Site icon सप्त स्वर ज्ञान

ध्रुपद गायन शैली- अध्याय- (3/22) Dhrupad Gayan Shaili

ध्रुपद गायन शैली

अध्याय- 3 ( ध्रुपद गायन शैली ) | गायन के 22 प्रकार

  1. गायन
  2. प्रबंध गायन शैली
  3. ध्रुपद गायन शैली
  4. धमार गायन शैली
  5. सादरा गायन शैली
  6. ख्याल गायन शैली
  7. तराना
  8. त्रिवट
  9. चतुरंग
  10. सरगम
  11. लक्षण गीत
  12. रागसागर या रागमाला
  13. ठुमरी
  14. दादरा
  15. टप्पा
  16. होरी या होली
  17. चैती
  18. कजरी या कजली
  19. सुगम संगीत
  20. गीत
  21. भजन
  22. ग़ज़ल

ध्रुपद गायन शैली क्या है ?

ध्रुपद गायन शैली शास्त्रीय संगीत की प्राचीन गायन शैली है । प्राचीन प्रबन्ध गायकी से ही ध्रुपद गायकी की उत्पत्ति मानी जाती है । स्वर , ताल , शब्द एव लय युक्त शैली ध्रुपद कहलाती है ।

ध्रुपद का शाब्दिक अर्थ वह रचना या गीत है जिसमें शास्त्रोक्त संगीत समस्त पद अर्थात् स्वर, ताल, शब्द आदि अचल या अडिग हों । भरत कृत ग्रन्थ नाट्यशास्त्र में ‘ ध्रुवा ‘ शब्द का उल्लेख मिलता है । यह ध्रुवा गीत छन्द निबद्ध होते थे । भरत ने इसमें 18 अंगों का वर्णन किया है । ध्रुवा एक काव्य स्वर तथा छन्द में बद्ध रचना थी , जिसके सुनिश्चित अंग थे तथा उस गीत में मति , वर्ण , अलंकार , ग्रह आदि का सम्बन्ध अखण्ड रूप से सुनियोजित था ।

कालिदास , बाण , सुबन्धु जैसे संस्कृत कवियों की कृतियों में भी ध्रुवागीति का उल्लेख मिलता है । ऐसा माना जाता है कि इन्हीं ध्रुवागीति में आवश्यक परिवर्तनों के साथ मध्यकालीन ध्रुपदों का विकास हुआ ।

ध्रुपद गायन शैली का आविष्कार एवं विकास

ध्रुपद का आविष्कार एवं विकास ध्रुपद भारतवर्ष का एक प्राचीन गायन है कई विद्वानों के मतानुसार , ध्रुपद शैली का आविष्कार एवं विकास 15 वीं शताब्दी के राजा मानसिंह तोमर ने किया था वास्तव में ध्रुपद प्राचीन प्रबन्धों की संशोधित स्वरूप था । ऐसा माना जाता है कि राजा मानसिंह तोमर ‘ संगीत ‘ को विशेष महत्त्व देते थे । उसने ग्वालियर को संगीत विधा का केन्द्र बना दिया था ।

इनके समय में इनके द्वारा रचित मानकौतूहल ग्रन्थ ध्रुपद गीतों की ही रचना इनके अनुसार यह गीत देशी भाषा में होते थे , इनकी चार पंक्तियाँ होती और ये सभी रसों में निबद्ध होते थे ।

सूरदास, नन्ददास जैसे अष्टछाप संगीतज्ञों के ध्रुपदों को देखने पर इसके विषय की विविधता स्पष्ट हो जाती है । आधुनिक ध्रुपद गायकी का सूत्रपात ग्वालियर के राजा मानसिंह के समय में हुआ । ध्रुपद गायन की तानसेन परम्परा 18 वीं सदी के पूर्वाद्धं तक चलती रही ।

Advertisement

मुहम्मद शाह रँगीले के समय में इस स्थिति में परिवर्तन आ गया था । वीणा एवं ध्रुपद के पतन का कारण यही स्थिति रही लेकिन ख्याल शैली की प्रतिस्पर्द्धा के कारण ध्रुपदों की प्रतिष्ठा और लोकप्रियता गिरती चली गई । और इसी कारण सदारंग के वंशजों ने घ्रुपद गायन के स्थान पर तन्त्रीकारी को अपनाया ।

ध्रुपद गायन को प्रचलित हुए पाँच सौ वर्षों से अधिक हो गए , किन्तु इधर लगभग डेढ़ सौ वर्षों से ध्रुपद गायिकी का प्रचार कम हो गया है और ख्याल गायन का प्रचार व प्रसार अधिक हो गया है । संगीत कला मर्मज्ञों में ध्रुपद गायिकी को आज भी श्रद्धा व सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है ।

Advertisement
Advertisement

ध्रुपद की तालें – गायकी आलाप

ध्रुपद एक धीर – गम्भीर गीत होने के कारण , इसमें एक – एक स्वर व अक्षर का गणितीय समन्वय है । इस गीत की संगति हेतु अधिकतर तीव्रा , सूलताल , चारताल और ब्रह्मताल जैसी गम्भीर तालों का प्रयोग किया जाता है । ध्रुवपद के चार चरण स्थायी अन्तरा , संचारी एवं आभोग माने गए हैं । इसकी संगति मृदंग व पखावज वाद्यों द्वारा दी जाती है , जिसके परिणामस्वरूप खुले बोलों की तालें न केवल ध्रुपद के स्वरूप को स्पष्ट करती हैं , अपितु उसमें सौन्दर्यात्मकता का भी विस्तार करती हैं । ध्रुपद गायन में स्वर को भली – भाँति स्थापित कर लेने के पश्चात् मन्द्र सप्तक का भी प्रयोग होता है ।

अलाप

अलाप – राग के शास्त्रोक्त नियमों का पालन करते हुए आलाप करना इस शैली में अनिवार्य माना गया है । इसमें आलाप करने के दो तरीके माने जाते हैं

Advertisement

1. पहला गीत आरम्भ करने से पूर्व का आलाप ।

2. दूसरा आलाप का यह प्रकार गीत को आरम्भ कर गीत के शब्दों के साथ आलाप करना अर्थात् स्थायी , अन्तरा , संचारी , आभोग को गाने के बाद , पदों के माध्यम से आलाप किया जाता है । यह आलाप बढ़त व उपज दोनों अंगों से किए जाते हैं ।। प्राचीनकाल में बढ़त की यह क्रिया घन तथा सम्पुट के नाम से जानी जाती थी ।

Advertisement

ध्रुपद की वाणियाँ

ध्रुपद गायकों को कलावन्त की संज्ञा दी जाती है । साधारण ‘ वाणी ‘ का अर्थ बोली या उक्ति होता है । चारों वाणियों की चर्चा इस प्रकार है ।

  1. गोउहार वाणी इस वाणी के प्रवर्तक मियाँ तानसेन हैं । ध्रुपद की वाणियाँ अकबर के शासनकाल से प्रचलित हुई मानी जाती हैं । इसे गोरीहार वाणी भी कहा गया है , जिसे तानसेन ने अपने ध्रुपद में शुद्धवाणी कहा है । इसे राजा की उपाधि दी जाती है । इस दृष्टि से गोउहार वाणी सर्वश्रेष्ठ मानी गई है ।
  2. डांगुर वाणी इसका प्रवर्तक ब्रजचन्द्र को माना जाता है । इस वाणी को मन्त्री की उपाधि दी गई है । इसमें स्वरों का वक्रता से प्रयोग किया जाता है । ऐसा माना जाता है कि डांगर प्रदेश की , डांगरी भाषा के आधार पर इस वाणी को डांगुर वाणी कहा गया । ब्रजचन्द्र जी डांगुर ( डांगर ) प्रदेश के निवासी थे । है ,
  3. खण्डार वाणी इस वाणी का सम्बन्ध राजा समोखन सिंह से माना जाता । जो अकबर के दरबार में प्रसिद्ध वीणा वादक थे । इनका विवाह तानसेन की कन्या से हुआ था । चूँकि इनका निवास स्थान खण्डार नामक स्थान था , इसलिए इस वाणी का नाम खण्डार वाणी पड़ा । इस वाणी को सेनापति की उपाधि दी गई है ।
  4. नौहार वाणी यह वाणी चतुर्थ श्रेणी की बताई गई है । इसके प्रवर्तक श्रीचन्द्र राजपूत हैं । नौहार प्रदेश के होने के कारण, इन्होंने इस वाणी को नौहार वाणी । कहा । इसे सेवक की पदवी दी गई है । डांगुर वाणी एवं खण्डार वाणी नौहार के अधीन मानी गई है ।

आगे आने वाली जानकारियों और गायन के 22 प्रकार के बारे में जानने के लिए Subscribe करें , Share करें अपने मित्रों के बीच और जुड़े रहे सप्त स्वर ज्ञान के साथ, धन्यवाद ।

Advertisement
Advertisement
Share the Knowledge
Exit mobile version