रागों का समय सिद्धांत / निर्धारण की प्रक्रिया में ” अध्वदर्शक स्वर ” और ” परमेलप्रवेशक राग ” का रागों के समय निर्धारण में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है।
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रागों का समय सिद्धांत – रागों का समय निर्धारण कैसे किया जाता है ?
समय के अनुसार राग की दशा जानने में या रागों के समय निर्धारण में ” अध्वदर्शक स्वर ” और ” परमेलप्रवेशक राग ” को समझ कर आप आसानी से जान सकते हैं कि किसी राग का गायन समय कब होता है? या कौन सा राग कब गाया जाता है ? । राग के समय निर्धारण में कुछ अपवाद भी हैं । पहले जानते हैं रागों के समय निर्धारण में अध्वदर्शक स्वर क्या है ?
अध्वदर्शक स्वर – Adhwadarshak Swar
अध्वदर्शक स्वर – उत्तर भारतीय संगीत में मध्यम स्वर का बहुत बड़ा उपयोग है । इस मध्यम स्वर के द्वारा हमें यह ज्ञात होता है कि किसी भी राग का गायन – समय दिन है अथवा रात है , इसलिये मध्यम को अध्वदर्शक स्वर कहा गया है ।
शास्त्रकारों ने 24 घंटे के समय को दो बराबर भागों में विभाजित किया । प्रथम भाग को पूर्वार्ध , जिसे 12 बजे दिन से 12 बजे रात्रि तक (पूर्वाह्न/p.m) और द्वितीय भाग हो उत्तरार्ध कहा , जिसे बारह बजे रात्रि से बारह बजे दिन तक (अपराह्न/a.m) माना जाता है । पहले भाग की अवधि में तीव्र म की और दूसरे में शुद्ध मध्यम की प्रधानता मानी गयी है ।
उदाहरणार्थ भैरव व बहार रागों को लीजिये । दोनों में शुद्ध म प्रयोग किया जाता है । इनका निश्चित समय न मालूम होने पर हम कम से कम इतना तो कह सकते हैं कि इनका गायन – समय दिन के उत्तरार्ध में किसी समय होगा । इस प्रकार मारवा , मुलतानी व पूर्वी रागों को लीजिये । इनमें तीव्र मध्यम प्रयोग किया जाता है । इसलिये इनके गायन – समय का एक स्थूल अनुमान , दिन का पूर्वार्ध अर्थात 12 बजे दिन से 12 बजे रात तक लगाया जा सकता है ।
अपवाद – अध्वदर्शक स्वर
अपवाद – इस नियम के अनेक अपवाद भी हैं , उदाहरणार्थ बसन्त राग को लीजिये । इनमें दोनों मध्यम अवश्य प्रयोग किये जाते हैं , किन्तु तीव्र मध्यम प्रधान है , फिर भी इसका गायन – समय रात्रि का अन्तिम प्रहर अर्थात उत्तरार्ध में है । इस प्रकार परज , भीमपलासी , बागेश्वरी , हिंडोल , तोड़ी , दुर्गा , देश आदि राग ऊपर बताये गए नियम का खण्डन करते हैं ।
वास्तव में उपर्युक्त नियम का पालन केवल संधिप्रकाश रागों में होता है । प्रातः कालीन सन्धि प्रकाश रागों में शुद्ध मध्यम की तथा सायंगेय सन्धि प्रकाश रागों में तीव्र मध्यम की प्रधानता रहती है । संध्याकालीन संधिप्रकाश राग पूर्वी के दोनों मध्यमों में तीव्रम प्रमुख है ।
इसी प्रकार प्रातः कालीन सन्धि प्रकाश रागों जैसे – रामकली और ललित में तीव्र म गौण और शुद्ध म प्रमुख है । इनके अतिरिक्त भैरव , कालिंगड़ा , जोगिया आदि प्रातःकालीन संधि प्रकाश रागों में शुद्ध म और श्री , मारवा , पूरिया आदि संध्याकालीन संधि प्रकाश रागों में तीव्र म प्रयोग किया जाता है । अतः अध्वदर्शक स्वर का नियम केवल संधिप्रकाश रागों के विषय में ठीक उतरता है ।
परमेलप्रवेशक राग क्या है ? – ParmelPraveshak Raag
परमेल प्रवेशक राग – वे राग जो एक थाट से दूसरे थाट में प्रवेश कराते हैं , परमेल – प्रवेशक राग कहलाते हैं , जैसे मुलतानी , जैजैवन्ती आदि । यह 2 थाटों के बीच का राग होता है । इसलिये इनका गायन – समय दूसरे थाट के रागों के ठीक पहले होता है ।
सायंकालीन संधिप्रकाश रागों के ठीक पहले मुलतानी राग गाया जाता है । यह तोड़ी थाट से पूर्वी और मारवा थाट के रागों में प्रवेश कराता है । इसलिए मुलतानी को परमेल – प्रवेशक राग कहा गया है ।
राग जयजयवंती , खमाज थाट से काफी थाट के रागों में प्रवेश कराता है । खमाज थाट में ग शुद्ध होता है और काफी थाट में ग कोमल होता है और राग जयजयवंती में शुद्ध तथा कोमल दोनों ग लगते हैं , इसलिये इसे परमेल प्रवेशक कहा गया है ।
भारतीय संगीत की परंपरा में रागों का समय चक्र उसकी एक विशिष्टता के रूप में जाना जाता है। स्वरों की स्थिति, इन रागों के समय निर्धारण में अत्यंत महत्वपूर्ण है।
समय का विभाजन – 24/3 = 8 प्रहर
समूचे रागों को 24 घण्टे के समय के आधार पर , 3-3 घंटे के प्रहर में विभाजन किया गया है। आधुनिक विद्वानों ने समय सीमा को दो भागों में बांटा है। प्राचीनकाल से प्राप्त ब्रह्म-मुहूर्त सुबह 4 बजे से शुरू होकर शाम 4 बजे तक, और शाम 4 बजे से सुबह 4 बजे तक ।
पहला प्रहर सुबह 4 बजे से 7 बजे तक, दूसरा प्रहर 7 बजे से 10 बजे तक, तीसरा प्रहर 10 से 1 बजे तक, और चौथा प्रहर 1 से 4 तक माना गया । बिलकुल इसी प्रकार संध्या 4 से 7, 7 से 10, 10 से 1 व 1 से 4 बजे तक का है।
इस प्रकार से 24 घंटे के अंतराल में 3-3 घंटे के हिसाब से प्रहरों की संख्या 8 हुई ।
पहला प्रहर जोकि संधिप्रकाश रागों का है, चाहे सुबह का हो या शाम का । दूसरा प्रहर और तीसरे प्रहर में पहले कोमल व बाद में शुद्ध ‘रे ध’ स्वर वाले राग का समय निश्चित किया गया । तत्पश्चात अंतिम प्रहर में कोमल ‘ग नि’ वाले राग का समय निश्चित है ।
इनमे कुछ ऐसे भी राग हैं जिनमें एक प्रहर के गुण के साथ साथ दूसरे प्रहर के भी गुण आ जाते हैं। जैसे – राग जयजयंती या राग मालगुंजी । यह राग शुद्ध ‘रे तथा ध’ स्वर वाले खमाज ठाठ से कोमल ‘ग नि’ स्वर वाले काफी ठाठ में प्रवेश करते हैं तो इस प्रकार इन रागों में दोनों ही थाटों के गुण आ जाते हैं। मतलब ‘रे तथा ध’ शुद्ध और दोनो ‘नि’ का उपयोग होना खमाज का लक्षण व ‘ग नि’ कोमल काफी थाट का लक्षण, राग जयजयवंती में भी है। इस प्रकार के राग जोकि एक थाट से किसी दूसरे थाट में प्रवेश करते हैं उन्हें हम ‘परमेलप्रवेशक राग’ के नाम से जानते हैं।
राग कितने प्रकार के होते हैं ? यह जानने के लिए –
इसे पढ़ें – राग की जाति का नामकरण तथा वर्गीकरण Raag ki jati, Vargikaran
आशा करता हूँ ” रागों का समय सिद्धांत ” का यह अध्याय आपको पसंद आया होगा , आप समझ गए होंगे कि रागों का समय निर्धारण कैसे किया जाता है ? अब आप आसानी से पता कर सकते हो कि जैसे – राग भैरवी कब गाया जाता है ? तोड़ी राग कब गाया जाता है ? सुबह गाया जाने वाला राग कौन सा है ? शाम को गाया जाने वाला राग कौन सा है ? इत्यादि
” सप्त स्वर ज्ञान “ से जुड़ने के लिए आपका दिल से धन्यवाद ।