संगीत की उत्पत्ति तथा प्रारम्भिक शिक्षा एवं वर्तमान समय में इसकी उपयोगिता ईसा से लगभग 2000 से 1000 वर्ष पूर्व वेदों का रचना काल बताया जाता है । वेदों की संख्या चार है . जिन्हें ऋग्वेद , यजुर्वेद , अथर्ववेद और सामवेद कहते है । आर्यों को संगीत से इतना प्रेम था , कि उन्होंने सामवेद को केवल गान करने के लिए ही बनाया था । साथ ही एक उपवेद की ( जिसका नाम ‘ गान्धर्ववेद ‘ था ) , रचना और कर ली । इसमें संगीत का ज्ञान हमें संहिताओं , ब्राह्मण ग्रन्यों , प्रतिसाख्यों , व्याकरण और पुराणादि के द्वारा प्राप्त होता है । वैदिक युग का प्रारम्भ आर्यों के आगमन से माना जाता है , परन्तु यह अभी तक निर्णय नहीं हो पाया है कि आर्य कहाँ के निवासी थे ?
विषय - सूची
संगीत की उत्पत्ति
एक विद्वान का कथन है कि वह स्थान भारत ही है , जहाँ से आर्य लोग सम्पूर्ण विश्व में फैले । वास्तव में आर्य लोग भारत के मूल निवासी थे । इनका संगीत – ज्ञान अत्यन्त उत्कृष्ट था ।
कहा जाता है कि सबसे पहले संगीत ब्रह्माजी के पास था , और अन्त में नारद जी के द्वारा संगीत का प्रचार इस पृथ्वी पर हुआ । संगीत की उत्पत्ति आरम्भ में वेदों के निर्माता ब्रह्मा जी द्वारा हुई । ब्रह्मा जी ने यह कला शिवजी को दी और शिव के द्वारा देवी सरस्वती जी को प्राप्त हुई । सरस्वती जी को इसलिए ‘ वीणा पुस्तक धारिणी ‘ कहकर संगीत और साहित्य की अधिष्ठात्री माना है । सरस्वती जी से संगीत कला का ज्ञान नारद जी को प्राप्त हुआ , नारद जी ने स्वर्ग के गन्धर्व , किन्नर एवं अप्सराओं को संगीत शिक्षा दी , वहाँ से भरत , नारद और हनुमान , प्रभूति ऋषि संगीत कला में पारंगत होकर भू – लोक पर संगीत कला के प्रचारार्थ अवतीर्ण हुए ।
एक ग्रन्थकार के अनुसार , नारद जी ने अनेक वर्षों तक योग साधना की , तब शंकर जी ने उन पर प्रसन्न होकर संगीत कला प्रदान की । पार्वती जी की शयन मुद्रा को देखकर शिव जी ने अनेक अंग – प्रत्यांगों के आधार पर ‘ रुदवीणा ‘ बनाई और अपने पाँचों मुखों से पाँच रागों की उत्पत्ति की । तत्पश्चात् छठा राग पार्वती जी के श्रीमुख से उत्पन्न हुआ । शिवजी के पूर्व , पश्चिम , उत्तर , दक्षिण और आकोशन्मुख से क्रमशः भैरव , हिडोले , मेघ , दीपक और राग प्रगट हुए एवं पार्वती जी द्वारा कौशिक राग की उत्पत्ति हुई ।
संगीत की उत्पत्ति पक्षियों से भी हुई – सुप्रसिद्ध विद्वान श्री दामोदर पंडित ने यह स्वीकार भी किया है कि संगीत की उत्पत्ति पक्षियों के विभिन्न स्वरों के द्वारा हुई उन्होंने संगीत के सात स्वरों का आविर्भाव इस प्रकार बतलाया है ” मोर से षड्ज , चातक से रिषभ , बकरा से गान्धार , कौआ से मध्यम , कोयल से पंचम , मेंढक से धैवत् और हाथी से निषाद स्वर की उत्पत्ति हुई ।
‘ संगीत के जन्म में प्रकृति का योग – अफ्रीकी विद्वान इफारी का कथन है – पुरुष और नारी का एक सुन्दर सरोवर में प्रथम मिलन हुआ , दोनों ही एक दूसरे के निकट तैरते हुए आगे बढ़ने लगे , तो दोनो ने सुना कि उनके हाथ – पैर पानी में चलाने से जल के वक्ष से कई प्रकार के मधुर स्वर फूट रहे हैं । इससे उन्हें आन्तरिक प्रेरणा मिल रही थी , इससे उनके अन्दर यह भाव उठ रहा था कि हम शीघ्र से शीघ्र एक – दूसरे में घुल – मिल जाएँ । पुरुष और नारी दोनों ने ही उन जल स्वरों का खूब आनन्द लिया और उसी में वे मस्त होकर अपने आप सहसा दोनों आलिंगनपूर्ण हो गए । उनके आलिंगन से स्वर का रूप स्थिर हुआ और दोनों ने संगीत का जीवन के विकास के लिए वास्तविक महत्व समझा , इस प्रकार संगीत का प्रथम ज्ञान प्राप्त हुआ था ।
जल – ध्वनि ने ही संगीत का रूप ले लिया – विख्यात संगीतज्ञ रिन्सोबोल्स ने अपने ‘ संगीत रेखाचित्रों में लिखा है कि ” जब सृष्टि का निर्माण हुआ , तब प्रथम बार जब मानव को प्यास लगी , तो वह अपनी प्यास बुझाने के लिए एक नदी के किनारे गया । उसने देखा कि एक चट्टान से जल की धाराएँ नीचे गिर रही हैं , उस रमणीय दृश्य को देखकर वह अपनी प्यास कुछ क्षणों के लिए बिलकुल भूल गया । उसने जल के गिरने से एक मीठी ध्वनि भी सुनी , वह मीठी ध्वनि इतनी सुन्दर लगी कि वह फिर रोजाना वहीं आने लगा और वह उस ध्वनि का अनुकरण भी करने लगा । बार – बार उसने उस जल की ध्वनि को पूर्णरूप से अपना लिया । फिर वह अपनी थकावट को दूर करने के लिए उसी जल ध्वनि का प्रयोग करने लगा और यही जल ध्वनि आगे चलकर विकसित संगीत में परिणत हो गई । ”
गुरु – शिष्य परम्परा
इन सबके बाद संगीत को आदि काल में गुरु – शिष्य परम्परा द्वारा प्रचलित किया गया था . भारतीय संस्कृति की विभिन्न कलाओं की प्राप्ति हेतु आदिकाल से ही गुरु – शिष्य परम्परा प्रचलित रही है , जिसका वर्णन पुराणों , महाभारत , रामायण जैसे शास्त्रों एवं वेद वेदांगों में भी विभिन्न संदर्भो में मिलता है । वेद वेदांग , धनुर्विद्या , शिल्प कला , ललित कला एवं संगीत कला जैसी महत्त्वपूर्ण विधाओं में पारंगत होने के लिए गुरुकुलों में प्रतिभाशाली विद्यार्थियों का चयन कर पुत्रवत प्रशिक्षण दिया जाता था । शिष्यगण गुरुओं की श्रद्धा भाव से सेवा करते , यथाशक्ति उनके अभिभावक दक्षिणा प्रदान करते । कुछ राजा महाराजा , जमींदार , रईस , बादशाह स्वयं अच्छे गुरुओं के सान्निध्य में संगीत कला सीखे होते थे , ऐसे कला प्रेमी गुरुकुल का सारा खर्च वहन करते और अपनी प्रजा में सुसंस्कारों का सृजन करते ।
कुछ राजा – महाराजा , बादशाह लोग संगीत को मात्र मनोरंजन का साधन मानते और अपने दरबार के नवरत्नों में संगीतज्ञों को राजाश्रय दिए हुए थे , इन संगीतज्ञों में कुछ तो संगीतजीवी थे और कुछ संगीतोपासक प्रवृत्ति के , जिन्हें एक राज दरबार से दूसरे राज – दरबार में भेंट स्वरूप भी स्थानान्तरित किया जाता था . इस प्रकार यह गुरु लोग जहाँ जाते वहीं अपनी शिष्य परम्परा का निर्वाह करते और राजा के परिवार का आमोद – प्रमोद तो करते ही थे । इस प्रकार राज दरबारों में संगीत प्रतियोगिताएं होती और गुरु – शिष्य परम्परा नाम कमाते तथा संगीत कला प्रचारित होती थी । कुछ राजाओं ने अपनी धन – दौलत , संगीत कला और गुरुओं प्रति समर्पण , इस परम्परा व विद्या के प्रति अत्यधिक निष्ठा जताकर संगीत महिमा का सम्मान किया । बड़ौदा , जयपुर , ग्वालियर , मैसूर , रामपुर , रायगढ़ , दरभंगा आदि के राजाओं ने उच्चकोटि के संगीतज्ञों को अपने दरबार में सम्मानीय स्थान दिया , जहाँ गुरुजन असंख्य शिष्यों को संगीत का प्रशिक्षण निरन्तर देते रहे , वहाँ से आज भी अनेक उच्चस्तरीय कलावंत राष्ट्र का नाम अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उज्जवल कर रहे हैं ।
संगीत का प्रचार
गायन के घराने , वादन , नृत्य के जो तमाम घराने प्रचलित रहे हैं , वह गुरुकुल का ही दूसरा नाम है , जिसे प्राचीन संगीतशाला कहा जा सकता है । वर्तमान में भी कई घराने प्रचलित हैं । कुछ गुरुजन शिष्यों को संगीत कला सिखाने के प्रति उदार थे तो कुछ अपने परिवारीजनों मात्र को ही संगीत सिखाते थे । ऐसी परिस्थिति में अत्यधिक प्रतिभावान शिष्यों को ही निराशा हाथ लगी और वे संगीत कला से विमुख हो गए । राजा – महाराजों में धन की होड़ , आपसी द्वन्द्व से संगीत कला भी प्रभावित हुई , गुरुजन पलायन करने लगे और शिष्य परम्परा विखरने लगी । पराधीन देश में आजादी की मांग एवं आन्दोलन से भी संगीत कला प्रभावित हुई । जहाँ गाँधी , गोखले . मालवीय , लोकमान्य सरीखे लौह पुरुषों द्वारा आजादा हेतु सकल्प लिया गया ।
संगीत शिक्षा प्रणाली
यही प . विष्णु दिगम्बर पलुस्कर सरीखे नारद दूत भी संगीत कला के उत्थान , गुरु शिष्य परम्परा के आधुनिक रूप ‘ वर्तमान संगीत शिक्षा प्रणाली ‘ को प्रचारित करने को प्रतित हुए । उन्होंने पाया कि संगीतकार गुरु – शिष्यों को बगल में तानपुरा , सारंगी , एकतारा दबाकर बड़े – बड़े लोगों के घरों में जाकर गाना सुनने की प्रार्थना करनी पड़ती है । सामान्यतः कोई भले ही घर का बच्चा संगीत नृत्य सीखे तो उसे बिगड़ा हुआ माना जाता था । यह स्वभाविक भी था , क्योंकि जिन लोगों के हाथ में यह कला चली गई थी । उन्हें संगीत के योग्य नहीं समझा जाता था । अतः उन्होंने प्रतिज्ञा की , कि तानपुरा बगल में दबाकर भीख मांगता नहीं फिरूंगा और न ही संगीत को नवावों तथा राजाओं के आमोद प्रमोद का साधन मात्र रहने दूंगा । अतः कुछ शिष्यों को लेकर सार्वजनिक रुप से जनता को संगीत की और आकर्षित करने के लिए जगह जगह घूमकर सहयोग प्राप्त कर सन् 1901 में लाहौर में गांधर्व महाविद्यालय की स्थापना की । यही नहीं टिकट लगाकर संगीत का आयोजन करने वाले भी वही थे । इस प्रकार सम्भान्त लोगों को संगीत की ओर आकर्षित किया और आधुनिक संगीत प्रणाली का आरम्भ , गुरु शिष्य परम्परा के समानान्तर कर संगीत के उत्थान का श्रीगणेश किया ।
इन्होंने गीतों में श्रृंगार एवं वीभत्स रस हटाकर भक्ति रस को स्थान दिया और आधुनिक संगीत शिक्षा प्रणाली हेतु पाठ्यक्रम परीक्षाएं आदि निर्धारित की । गांधर्व महाविद्यालय की बम्बई , दिल्ली शाखा की स्थापना हुई । बड़ोदा म्यूजिक कॉलेज , मैरिस कॉलेज ऑफ म्यूजिक , लखनऊ , भातखण्डे संगीत महाविद्यालय , इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय , प्रयाग संगीत समिति , प्राचीन कला केन्द्र और आजाद भारत में विश्वविद्यालय की स्थापना तक संगीत शिक्षण का जोर पकड़ा । केन्द्र सरकार , राज्य सरकार ने विद्यालयों में प्राइमरी स्तर तक संगीत अनिवार्य भी किया और आगे की कक्षाओ में ऐच्छिक विषय के रूप में लागू किया ।
विष्णु नारायण भातखंडे, आचार्य वृहस्पति सरीखे संगीतज्ञों ने संगीत शास्त्र को सार्वजनिक करने का क्रान्तिकारी कार्य किया . आधुनिक संगीत शिक्षा में शास्त्र तया क्रियात्मक दोनो विधाओं का समावेश कर पुरातन संगीत पुस्तकों के अध्ययन की ओर शिष्यों को जाग्रत किया गया । पुरानी गुरु – शिष्य परम्परा के निर्वाह हेतु सरकार विभिन्न संगीत – नृत्य केन्द्र , संगीत नाटक अकादमी आदि स्थापित कर गुरुओं की नियुक्ति और शिष्यों का चयन कर संगीत कला हेतु छात्रवृत्तियों प्रदान कर रही है । इस प्रकार प्राचीन काल में जहाँ गुरु – शिष्य परम्परा मात्र ही थी , तो वर्तमान में गुरु – शिष्य एक आधुनिक संगीत शिक्षण प्रणाली दोनों ही निरन्तर सुयोग्य शिष्य एवं अन्तर्राष्ट्रीय कलाकार का सृजन कर रहे हैं ।
गुरु शिष्य परम्परा में व्याप्त खामियां ही इसकी जननी का प्रमाण वर्तमान में जब आवागमन , दूरदर्शन , रेडियो , केविल , टी . वी . साधन सुलभ हुए तो पाश्चात्य संगीत , नृत्य हमारी संस्कृति को गुलाम बनाता जा रहा है । ऐसे में आधुनिक संगीत शिक्षण के राजकीय एवं निजी केन्द्र ही भारतीय संगीत कला की रक्षक सिद्ध हो रहे हैं । सरकारी दूरसंचार माध्यम भी संगीत के अधिकाधिक कार्यक्रम प्रस्तुति करके भी इसके रक्षण का कार्य कर रहे हैं । संगीत – शिक्षा सभी शालाओं में अनिवार्य करना भी समय की माँग है । सभी कलाकार तो नहीं बन सकते , स्वर ही ईश्वर है , की भावना उनमें लाना अनिवार्य है तभी गंधर्व – वेद के साधकों की मेहनत रंग लाएगी ।
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण – सुप्रसिद्ध विद्वान हलटोरिश आईवो ने अपनी लोकप्रिय पुस्तक ‘ द हिस्ट्री ऑफ म्यूजिक ‘ में लिखा है सृष्टि का जब सृजन हुआ तब पुरुष और नारी के प्रथम मिलन – अभिसार पर जो स्वर मुखरित हुए वही संगीत बन गया । वे स्वर इतने मधुर एवं आकर्षणपूर्ण थे कि जिसको सुनकर कोई भी प्राणी आत्मविभोरित हो सकता था , क्योंकि वे स्वर मधुर क्षणों के विशाल गर्भ से प्रसूत हुए थे । इन्हीं स्वरों का आगे चलकर विकास हुआ । पाश्चात्य विद्वान प्राइड के मतानुसार संगीत का जन्म एक शिशु के समान मनोविज्ञान की आवश्यकतानुसार स्वयं सीख जाता है , उसी प्रकार संगीत का प्रादुर्भाव मानव में मनोविज्ञान के आधार पर स्वयं हुआ है । जैम्स लोग के मतानुसार भी पहले मनुष्य ने बोलना सीखा चलना – फिरना सीखा और फिर शनैः शनैः क्रियाशील हो जाने पर उसके अन्दर संगीत स्वतः उत्पन्न हुआ ।
ॐ – ‘ ओउम् ‘ – संगीत की उत्पत्ति
संगीत के जन्म का उत्स ‘ ओउम् / ॐ ‘ – कुछ विद्वानों का मत गब्द ऐकाक्षर होकर भी अ , उ , म इन तीन अक्षरों से निर्मित हुआ है । ये ऐकाक्षर इस अर्थ में कहा जाता है कि तीनों है कि संगीत का जन्म ओउम् शब्द के गर्भ से हुआ । ओउम् अक्षरी के संयोग से इसकी ध्वनि एक ही अक्षर के समान होती है , ओउम के तीनों अक्षरों अ , उ , और म तीन ताप.उधारक , पालन , रक्षण अर्थात् स्थिति शक्ति का प्रतीक शक्तियों के घोतक है । अ उत्पत्ति शक्ति द्योतक सृष्टिकर्ता विष्णु , म महेश का द्योतक है । तीनों शक्तियों का पुंज ही त्रिमूर्ति ‘ परमेश्वर है । ओउम वेद का वीज मन्त्र है । इसके विषय में मनु कहते है कि ऋग्वेद , सामवेद और यजुर्वेद से ‘ अ ‘ , ‘ उ ‘ , ‘ म ‘ तीन अक्षर लेकर प्रणव ओउम् बना है । श्रुति स्मृति के अनुसार ये प्रणव परमात्मा का अनुपम नाम है ।
भगवद्गीता और संगीत की उत्पत्ति
भगवद्गीता और संगीत का अटूट सम्बन्ध – इस काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना श्रीकृष्ण की भगवद्गीता है , यह विश्व का सुप्रसिद्ध काव्य है । भगवद् गीता महाभारत का ही एक अंग है । यह एक बहुत बड़े नाटक की एक घटना है । लेकिन उसकी अपनी एक अलग जगह है और वह अपने में सम्पूर्ण है । इस विशाल एवं महत्त्वपूर्ण काव्य के उस वक्त के संगीत पर गहरा प्रभाव पड़ा । यह दिव्य काव्य सब दर्शनों का निचोड़ है । इसमें ज्ञानयोग , भक्तियोग तथा कर्मयोग इन तीनों का समन्वय किया गया है , यद्यपि कर्म को प्रधान माना है निष्काम कर्म ही गीता का मुख्य उपदेश है । गीता के इस उपदेश का संगीत के उपकरणों पर गहरा प्रभाव पड़ा , क्योंकि जीवन के दोनों वातावरण एक ही व्यक्ति के द्वारा प्रतिपादित हुए थे । संगीत के निर्माता श्री कृष्ण ही गीता के रचयिता थे । अतएव उनकी मूल प्रवृत्तियों का प्रभाव संगीत पर भी वही रहा जो कि अर्जुन को उपदेश देते हुए था ।
मौर्य काल और संगीत
मौर्य काल में संगीत – चन्द्रगुप्त मौर्य स्वयं संगीत का बड़ा प्रेमी था . वह नित्य – प्रति अपने शाही महल में कलाकारों के नृत्य और गायन से मनोरंजन करता था । उसके यहाँ अनेक नर्तकियाँ एवं गायिकाएं रहती थीं , जिनको अपनी कला पर पूर्ण अधिकार होता था । मेगस्थनीज ने चन्द्रगुप्त मौर्य की संगीतप्रियता की बड़ी प्रशंसा की है । जो गायिका सुन्दर गाती थी और जो नर्तकी सुन्दर नृत्य का प्रदर्शन करती थी , उसको वह पुरस्कार भी देता था । इससे उसमें संगीत कला को विकसित करने का नवीन उत्साह पैदा होता था ।
संगीत और वर्तमान संस्कृति की भूमिका -18 वीं शताब्दी के एक विख्यात दार्शनिक ने जोर देकर कहा था – मनुष्य जन्म से स्वतन्त्र है , किन्तु हर क्षेत्र में वह बँधा है । विभिन्न दृष्टि कोण से मनुष्य जन्म से इतना मुक्त , स्वतन्त्र नहीं प्रतीत होता है , क्योंकि वह आनुवंशिकता और परिवेश के बंधनों के अन्तर्गत ही जन्म लेता है । आनुवंशिकता या वंश परम्परा के बंधन का अर्थ है कि मनुष्य वास्तव में पैतृक एवं पित्र्य सूत्रों के ‘ वण्डल ‘ के रूप जन्म लेता है , जिनसे उसके अवयव और अन्य आनुवंशिक वंदनाकृति निर्धारित होती है । ‘ परिवेश का बन्धन ‘ कहने का मेरा तात्पर्य यह है कि मनुष्य जिस समाज को जन्मसूत्र से अपनाता है वह उन सब से आसानी से बच नहीं सकता । भाषा , संगीत , और संस्कृति के अन्य पहलू उसके सामाजिक व्यवहार का प्रतिनिधित्व करते हैं । विशिष्ट भाषा , संगीत तथा इसी प्रकार की अन्य बातों से वह अन्य सामाजिक वर्गों के सदस्यों से प्रायः पृथक् हो सकता है । इस प्रबन्ध में मेरा मुख्य उद्देश्य संगीत और संस्कृति के बीच निकट सम्बन्धों पर बल देना है ।
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एक विद्वान का कथन है कि वह स्थान भारत ही है , जहाँ से आर्य लोग सम्पूर्ण विश्व में फैले । वास्तव में आर्य लोग भारत के मूल निवासी थे । इनका संगीत – ज्ञान अत्यन्त उत्कृष्ट था । राखीगढ़ी सिंधु सभ्यता में हुए शोध के मुताबिक यह साबित हो चुका है कि, दक्षिण एशिया के लोगों का DNA एक ही है। देश-विदेश के 30 वैज्ञानिकों की टीम ने माना कि हड़प्पा में रहने वाले बाहर से नहीं आए थे, ये यहीं के वाशिंदे थे। आर्यों ने ही वेदों तथा उपनिषदों की रचना की ।
आर्यों को संगीत से इतना प्रेम था , कि उन्होंने सामवेद को केवल गान करने के लिए ही बनाया था । साथ ही एक उपवेद की ( जिसका नाम ‘ गान्धर्ववेद ‘ था ) , रचना और कर ली । इसमें संगीत का ज्ञान हमें संहिताओं , ब्राह्मण ग्रन्यों , प्रतिसाख्यों , व्याकरण और पुराणादि के द्वारा प्राप्त होता है ।
संगीत की उत्पत्ति किस वेद से हुई ?
संगीत की उत्पत्ति सामवेद से मानी जाती है ।
संगीत की उत्पत्ति आरम्भ में वेदों के निर्माता ब्रह्मा जी द्वारा हुई । ब्रह्मा जी ने यह कला शिवजी को दी और शिव के द्वारा देवी सरस्वती जी को प्राप्त हुई । सरस्वती जी को इसलिए ‘ वीणा पुस्तक धारिणी ‘ कहकर संगीत और साहित्य की अधिष्ठात्री माना है । सरस्वती जी से संगीत कला का ज्ञान नारद जी को प्राप्त हुआ , नारद जी ने स्वर्ग के गन्धर्व , किन्नर एवं अप्सराओं को संगीत शिक्षा दी , वहाँ से भरत , नारद और हनुमान , प्रभूति ऋषि संगीत कला में पारंगत होकर भू – लोक पर संगीत कला के प्रचारार्थ अवतीर्ण हुए ।