पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर जीवनी
- पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर संगीत जगत में सम्मोहिनी आवाज से संगीत से अनभिज्ञ एवं रुचिहीन व्यक्तियों को भी मन्त्रमुग्ध करने वाले पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर अपने विलक्षण व्यक्तित्व एवं विशिष्ट गायन – शैली के लिए चर्चित रहे हैं । पण्डित विष्णुदिगम्बर पलुस्कर के प्रमुख शिष्यों में से एक परिडत ओंकारनाथ ठाकुर का जन्म 24 जून , 1897 को बड़ौदा के जहाज गाँव ( गुजरात ) में हुआ था ।
- • ओंकारनाथ बहुत जिज्ञासु थे । ज्ञानवर्द्धन की उनकी पिपासा मिटती ही नहीं थी , इसके लिए उन्होंने हिन्दी , अंग्रेजी , संस्कृत , मराठी व बंगाली भाषाएँ सीखकर विविध ग्रन्थों का अध्ययन किया । वे एक उत्तम वांग्यकार थे एवं उन्होंने ‘ प्रणव ‘ उपनाम से अनेक रचनाओं का सृजन किया । इन्होंने संगीतांजलि व प्रणवभारती ग्रन्थ लिखे।
- • वर्ष 1933 में पण्डित जी ने प्रथम यूरोप यात्रा की जब फ्लोरेस के अन्तर्राष्ट्रीय संगीत सम्मेलन में उन्होंने सफलतापूर्वक भारत का प्रतिनिधित्व किया ।
- • वर्ष 1950 में पण्डित जी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ‘ के ‘ श्री कला संगीत ‘ भारती ‘ के अध्यक्ष बने । उनके जीवन का यह नया अध्याय था , क्योंकि यह सर्वप्रथम ऐसा विश्वविद्यालय था , जिसे संगीत में स्नातक और स्नातकोत्तर शिक्षा देने का दर्जा मिला । कला की उच्चता और शिक्षण में प्रवीणता इन दोनों का एक में अवस्थान दुर्लभ है , किन्तु पण्डित जी ने दोनों रूपों में अद्भुत कुशलता का परिचय दिया ।
- • वर्ष 1952 में भारत सरकार द्वारा अफगानिस्तान भेजे गए सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व मण्डल का नेतृत्व पण्डित जी ने ही किया । वर्ष 1953 में बुडापेस्ट में ‘ शान्ति परिषद् ‘ के विश्व अधिवेशन में भारत का प्रतिनिधित्व भी उन्होंने ही किया ।
- • वर्ष 1954 में शान्ति परिषद के वार्षिक अधिवेशन में भारत के प्रतिनिधि बने और चेकोस्लोवाकिया , हंगरी , नॉर्वे , स्वीडन आदि देशों का दौरा किया । वर्ष 1955 में विशेष निमन्त्रण पर पण्डित जी नेपाल गए ।
- • जहाँ उन्होंने भारतीय संगीत का प्रचार – प्रसार किया । मालवीय जी ने इनके संगीत से प्रभावित होकर इन्हें ‘ संगीत प्रभाकर ‘ की उपाधि से सम्मानित किया । वर्ष 1955 में गणतन्त्र दिवस के शुभ अवसर पर भारत सरकार ने इन्हें ‘ पद्म श्री ‘ की उपाधि से सम्मानित किया ।
- • वर्ष 1980 में नेपाल नरेश ने इन्हें ‘ संगीत मार्तण्ड ‘ एवं वर्ष 1940 में विशुद्ध संस्कृत विश्वविद्यालय ने ‘ संगीत सम्राट ‘ की उपाधि से सम्मानित किया ।
- • वर्ष 1963 में काशी विश्वविद्यालय तथा वर्ष 1964 में रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय द्वारा ओंकारनाथ जी को डी . लिट् की मानद उपाधि प्रदान की गई ।
- ओंकारनाथ जी के गायन में गम्भीर आलापचारी वक्र , कूट एवं क्लिष्ट तानों का प्रयोग स्वर संयोग स्वर भेद , उच्चारण भेद और काकु भेद आदि से एक ही शब्द के अनेक अर्थों का प्रयोग करने की विशेषताएँ थीं । पण्डित जी मुख्यतः ख्याल गायक होते हुए भी ध्रुपद और ठुमरी अंग का सफल प्रदर्शन करते थे । राग को शुद्ध तरीके से प्रस्तुत करना उनके स्वभाव में था ।
- • रागांग और क्रियांग का उन्होंने इतना सूक्ष्म विश्लेषण किया है कि प्रत्येक राग की स्वर – मूर्ति और भाव मूर्ति का उन्हें मानो साक्षात् दर्शन मिल चुका है । इनकी गायकी की सर्वोच्च विशेषता उनकी आलापचारी में ही निहित थी ।
- स्वर विस्तार की विलक्षण क्षमता उनमें थी । उनको प्रसिद्ध रचनाएँ- वन्दे मातरम् , जोगी मत जा तथा मैं नाहि माखन खायो आदि कभी भुलाई नहीं जा सकती । उनका मानना था कि साहित्य के अनुकूल स्वरों में भाव प्रदर्शित करना गायन का मुख्य लक्ष्य होना चाहिए । एच . एम . वी . ने ओंकारनाथ के कई डिस्क रिकॉर्ड तैयार किए जो आज भी आकाशवाणी से प्रसारित होते रहते हैं ।
प्रणव भारती
- पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर द्वारा रचित प्रणव भारती ( 1956 ) संगीतशास्त्र सम्बन्धी एक बड़ा व महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके अन्तर्गत सात अध्यायों का संकलन है । ये अध्याय इस प्रकार हैं
- अध्याय – 1 नाद
- अध्याय – 2 श्रुति – स्वर ग्राम
- अध्याय – 3 विकृत स्वरों का इतिहास
- अध्याय – 4 पण्डित भातखण्डे की श्रुति स्वर की आलोचना
- अध्याय – 5 शुद्ध सप्तक और सूक्ष्म विकृत स्वर अध्याय
- अध्याय – 6 मूर्च्छना और जाति
- अध्याय – 7 वर्ण अलंकार
इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ में दो परिशिष्ट भी दिए गए हैं तथा रागों में २२ श्रुतियों के प्रयोग का वर्णन किया गया है ।
- ‘ संगीतांजलि ‘ ग्रन्थ की रचना भी ओंकारनाथ ठाकुर द्वारा की गई है । यह ग्रन्थ एक से छ : भागों में लिखा गया है जिसके अन्तर्गत क्रमानुसार प्रारम्भ से बी म्यूज ( विशारदा ) तक का शास्त्र एवं क्रियात्मक का पाठ्यक्रम दिया गया है । इसके पाँचवें भाग में स्वर – प्रस्तार और छठे भाग में जाति दिया गया है । अब इसका सातवाँ भाग भी प्रकाशित हो गया हैं ।
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