोकमानस की साधारण अभिव्यक्ति है , जो प्राचीनकाल से लेकर आज तक निरन्तर चलती आ रही है ।

लोकसंगीत का वर्गीकरण – प्रत्येक प्रदेश के लोकसंगीत के अन्तर्गत संगीत की तीनों विधाओं ( गायन , वादन व नृत्य ) का समावेश होता है , जिनका सामूहिक रूप से या अलग – अलग प्रस्तुतीकरण किया जा सकता है ।

भारतीय लोकसंगीत में इन विधाओं के अन्तर्गत उसके विभिन्न प्रकारों को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया गया है – लोकगीत , लोकवाद्य , लोकनृत्य ।

लोकगीत की परिभाषा क्या है ?

लोकगीत – जनसामान्य जब अपने भावों को किसी भी गीत या कविता के माध्यम से लयात्मक ढंग से स्वर माधुर्य के साथ प्रस्तुत करता है , तो वे गीत लोकगीत कहलाते हैं । लोकगीत हमारी संस्कृति के संवाहक होते हैं । इन गीतों के माध्यम से वीरता , उमंग , हर्ष , मधुर , शान्त , भक्ति , प्रेम , विरह , शृंगार रस जैसे सभी रसों की रसानुभूति होती है । विभिन्न प्रदेशों के लोकगीत हैं ; जैसे – उत्तर प्रदेश के बारहमासा और कजरी , राजस्थान का काजलिया और गोरबन्द आदि ।
हिन्दी के प्रसिद्ध कवि श्री गिरजाकुमार माथुर के विचारों में “ लोकगीत जीवन की सामूहिक चेतना का फल होता है और वे जनता के सामाजिक प्रयोजन से नि : सृत होते हैं । लोकगीतों को समझने से जनता की संस्कृति और परम्परा को समझा जा सकता है ।

लोकगीत की उत्पत्ति एवं विकास

” लोकगीत की उत्पत्ति एवं विकास लोकगीतों का उद्भव उतना ही पुराना है जितना कि मानव जीवन । सम्भवतः मानव में बुद्धि विकास के साथ ही अपनी भावनाओं को लयात्मक तरीके से अभिव्यक्त किया होगा , जिसका उदाहरण हम आज भी विभिन्न जनजातियों के प्रसिद्ध लोकगीतों में देखते हैं । लोकगीतों के उद्भव एवं विकास के विषय में विद्वानों में मतभेद रहा है ।

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लोकगीतों का सृजन कैसे हुआ ? इसके रचयिता कौन हैं ? इस प्रकार के कई ऐसे विवादास्पद प्रश्न हैं , जिनका स्पष्टीकरण आवश्यक है । जर्मनी के प्रसिद्ध लोक साहित्य विल्यप्रिय ने लोकगीत के विषय में सामूहिक उत्पत्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि लोकगीत का निर्माण सामूहिक रीति से हुआ है । किन्तु रूसी लोक साहित्य सोकोलोव ने सामूहिक उत्पत्ति सिद्धान्त का खण्डन किया है और कहा है कि लोकगीत का सृजन बीज रूप में सर्वप्रथम एक व्यक्ति द्वारा ही हुआ है और फिर मौखिक परम्परा में रहने के कारण यह अन्य व्यक्तियों द्वारा समय – समय पर सम्बोधित होता रहा है । 

लोकगीतों के उद्भव के विषय में डॉ . चिन्तामणि उपाध्याय लिखते हैं कि ” सुख दुःखमयी भावावेश की अवस्था के चित्रण का माध्यम आशुपात दीर्घ निश्वास , पुलक और मुस्कान आदि आनुभाविक आंगिक चेष्टाओं तक ही सीमित न रहकर हर्ष और वेदना का स्वरूप धारण कर कण्ठ के साथ साकार हो उठता है तभी गीतों के स्वर फूट पड़ते हैं । ये गीत किसी कवि ने नहीं अपितु सामान्य जनमानस की अज्ञात सृष्टि है ।

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लोकगीत की रचना प्रायः अज्ञात होती है , परन्तु इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि गीत का कोई निर्माता ही नहीं था , इसकी उत्पत्ति ‘ देव योग ‘ से हुई हो । लोकगीत अज्ञात रस का कारण है कि लेखकों ने अधिकांशत : नाम लिपिबद्ध नहीं किए और यदि कई स्थितियों में किए भी है तो हम उन्हें खोजने में असमर्थ है । वे साधारण , अनपढ़ व्यक्ति थे उनके पास आधुनिक युग जैसे प्रकाशन एवं ने टंकण आदि की सुविधा नहीं थी , अपनी रचनाओं का निर्माण उन्होंने कागज व न स्याही से ना करके मौखिक रूप से किया है । इस प्रकार लोकगीत लिपिबद्ध नहीं या हो सके और ना ही रचयिताओं की ज्ञेयता सिद्ध हो सकी , किन्तु वे गीत आज भी अपने मूल एवं परिवर्तित स्वरूप में विधमान होते हुए अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है ।

लोकगीत मौखिक परम्परा में जीवित रहते हैं तथा गीत का सृजन करते समय यह लेखनी से अधिक अपने कण्ठ तथा निष्ठा का प्रयोग करते हैं , फलस्वरूप मौखिक प्रक्रिया से हो गीत लोकप्रिय हो जाता है तथा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलता रहता है , किन्तु इसके रचयिता का नाम मिटता चला जाता है या भुला दिया जाता है । अत : कालान्तर में गीतकार अज्ञात हो जाता है वस्तुत : भारत की समप्र बोलियों एवं उपबोलियों में प्रचलित गीतों के अध्ययन के पश्चात् भी ऐसा कोई लक्ष्य प्राप्त नहीं होता , जिसके आधार पर दृढ़तापूर्वक कहा जा सके कि लोकगीतों का सृजन या उत्पत्ति सामूहिक विधि ‘ से हुई है । बल्कि लोकगीतों के सजन में व्यक्ति विशेष अधिक सक्रिय रहा है यह प्रक्रिया आज भी जीवित है । आज भी लोकगीत बनते हैं , जिन्हें समुदाय का व्यक्ति बनाता है , स्त्रियाँ इस क्षेत्र में अग्रणी हैं ।

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लोकगीत लोकमानस की साधारण अभिव्यक्ति है , जो प्राचीनकाल से लेकर आज तक निरन्तर चलती आ रही है ।

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लोकगीतों का वर्गीकरण

लोकगीतों का वर्गीकरण- मनोहर प्रभाकर जी ने लोकगीतों को निम्न प्रकार वर्गीकृत किया है : –

  • लोकगीत
    • प्रकृति सम्बन्धी
    • पारिवारिक सम्बन्धी
    • धार्मिक सम्बन्धी
    • विविध विषयक लोकगीत

प्रकृति सम्बन्धी लोकगीत

1. प्रकृति सम्बन्धी लोकगीतों के अन्तर्गत प्राकृतिक ऋतु आधारित गीत गाए जाते हैं ; जैसे – नायिका – नायक से ‘ जीरा ‘ फसल उपज में आने वाली कठिनाइयों का वर्णन करते हुए ‘ जीरे ‘ की फसल नहीं बोने का आग्रह करती है । उस गीत के बोल हैं “ यो जीरो जीव रो बेरी रे मत बावो म्हारा परव्या जीरा । “

प्रकृति सम्बन्धी लोकगीत

2. पारिवारिक सम्बन्धी लोकगीत इसमें नायिका अपने नायक को दूसरे प्रदेश से अपने घर आने का आग्रह कर रही है । इस गीत के बोल हैं ” केसरिया बालम आवोनी पधारो म्हारै देस जी । ” यह गीत माण्ड गायन शैली पर आधारित है , जो विश्वभर में राजस्थान की पहचान है । यह गीत राजस्थान का प्रमुख लोकगीत है । इस प्रकार के गीत में रीति – रिवाज व रिश्ते – नाते सम्बन्धी गीत आते हैं ।

धार्मिक सम्बन्धी लोकगीत

3. धार्मिक सम्बन्धी लोकगीतों के अन्तर्गत धर्म सम्बन्धी अपने इष्ट देव को रिझाने या प्रार्थना व पूजा करने के समय गीत गाए जाते हैं , जैसे राजस्थान के प्रसिद्ध लोक देवता को रिझाने के लिए लोग वहाँ जाते हैं । और गाते हैं । उनका विशाल मन्दिर पोखरण के पास रूणेचा गाँव में स्थित है । ” रूणिचा रा धणिया , अजमल जी रा कंवरा , माता मेणा दे रा लाल , राणी नेतल रा भरतार , म्हारो हेलो सुणोजी रामाजीर जी ।

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विविध विषयक लोकगीत

4. विविध विषयक लोकगीत जिसमें पशु – पक्षियों , वस्त्रों व आभूषणों पर आधारित गीत गाए जाते हैं , जैसे प्रेमिका अपने प्रेमी को कौए के माध्यम से सन्देश भेजती है कि मुझे आपकी याद आती है , आप घर आ जाओ और उससे कहती है कि तेज – तेज आवाज में वहाँ जाकर बोलना जिससे वो सुन ले ; जैसे ” कागलिया गैरो – गैरो बोलनी रे म्हारा पीव जी बसै छः परदेश परदेसी री ओल्यूँ धणी आवै रे । अत : विभिन्न प्रकारों के लोकगीत के माध्यम से जन – साधारण अपने भावों की अभिव्यक्ति कर अपना मनोरंजन करता है ।

• लोकगीत अपने आप में स्वतन्त्र रूप से गाए जाते हैं , परन्तु इसे ताल की संगत के साथ प्रस्तुत किया जाए , तो यह अधिक प्रभावशाली होता है ।

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लोकगीतों की विशेषताएँ

लोकगीतों की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • साधारण लोक धुनें चार – पाँच स्वरों में ही मिलती हैं , जो सरलता से गाई जा सकती है ।
  • लोकगीत लयबद्ध होता है ।
  • अनेक लोकगीत एक ही धुन में गाए जाते हैं ।
  • लोकगीतों में प्रायः सरलता मिलती है ।
  • लोकगीत लोक भाषा में होती है ।
  • लोकगीत अति विलम्बित लय में नहीं गाए जाते । इससे आनन्द कम हो जाता है ।
  • लोकगीत की धुनों में सात शुद्ध स्वरों कोमल , गन्धार व कोमल निषाद का विशेष प्रयोग होता है ।
  • लोकगीतों में अधिकतर सप्तक के पूर्वांग के ही स्वरों का प्रयोग मिलता है । • लोक धुनें एकल उतनी शोभायमान नहीं होती , जितनी सामूहिक ।
  • लोक धुनें स्वर की अपेक्षा लय प्रधान होती हैं ।
  • लोकगीत का ध्येय मनोरंजन प्रदान करना है ।

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लोकगीतों का महत्त्व

लोकगीतों का महत्त्व लोकगीत किसी भी देश की प्राचीन संस्कृति , सभ्यता और विचारों से अवगत कराते हैं । इनके संग्रह से समाज तथा उसके साहित्य को अत्यधिक लाभ पहुंचता है । इन्हीं लोकगीतों के माध्यम से अपने देश , समाज के भिन्न – भिन्न रीति – रिवाजों , रहन – सहन , तीज – त्यौहारों आदि की पहचान करते हैं । इस पहचान के माध्यम से हम अपने वर्तमान जीवन में सुधार भी कर सकते हैं । लोकगीतों से हम प्राचीन इतिहास , घटनाओं , प्रवृत्तियों और तत्कालीन मनोभावों की पहचान कर लेते हैं । लोकगीतों के संग्रह से हम गाँवों को शहरों के निकट लाने में सफल हो सकते हैं ।

इनके संग्रह से निम्नलिखित लाभ या महत्त्व होते हैं : –

  • कण्ठस्थ साहित्य लिपिबद्ध होकर सुरक्षित रखा जा सकता है । इससे महिलाओं – पुरुषों के मस्तिष्क की महिमा दृष्टिगोचर होती है ।
  • इन गीतों से वर्तमान कवियों को अत्यधिक लाभ होता है । भावपूर्ण गीतों से भावपक्ष को परिष्कृत करने का अवसर प्राप्त होता है ।
  • लोकगीतों द्वारा हमें अपने देश और समाज के भिन्न – भिन्न रीति – रिवाजों , रहन – सहन , तीज – त्यौहारों आदि का परिचय प्राप्त होता है ।
  • लोकगीतों से हमें प्राचीन , इतिहास , घटनाओं , धार्मिक प्रवृत्तियों और तत्कालीन मनोभावों का भी परिचय प्राप्त होता है ।
  • लोकगीतों के द्वारा भाई – बहनों के पवित्र स्नेह बन्धन , माता – पिता के लाड़ – प्यार , पति – पत्नी के पुनीत सम्बन्ध , परिवारों के मेल – मिलाप , गृहस्थ जीवन की समस्याओं आदि की जानकारी मिलती है ।
  • लोकगीतों के संग्रह से हमें अपने साहित्य को सुदृढ़ करने का अवसर मिलता है ।
  • लोकगीतों के संग्रह से हमें गाँवों और शहरों को निकट लाने में सफलता मिलती है ।
  • • अन्त में यह कहना उचित होगा कि लोकगीत न ही तो नया है , न ही पुराना है । वह तो जंगल के वृक्ष की भाँति है , जिसकी जड़ें अतीत काल में गढ़ी हुई हैं , किन्तु उसमें स्वयं अविराम गति से नई टहनियाँ , नई पत्तियाँ , नए फल और नए – नए पक्षी उत्पन्न होते हैं । 

इस अध्याय में बस इतना ही , सप्त स्वर ज्ञान के साथ बने रहने के लिए आपका धन्यवाद ।

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