संगीत की शब्दावली में निम्नलिखित शब्द ( कलावन्त, गीति, बानी, गीत, पंडित, वाग्गेयकार, नायक, गायक, अल्पत्व – बहुत्व, निबद्ध, रागालाप, स्वस्थान नियम का आलाप, आलिप्तगान, परमेल, अध्वदर्शक स्वर, मुखचालन, आक्षिप्तिका, न्यास और ग्रह, अपन्यास स्वर, सन्यास और विन्यास, विदारी, गमक, तिरोभाव – आविर्भाव ) की परिभाषा क्या है ?
विषय - सूची
संगीत की शब्दावली – Vocabulary of music in Hindi
कलावन्त – Kalawant
कलावन्त – आज से कुछ समय पूर्व शास्त्रीय संगीत – जगत में ध्रुपद का ही प्रचार था और ख्याल – ठुमरी का जन्म तक नहीं हुआ था । स्वामी हरिदास , तानसेन , बैजूबावरा आदि प्राचीन संगीतज्ञ ध्रुपद ही गाते थे । प्राचीन काल में कुशल ध्रुपद गायकों को कलावन्त कहा जाता था ।
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गीति – Giti
गीति – ध्रुपद की मुख्य 5 शैलियां थीं , शुद्ध , भिन्न , गौड़ , बेसर तथा साधारण । इन गायन – शैलियों को गीति कहते थे । ‘ संगीत केवल प्रथम चार गीतियों को समझाया गया है और 5 वें का उल्लेख मात्र किया गया है ।
प्रथम चार गीतियों की परिभाषा इस प्रकार दी गई है –
- शुद्ध गीति में मधुर स्वरों का प्रयोग होता था और कभी – कभी वक्र स्वरों का प्रयोग होता था ।
- भिन्न गीति में छोटे – छोटे विभिन्न स्वर – समुदायों द्वारा राग की मधुरता बढ़ायी जाती थी और कभी – कभी गमक प्रयोग करते थे ।
- गौड़ में उहाटी गमक का प्रयोग तीनों सप्तकों में विशेष रूप से दिखाया जाता था ।
- बेसर गीति में ठोड़ी को हृदय से लगाकर स्वर के चारों वर्गों का उच्चारण गम्भीरता से किया जाता था ।
- आधुनिक काल में इनका प्रचार नहीं है ।
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बानी – Bani ( संगीत की शब्दावली )
बानी– हम ऊपर बता चुके हैं कि ध्रुपद गायन – शैलियां पाँच थीं , जिन्हें गीति कहते थे । गायन – शैलियों के आधार पर ध्रुपद – गायकों की विभिन्न बानियाँ बनीं , अतः बानी से गायन – शैली का बोध होता है । नीचे बानी के प्रकारों पर प्रकाश डाला जा रहा है ।
खंडारी बानी – Khandari Bani
खंडारी बानी – कहते हैं कि अकबर बादशाह के दरबारी संगीतज्ञ बीनकार सम्मोखन सिंह ( नौबत खाँ ) इस बानी के जन्मदाता थे । वे ‘ खंडार ‘ नामक गाँव में रहते थे , इसलिए उनकी गायन – शैली खंडारी कहलाई । आगे चलकर इस बानी के वजीर खाँ , समरुद्दीन खाँ , अल्लादिया खाँ , वाराणसी के छोटे रामदास आदि गायक हुए ।
डागुर बानी – Dagur Bani
डागुर बानी डागुर बानी स्वामी हरिदास जी द्वारा आरम्भ मानी जाती है । जियाउद्दीन खाँ , अल्लाबन्दे खाँ , नसीरुद्दीन खाँ , रहिमुद्दीन खाँ , नसीर मोहिनुद्दीन खाँ , नसीर अमीनुद्दीन खाँ आदि डागुर बानी के गायक कहलाये । कुछ लोगों का विचार है कि अकबर बादशाह के दरबार में बृजचंद ने डागुर बानी की स्थापना की , क्योंकि वे डागुर नामक स्थान के रहने वाले थे ।
नौहारी बानी – Nohar Bani
नौहारी बानी- इस बानी के प्रवर्तक सुजानदास , जो हाजी सुजान खाँ के नाम से प्रसिद्ध हुए , माने जाते हैं । कहते हैं कि हाजी सुजान साहब तानसेन के दामाद थे । करामत अली खाँ , खादिम हुसैन खाँ , बशीर खाँ , मुहम्मद खाँ , विलायत हुसैन खाँ आदि गायक इसी बानी के कलाकार थे । वे राजपूत थे तथा नौहारी गाँव में रहते थे । इसलिये उनकी बानी ( शैली ) का नाम नौहारी पड़ा ।
गोबरहारी बानी – Gobarhari Bani
गोबरहारी बानी – इस बानी के प्रवर्तक तानसेन माने जाते हैं । उनकी शैली गौड़ी अथवा गोबरहारी कहलाई । परन्तु लोगों का विचार है कि इस बानी की स्थापना कुम्भनदास के वंशजों ने की जिनके मतानुसार तानसेन की गायन – शैली सेनिया बानी कहलाई । इन मुख्य चार बानियों के अतिरिक्त ध्रुपद गायन की कुछ शैलियाँ भी प्रचार में आईं । इनमें से कुछ तो उपर्युक्त बानियों की शाखायें हैं , जैसे- डागुर बानी की बनारसी शाखा आदि ।
गीत – Geet
गीत– आधुनिक काल में ध्रुपद , धमार , ठुमरी आदि निबद्ध संगीत ( तालबद्ध संगीत ) का प्रचार है । ये गीत के प्रकार कहलाते हैं । गीत की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती हैं – स्वर और अन्य ( 287 ) लय – तालबद्ध शब्दों की सुन्दर रचना को गीत कहते हैं । गीत के प्रकार गायन – शैली पर आधारित होते हैं । गायन – शैली के आधार पर ही एक गीत दूसरे से अलग होती है । ध्रुपद , ख्याल , ठुमरी आदि में भिन्नता का आधार यही है कि इनकी गायन – शैली एक – दूसरे से अलग होती है । गायन – शैली और ताल का घनिष्ट सम्बन्ध है । जैसे ख्याल के लिए तीनताल , एकताल , झूमरा आदि , ध्रुपद के लिए चारताल , तीवरा , शूल आदि तथा ठुमरी के लिए दीपचन्दी व जतताल प्रयोग किये जाते हैं ।
वाग्गेयकार – Vagyaykar
वाग्गेयकार– प्राचीन काल में जो व्यक्ति पद – रचना व स्वर – रचना दोनों में प्रवीण होता था , वाग्गेयकार कहलाता था । वाक अर्थात् पद्य और गेय अर्थात् संगीत , इन दोनों का ज्ञाता वाग्गेयकार कहलाता था । इन्हें कुछ विद्वान क्रमशः मातु और धातु कहते हैं । ‘ संगीत रत्नाकर ‘ में उत्तम वाग्गेयकार के 28 गुण बतलाये गये हैं । संगीत और साहित्य के ज्ञान के अतिरिक्त उसे विभिन्न देशों की रीति – रिवाजों का , देश की प्रत्येक भाषा , काकू आदि का ज्ञान होना चाहिए , स्वतंत्र तथा शीघ्र रचना करने की शक्ति , चित्त की एकाग्रता , तीनों स्थानों में गमक लेने की शक्ति , राग द्वेष का अभाव , अलौकिक बुद्धि , वाक्यचातुर्य , गायन , वादन तथा नृत्य इन तीनों में कुशलता , दूसरों के मन का भाव जानने की शक्ति आदि गुण वाग्गेयकार के बताए गए हैं ।
- पढ़िए, जानिए – वाग्गेयकार के गुण दोष – Vaggeykar’s merit Demerits
पंडित – Pandit
पंडित– जो व्यक्ति कला में साधारण तथा संगीत – शास्त्र में असाधारण हो अर्थात् जिसे संगीत – शास्त्र का विशेष ज्ञान हो , पंडित कहलाता है ।
नायक – Nayak
नायक – इसके दो अर्थ हैं । पहला अर्थ – यह है कि वह व्यक्ति जो संगीत में नई – नई रचनायें रचा करता है , नायक कहलाता है । ऐसे व्यक्ति को संगीत तथा शास्त्र दोनों का ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा वह सफल नायक नहीं बन सकता ।
नायक का एक दूसरा अर्थ – यह है कि जो व्यक्ति गुरू से प्राप्त विद्या में अपनी व्यक्तिगत प्रतिभा से कोई नई बात नहीं जोड़ता है । जिस चीज को उसके गुरू ने जिस प्रकार सिखाया है उसको उसी प्रकार गाता है , उसमें किसी प्रकार का संशोधन नहीं करता है , वह नायक कहलाता है और उसकी गायन – शैली नायकी कहलाती है ।
गायक – Gayak
गायक– जो व्यक्ति गुरू से प्राप्त शिक्षा में अपनी शिक्षा तथा अभ्यास द्वारा कुछ नई बातें जोड़ता है , वह गायक कहलाता है । गायक को क्रियात्मक संगीत में निपुण होना आवश्यक है , क्योंकि वह अपनी प्रतिमा से चमत्कार और सौन्दर्य द्वारा गायन को अधिकाधिक मनोरंजक बनाता है ।
गायक के लिए आवश्यक नहीं है कि वह नायक ( रचनाकार ) भी हो , किन्तु नायक के लिए गायक होना आवश्यक है । बिना क्रियात्मक संगीत में निपुण हुए वह रचना नहीं कर सकता , किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि वह रंगमंच – गायक हो । रंगमंच – गायक होना उसकी आन्तरिक इच्छा तथा अन्य बातों पर आधारित है । रंगमंच गायक होना तथा क्रियात्मक संगीत में निपुणता प्राप्त करना ये दोनों बातें अलग – अलग हैं । बहुत से व्यक्ति क्रियात्मक संगीत में निपुण तो होते हैं , किन्तु रंगमंच गायक नहीं होते । सफल रंगमंच कलाकार बनना अनेक बातों पर आधारित है ।
अल्पत्व – बहुत्व – Alpatv – Bahutva
अल्पत्व – बहुत्व – राग में प्रयोग किये जाने वाले स्वरों की मात्रा शास्त्रकारों ने मुख्य दो शब्दों में व्यक्त की है – अल्पत्व और बहुत्व । जिस स्वर का प्रयोग कम हो उसे अल्पत्व और जिस स्वर का प्रयोग अधिक हो उसे बहुत्व कहते हैं । संगीत रत्नाकर में प्रत्येक के दो – दो प्रकार बताये गये हैं ।
( अ ) लंघन अल्पत्व और अनाभ्यास अल्पत्व ।
( ब ) अलंघन बहुत्व और अभ्यास बहुत्व ।
वर्ज्य स्वर का स्थान लंघन अल्पत्व और कम मात्रा में प्रयोग किया जाने वाला स्वर जिस पर न्यास न किया जाता हो अनाभ्यास अल्पत्व होगा । उदाहरण के लिए मुलतानी के आरोह में ऋषभ तथा धैवत लंघन मूलक अल्पत्व हैं तथा हिंडोल और छायानट में निषाद अनाभ्यास अल्पत्व है । इसी प्रकार तीव्र म मुलतानी में अलंघन मूलक बहुत्व और ग , प तथा नि स्वर अभ्यास मूलक बहुत्व हैं । अभ्यास बहुत्व स्वर का अलंघन मूलक बहुत्व होना आवश्यक है । अतः मुलतानी में ग , प और नि स्वर अभ्यास मूलक बहुत्व तो हैं ही , साथ ही साथ अलंघन मूलक भी हैं ।
निबद्ध गान – अनिबद्ध गान – Nibaddh Gaan-Anibaddh Gaan
निबद्ध – अनिबद्ध गान – जो रचनायें ताल में बंधी हों उन्हें निबद्ध गान कहते हैं और जो ताल में न बंधी हों , केवल स्वरबद्ध हों उन्हें अनिबद्ध गान कहते हैं । प्राचीन काल में प्रबन्ध , वस्तु तथा रूपक और आधुनिक काल में ध्रुपद , धमार , ख्याल , ठुमरी आदि निबद्ध गान के अन्तर्गत आते हैं । प्रबन्ध , वस्तु तथा रूपक के विभिन्न खण्डों को धातु ( उद्ग्राह , ध्रुव , मेलापक , अन्तरा और आभोग ) और ध्रुपद , ख्याल आदि के विभिन्न खण्डों को क्रमशः स्थाई , अन्तरा , संचारी और आभोग कहते हैं ।
प्राचीन रागालाप , रूपकालाप , आलप्तिगान तथा स्वस्थान नियम का आलाप अनिबद्ध गान ( ताल रहित ) के अन्तर्गत आता है । आधुनिक आलाप भी अनिबद्ध गान है ।
गान.. | ||||||
निबद्ध_गान | अनिबद्ध गान.. | |||||
प्राचीन | आधुनिक | प्राचीन | आधुनिक | |||
प्रबन्ध , वस्तु रूपक | धुपद , धमार , ख्याल , ठुमरी | रागालाप , रूपका लाप , आलप्तिगान , स्वस्थान नियम | आकार और नोमतोम का आलाप |
रागालाप – Raagalap
रागालाप – राग के स्वरों का विस्तार , जिसमें राग के 10 लक्षणों – ग्रह , अंश , मंद्र , तार , न्यास , अपन्यास , अल्पत्व , बहुत्व , षाडवत्व और ओडवत्व का पालन होता था , रागालाप कहलाता था । इसमें आलाप के पूर्व गायक राग का पूर्ण परिचय देता था ।
रूपकालाप – Rupakalap
रूपकालाप– यह प्राचीन आलाप – विधि का दूसरा प्रकार था । इसमें रागालाप के सभी लक्षणों का पालन तो होता था , किन्तु प्रबन्ध के धातुओं के समान रूपकालाप के खण्ड करने पड़ते थे जो रागालाप में नहीं होता था । दूसरे , रागालाप में गायक को आलाप के पूर्व उस राग की व्याख्या करनी पड़ती थी , किन्तु रूपकालाप में ऐसा करने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी , क्योंकि वह स्वयं शब्द व ताल रहित प्रबन्ध के समान स्पष्ट मालूम पड़ता था । तीसरे , रूपकालाप , रागालाप की अपेक्षा अधिक विस्तृत होता था , इस प्रकार रूपकालाप , रागालाप की दूसरी सीढ़ी थी ।
आलिप्तगान – AliptGaan
आलिप्तगान – रूपाकालाप के बाद आलप्तिगान का स्थान आता है । इसमें राग के सभी नियमों को पालन करते थे और तिरोभाव – आविर्भाव भी दिखाते थे ।
स्वस्थान नियम का आलाप
स्वस्थान नियम का आलाप – प्राचीन काल में आलाप के एक विशेष – नियम को ‘ स्वस्थान नियम ‘ कहते थे । उसमें राग के लक्षणों को पालन करते हुए आलाप को मुख्य चार हिस्सों में विभाजित कर दिया जाता था जिसे स्वस्थान कहते थे । चारो स्वस्थानों का प्रयोग क्रम से एक दूसरे के बाद होता था । संगीत रत्नाकर ‘ में इनका वर्णन इस प्रकार किया गया है ।
स्वस्थान नियम – अलाप के 4 भाग
1. प्रथम स्वस्थान में द्वयर्ध स्वर ( अंश या वादी से चौथा स्वर ) के नीचे के स्वरों में आलाप करना पड़ता था और मंद्र सप्तक में इच्छानुसार विस्तार किया जा सकता था ।
2. दूसरे स्वस्थान में द्वयर्ध स्वर तक आलाप किया जाता था ।
3. तीसरे स्वस्थान में अर्धस्थित स्वरों में आलाप किया जाता था ।
4. अन्तिम स्वस्थान में द्विगुण ( आठवाँ स्वर ) और उसके ऊपर के स्वरों तक आलाप करने के बाद स्थाई स्वर पर न्यास किया जाता था । इस प्रकार स्वस्थान नियम का आलाप समाप्त होता था ।
आजकल इसका प्रचार नहीं है । अंश , स्थाई या वादी से चौथा स्वर द्वयर्ध और आठवाँ स्वर द्विगुणित कहलाता था । द्वयर्ध और द्विगुणित के बीच के स्वरों को अर्धस्थित स्वर कहते थे ।
परमेल प्रवेशक राग – Parmel Praveshak Raag
परमेल प्रवेशक राग – वे राग जो एक थाट से दूसरे थाट में प्रवेश कराते हैं , परमेल – प्रवेशक राग कहलाते हैं , जैसे मुलतानी , जैजैवन्ती आदि । यह 2 थाटों के बीच का राग होता है । इसलिये इनका गायन – समय दूसरे थाट के रागों के ठीक पहले होता है ।
सायंकालीन संधिप्रकाश रागों के ठीक पहले मुलतानी राग गाया जाता है । यह तोड़ी थाट से पूर्वी और मारवा थाट के रागों में प्रवेश कराता है । इसलिए मुलतानी को परमेल – प्रवेशक राग कहा गया है ।
राग जैजैवन्ती , खमाज थाट से काफी थाट के रागों में प्रवेश कराता है । खमाज थाट में ग शुद्ध और काफी थाट में ग कोमल होता है और राग जैजैवन्ती में दोनों ग ( शुद्ध और कोमल ) लगते हैं , इसलिये इसे परमेल प्रवेशक कहा गया है ।
अध्वदर्शक स्वर – Adhvdarshak Swar
रागों का समय सिद्धांत – रागों का समय निर्धारण कैसे किया जाता है ?
अध्वदर्शक स्वर – उत्तर भारतीय संगीत में मध्यम स्वर का बड़ा महत्व है । इस स्वर के द्वारा हमें यह मालूम होता है कि किसी राग का गायन – समय दिन है अथवा रात्रि , इसलिये मध्यम को अध्वदर्शक स्वर कहा गया है ।
रागों के समय निर्धारण में अध्वदर्शक स्वर बहुत ही महत्वपूर्ण है ।
स्थाय – Sthay
स्थाय- प्राचीन काल में स्वरों के छोटे – छोटे समूह को स्थाय कहते थे । आजकल इस शब्द का प्रयोग नहीं होता ।
मुखचालन – Mukhchalan
मुखचालन – आधुनिक शास्त्रीय संगीत की शब्दावली में इस शब्द का भी प्रयोग नहीं होता । प्राचीन संगीत में मुखचालन शब्द प्रयोग किया जाता था । उस समय स्वर – सौन्दर्य के विभिन्न उपकरणों जैसे – कण , मींड , अलंकार , गमक आदि के साथ राग का विस्तार करने को मुखचालन कहते थे ।
आक्षिप्तिका– Akshiptika
आक्षिप्तिका – इस शब्द का भी प्रयोग प्राचीन संगीत में होता था । आधुनिक काल में यह शब्द प्रचार में नहीं है । प्राचीन काल में स्वर – तालबद्ध शब्दों को आक्षिप्तिका कहते थे । प्राचीन काल में प्रचलित प्रबन्ध , वस्तु और रूपक और वर्तमान काल में प्रचलित ध्रुपद , धमार , ख्याल , ठुमरी आदि आक्षिप्तिका के अन्तर्गत आवेंगे । दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि निबद्ध गान अर्थात् गीत के प्रकार आक्षिप्तिका कहलाते हैं ।
न्यास और ग्रह – Nyas aur Grah
न्यास और ग्रह – न्यास का प्रयोग प्राचीन संगीत और आधुनिक संगीत दोनों में होता है , किन्तु इसके अर्थ में थोड़ा परिवर्तन हो गया है । प्राचीन काल में जिस स्वर पर राग समाप्त होता था , उसे न्यास स्वर कहते थे , किन्तु आजकल राग – विस्तार करते समय जिस स्वर पर रुकते हैं उसे न्यास स्वर कहते हैं ।
यहाँ पर स्मरण करा देना आवश्यक है कि प्राचीनकाल में किसी राग का प्रारम्भिक स्वर जिसे ग्रह स्वर कहते थे और अन्तिम स्वर जिसे न्यास स्वर कहते थे , निश्चित होता था । आज कल राग के गायन – वादन में न तो कोई ग्रह स्वर माना जाता है और न प्राचीन अर्थ में न्यास स्वर । आजकल प्रत्येक राग षडज से अथवा अन्य किसी भी स्वर से ( कलाकार की इच्छानुसार ) प्रारम्भ किया जा सकता है और किसी भी स्वर पर समाप्त किया जा सकता है । वर्तमान संगीतज्ञ अधिकतर षडज से राग – विस्तार प्रारम्भ करते हैं और षडज पर ही अपना प्रदर्शन समाप्त करते हैं ।
अपन्यास स्वर – Apnyas Swar
अपन्यास स्वर- प्राचीन काल में गीत के विभागों और उप – विभागों के अन्तिम स्वरों को अपन्यास स्वर कहते थे । इसके दो प्रकार माने गये ( 1 ) सन्यास और ( 2 ) विन्यास ।
सन्यास और विन्यास – Sanyas aur Vinyas
सन्यास और विन्यास – जिन स्वरों पर गीत के प्रथम खण्ड के विभिन्न उपखण्ड समाप्त होते थे वे सन्यास स्वर कहलाते थे । जैसे – गीत की स्थायी में तीन पंक्तियाँ हैं तो तीनों पंक्तियों के अन्तिम स्वर सन्यास कहलायेंगे ।
गीत के विभिन्न भागों के प्रथम उपविभागों के अन्तिम स्वर को विन्यास स्वर कहते थे । उदाहरण के लिए किसी गीत के 4 खण्ड हैं – स्थाई , अन्तरा , संचारी और आभोग । प्रत्येक खण्ड के पहले भाग के अन्तिम स्वर को विन्यास स्वर कहते थे ।
आधुनिक संगीत में अपन्यास , सन्यास और विन्यास में से किसी का भी प्रयोग नहीं होता । केवल न्यास शब्द का प्रयोग नये अर्थ में होता है ।
विदारी – Vidari
विदारी- प्राचीन संगीत में गीत अथवा स्वर – समुदाय के विभिन्न खण्डों को विदारी कहते थे । आधुनिक संगीत में इस शब्द का भी प्रचलन नहीं है ।
गमक – Gamak ( संगीत की शब्दावली )
गमक – संगीत की शब्दावली के इस शब्द का प्रयोग प्राचीन काल में होता था और आज कल शास्त्रीय संगीत में भी होता है , किन्तु गमक के प्राचीन और आधुनिक अर्थो में भेद है । प्राचीनकाल में स्वरस्य कंपो गमकः ‘ अर्थात स्वर के कम्पन को गमक कहते थे , किन्तु आजकल हृदय पर जोर लगाकर स्वरों को गम्भीरतापूर्वक उच्चारण करने को गमक कहते हैं । आजकल गमक का प्रयोग ध्रुपद गायन में तथा वाद्य – वादन में विशेष रूप से होता है । कभी – कभी कुछ गायक ख्याल में भी कभी – कभी गमक प्रयोग करते हुए सुनाई पड़ते हैं ।
प्राचीन ग्रन्थों में गमक के प्रकार 15 बताये गये हैं , जिनके नाम हैं –
- 1. कंपित
- 2. आंदोलित
- 3. स्फुरित
- 4. तिरिप
- 5. मुदित
- 6. लीन
- 7. नामित
- 8. कुरूला
- 9. मिश्रित
- 10. हॅम्फित
- 11. उल्लासित
- 12. बली
- 13. प्लावित
- 14. आहत
- 15. विभिन्न ।
इनमें अधिकांश का प्रयोग कर्नाटक संगीत में इसी नाम से होता है , किन्तु आधुनिक हिन्दुस्तानी संगीत की शब्दावली में ये नाम नहीं प्रयुत्त होते हैं । गमक के इन प्रकारों में से अधिकांश दूसरे नामों से हिन्दुस्तानी संगीत की शब्दावली में आजकल प्रयोग किये जाते हैं जैसे- मींड , कण , खटका , मुर्की , जमजमा , घसीट , पुकार आदि ।
- विस्तार से जानें – गमक के प्रकार कितने होते हैं? Types of Gamak
तिरोभाव – आविर्भाव – Tirobhav-Avirbhav
तिरोभाव – आविर्भाव – संगीत का मुख्य उद्देश्य रंजकता है, अतः एक ओर जहां राग – नियमों का पालन आवश्यक ही नहीं अनिवार्य माना गया है, वहाँ दूसरी ओर राग का एक नियम यह भी है कि अगर मधुरता में वृद्धि होती है तो राग के नियमों में शिथिलता भी स्वीकार की गई है । कभी – कभी मूल राग के स्वरूप को थोड़ा छिपा देने से अथवा उसके समप्रकृति राग की छाया लाने से राग की मधुरता बढ़ जाती है जिसे संगीत में तिरोभाव कहते हैं । तिरोभाव के बाद जब पुनः मुख्य राग में आते हैं तो उसे आविर्भाव कहते हैं । राग – विस्तार में पहले तिरोभाव दिखाया जाता है और बाद में आविर्भाव । अतः तिरोभाव – आविर्भाव कहा जाना चाहिए न कि आविर्भाव – तिरोभाव ।
तिरोभाव क्रिया निम्न दशा में दिखाई जानी चाहिए –
( 1 ) मूल राग का स्वरूप ठीक प्रकार से स्थापित हो जाय , नहीं तो सुनने वालों को कभी कुछ राग तो कभी दूसरा राग मालूम पड़ेगा ।
( 2 ) तिरोभाव – आविर्भाव का मुख्य उद्देश्य राग की मधुरता में वृद्धि है । केवल इसलिये तिरोभाव न करना चाहिए कि वह इसे करने में समर्थ है । अतः तिरोभाव उसी समय की जानी चाहिए जबकि राग की मधुरता बढ़े ।
( 3 ) तिरोभाव क्रिया कम से कम समय के लिए दिखाया जाना चाहिए । अधिक समय तक करने से मूल राग को क्षति पहुंचेगी । नीचे तिरोभाव – आविर्भाव का एक उदाहरण बसन्त राग में दिया जा रहा है
( अ ) प ऽ मंग में ग , म ध रे सां , मूल राग ( बसंत )
( ब ) सां रे सा रे नि सां नि ध नि ऽध प , तिरोभाव ( परज )
( स ) प मंग मं ग , ग म ध ग ऽ मं ग ऽ रे सा , आविर्भाव ( बसंत )
निचे दी गयी Link में राग और ठाट आधारित शब्दावली पर लेख है –
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