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उपनिषदों में संगीत -Upnishadon me Sangeet (3/9)

उपनिषदों में संगीत

हिन्दुस्तानी संगीत के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन ( 3/9 )

  1. वैदिक काल में संगीत- Music in Vaidik Kaal
  2. पौराणिक युग में संगीत – Pauranik yug me Sangeet
  3. उपनिषदों में संगीत – Upnishadon me Sangeet
  4. शिक्षा प्रतिसांख्यों में संगीत – Shiksha Sangeet
  5. महाकाव्य काल में संगीत- mahakavya sangeet
  6. मध्यकालीन संगीत का इतिहास – Madhyakalin Sangeet
  7. मुगलकाल में संगीत कला- Mugal kaal Sangeet Kala
  8. दक्षिण भारतीय संगीत कला का इतिहास – Sangeet kala
  9. आधुनिक काल में संगीत – Music in Modern Period

3. उपनिषदों में संगीत

उपनिषदों में संगीत अनुमानित रूप से उपनिषद् काल ई . पू . 1000 से 500 तक माना जा कता है । ब्राह्मणों के अन्तर्गत ऐतरेय , तैत्तरीय एवं शतपथ आदि ब्राह्मणों में संगीत विषयक चर्चा एवं सामग्री मिलती है । इस समय में भी साम का विशेष स्थान था तथा साम को ही जीवन माना जाता था ।

संगीत को सामाजिक एवं व्यक्तिगत मनोरंजन के एक प्रमुख तत्त्व के रूप में तथा धार्मिक अनुष्ठानों के आवश्यक अंग के रूप में इस काल में देखा जा सकता है ।

ब्राह्मण , क्षत्रिय आदि उच्च वर्गों के साथ – साथ समाज के अन्य वर्गों में भी संगीत का प्रचार था ।

सप्तक के तीनों स्थानों का बोध उस समय तक हो गया था , जिनको मन्द , मध्यम और उत्तम कहा जाता था ।

ब्राह्मण एवं क्षत्रिय दोनों ही वीणा पर गाथा गाते थे । उपनिषद् वेदों के भाव को ग्रहण करने का प्रमुख माध्यम है । वैदिक युग के संगीत को समझने के लिए इनका अनुशीलन आवश्यक है ।

साम गान की प्रशंसा तथा महत्त्व का वर्णन भी उपनिषदों में मिलता है । प्राचीन परम्परा के अनुसार उपनिषदों में ऋक तथा साम का सुन्दर सामंजस्य दिग्दर्शित होता है ।

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सफलता छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार साम ही आधार स्वर माना जाता था और यज्ञ की लिए स्वर सम्पन्न गान आवश्यक है । ऋचाओं का साथ साम में निहित है और साम का साथ उदगीत में है । इसी ध्वनि से उत्पन्न होने वाला रसानन्द अन्य सभी रसों से श्रेष्ठ है । बृहदारण्यक में स्वर का महत्त्व साम गान में स्वर्ण के तुल्य माना गया है । इस समय संगीत की विशेष रूप से सामग्री मिलती है ।

उपनिषदों में भी साम गान का विशेष महत्त्व रहा है । इस समय आजीविका के लिए साम गान प्रचलित था तथा तूणव , वीणा , दुन्दुभि , शंख आदि वाद्यों का उल्लेख मिलता है । गायन – वादन के साथ नृत्य में भी पर्याप्त प्रगति मिलती है । छान्दोग्य उपनिषद् के प्रथम अध्याय में साम के ‘ स्तोत्र ‘ अक्षरों का विवेचन उपलब्ध है । इनका प्रयोग साम गायन में आलाप लेने के लिए किया जाता है ।

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ये स्तोत्र निम्न प्रकार के हैं – हाऊकार , अथकार , ईकार , इकार , उकार , एंकार , और हिंकार स्वर हैं । साम गान का रहस्य इन्हीं आलापों के समय गान में निहित है । छान्दोग्य के अन्तर्गत गायन करते समय प्रबन्ध छन्द ऋषि तथा देवताओं का चिन्तन परमावश्यक है । उपनिषद् काल में संगीत ऋषियों पर विचार – विमर्श हुआ करते थे तथा इनका शास्त्र विचारों के मंथन के बाद निर्मित होता था ।

इस काल में स्त्रियाँ भी क्रियाशील थीं , ऐसा बृहदारण्यक में उल्लेखित है । साम गान की स्थिति उन्नत थी । केवल यज्ञ आदि में ही साम गान का विधान था , ऐसा नहीं है , बल्कि दैनिक क्रियाकलापों में भी गीत का एक विशेष स्थान था । जीवन के सभी संस्कारों पर साम के विभिन्न पक्षों का गायन करने का विधान था । अत : उपनिषदों में गीत वाद्य के महत्त्व को स्वीकार किया गया है । दुन्दुभि , शंख , वीणा आदि वाद्यों के साथ – साथ नृत्य का उल्लेख भी उपनिषदों में मिलता है ।

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” उपनिषदों में संगीत ” यह हिन्दुस्तानी संगीत के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन का तीसरा अध्याय है , आगे आने वाले अध्यायों के लिए बने रहें सप्त स्वर ज्ञान के साथ । धन्यवाद , हाँ इसे अपने मित्रों के साथ शेयर करना, साथ ही साथ सब्सक्राइब करना न भूलें ।

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