हिन्दुस्तानी संगीत का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी कि मानव सभ्यता । इसका विकास क्रम वैदिक युग , जैन व बौद्ध काल से लेकर विभिन्न प्राचीन व मध्यकालीन राजवंशों तथा आधुनिक काल में देखने को मिलता है । यह विकास क्रम स्वतन्त्रता प्राप्ति से लेकर आज तक निरन्तर रूप से जारी है ।
विषय - सूची
1. वैदिक काल (प्राचीन काल ) में संगीत
प्राचीन काल में संगीत प्राचीनकालीन संगीत के अन्तर्गत वैदिक युग में संगीत से लेकर जैन , बौद्ध , मौर्य , कनिष्क गुप्त एवं हर्षवर्धन काल तक का संगीत आता है इसका विवरण निम्न प्रकार है ।
आगे 9 अध्यायों में हम विस्तार से हिन्दुस्तानी संगीत के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन करेंगे । तो Subscribe कर लें , और बने रहें सप्त स्वर ज्ञान के साथ संगीत के इस जानकारी भरे सफर में ।
हिन्दुस्तानी संगीत के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन ( 1/9 )
- वैदिक काल में संगीत- Music in Vaidik Kaal
- पौराणिक युग में संगीत – Pauranik yug me Sangeet
- उपनिषदों में संगीत – Upnishadon me Sangeet
- शिक्षा प्रतिसांख्यों में संगीत – Shiksha Pratisakhya Sangeet
- महाकाव्य काल में संगीत- mahakavya sangeet
- मध्यकालीन संगीत का इतिहास – Madhyakalin Sangeet
- मुगलकाल में संगीत कला- Mugal kaal Sangeet Kala
- दक्षिण भारतीय संगीत कला का इतिहास – Sangeet kala
- आधुनिक काल में संगीत – Music in Modern Period
वैदिक युग में संगीत
वैदिक काल में संगीत ऐतिहासिक दृष्टि से भारतीय संगीत का उद्गम वेदों से परिलक्षित होता है । वेद आर्य जाति के मूल ग्रन्थ थे , जिनमें विश्व का समस्त ज्ञान भण्डार है । वेदों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अत्यधिक मतभेद है , परन्तु सभी विद्वान् वेद को विश्व का आदि साहित्य मानते हैं । वैदिक युग भारत के सांस्कृतिक इतिहास में प्राचीनतम युग माना जाता है । वेदों का काल 1500 ई . पू . से 600 ई . पू . तक का माना जाता है । यद्यपि विद्वान् ऋग्वेद के रचना काल को लेकर एकमत नहीं है ।
प्राचीन आर्यों के अनुसार वेद साहित्य की इकाई है , जिसके अन्तर्गत मन्त्र भेद के कारण ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद , अथर्ववेद का पृथक् संहिता के रूप में निर्माण हुआ । सामवेद को ‘ संगीत का वेद ‘ कहा गया है । अतः वैदिक काल में सामाजिक दृष्टि से संगीत को उच्च मान्यता प्राप्त थी । ‘ ऋग्वेद ‘ प्राचीन ग्रन्थ माना जाता है और इस ग्रन्थ में संगीत सम्बन्धी पर्याप्त उल्लेख मिलते हैं ।
ऋग्वैदिक काल में संगीत
ऋग्वैदिक काल में संगीत इस काल में गीत , वाद्य तथा नृत्य तीनों दृष्टियों का पर्याप्त प्रचलन दृष्टिगोचर होता है । प्रत्येक परिवार में संगीत का उच्च गीत के लिए गीर , गातु , गाथा , गायत , गीति व साम शब्दों का प्रयोग स्थान तथा इसका आयोजन गृहलक्ष्मी करती किया जाता था ।
ऋग्वेद की रचनाएँ स्वरावलियों में निबद्ध होने के कारण ‘ स्तोत्र ‘ कहलाती थी । गीत प्रबन्धों को ‘ गाथा ‘ कहा जाता था , जो एक विशिष्ट तथा परम्परागत गीत के प्रकार हैं और गाथाओं का गायन धार्मिक तथा लौकिक समारोह में किया जाता था , इनको ‘ गायतिन ‘ कहा जाता था । गाथा के लिए ‘ साम ‘ नाम भी आता है , इन सामों का गायन कुछ विशिष्ट छन्दों के साथ किया जाता था ।
अन्त्येष्टि के समय पर भी साम का गायन किया जाता था । इस वेद की ऋचाएँ स्वरलिपि में निबद्ध होने के कारण स्तोम गुणगान कही जाती थीं । स्रोत की आवृत्ति पूर्णक गान स्तोम कही जाती थीं , जो तीनों ऋचाओं के समूह पर आधारित होती हैं ।
यजुर्वेद में संगीत
यजुर्वेद में संगीत यजुर्वेद में उन मन्त्रों का संकलन है , जिनका गायन यज्ञादि के अवसर पर कर्मकाण्ड के लिए होता था । यद्यपि संगीत के विकास की दृष्टि से यजुर्वेद का अधिक महत्त्व लक्षित नहीं होता तथापि प्राचीन संगीत से सम्बन्धित परिस्थिति जानने में यजुर्वेद कम सहायक भी नहीं है ।
यजुर्वेद के ब्राह्मण तथा आरण्यक संहिता से स्पष्ट है कि साम का गायन साम गायकों द्वारा ही होता था । यजुर्वेद में वर्णित सोम यज्ञ में साम गायक का सर्वप्रथम स्थान है । जिसमें चार गायक होते थे , जिनको क्रमशः होता , अर्ध्वय , उद्गाता तथा ब्रह्मा कहते थे । यज्ञ कार्यों का संचालन अर्ध्वयु नामक ऋत्विज के द्वारा किया जाता था । यज्ञों में उद्गाता प्रमुख गायक होता था तथा अन्य गौण प्रसंगों पर गायन का दायित्व प्रस्तुत , प्रतिहरता , उपगाता नामक सहयोगियों द्वारा किया जाता था ।
यजुर्वेद में मन्त्रों के अक्षरों की संख्या निश्चित होती थी । यह मन्त्र गद्यात्मक होते थे । साम गायक का सर्वप्रधान स्थान होता है । गायन के साथ वाद्यों का प्रयोग भी इस समय मिलता है , जिसमें वीणा , वाण , तूणव , दुन्दुभि , भूमि दुन्दुभि , शंख तथा तबला आदि शामिल हैं । अश्वमेध आदि यज्ञों में मनोरंजन के लिए गाया गान तथा वीणादि वाद्यों का वादन किया जाता था ।
अतः यजुर्वेद काल विशेष रूप से यज्ञादि का उत्कर्ष काल है , जिसमें आयों के यज्ञ सम्बन्धी क्रियाकलापों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है । इन यज्ञों में साम गान का अनिवार्य स्थान रहा है । साम उस समय का वैदिक संगीत था और गाथा नाराशंसी आदि लौकिक संगीत था , उस समय की महिलाएँ भी संगीत कला में निपुण होती थीं ।
अथर्ववेद में संगीत
अथर्ववेद में संगीत वेदों में अथर्ववेद का एक विशिष्ट स्थान है । अथर्व संज्ञा उन मन्त्रों के लिए है , जो सुखमूलक और मंगलकारी हैं । इन मन्त्रों का सम्बन्ध उन अभिचार मन्त्रों से है । जिनका प्रयोग जारण , मारण आदि कार्यों में किया जाता है । अथर्ववेद में सामवेद का पूर्ण गौरव गान है । अथर्व के अनुसार ऋक तथा साम दोनों यज्ञ कर्म के लिए ओज , बल , मांगल्य का सम्पादन करने वाले हैं । इन्हीं के द्वारा क्रियाकमों का विधान सम्पन्न होता है ।
साम गान की समृद्धि अथर्वकाल में हो चुकी थी एवं नानाविधि क्रियाकमों में उसका महत्त्वपूर्ण स्थान था । वाद्यों के अन्तर्गत आघाट , कर्करी तथा दुन्दुभि का उल्लेख अथर्व में स्थान – स्थान पर उपलब्ध है । गन्धर्व लोक इन वाद्यों की ध्वनि से सदा ही । अनुनादित होता रहता था । अथर्व में वर्णन है कि दुन्दुभि द्वारा शत्रुओं को परास् किया जा सकता है । दुन्दुभि की गर्जना वीरों के हृदय में पौरुष तथा शत्रुओं के हृदय में आतंक का संचार एक साथ ही करती है ।
अथर्ववेद के अनुसार , साम एवं कर्म के लिए ओज , बल तथा मंगल प्रदान करते हैं , अथर्ववेद के अनेक मन्त्रों में साम के पाँच विभाग – हिंकार , प्रस्ताव , गाथा , नाराशंसी , रैनी आदि लौकिक गीत प्रकारों का उल्लेख मिलता है , अथर्वकाल में वैवाहिक जीवन सुखद होने के लिए गन्धर्वो की प्रार्थना की जाती थी ।
सामवेद में संगीत
सामवेद में संगीत वेदों में सामवेद को ‘ संगीत का वेद माना गया है तथा संगीत कला है विकास की दृष्टि से सामवेद का एक विशिष्ट स्थान है । केवल यही एक ऐसा ग्रन्थ है , जिसने भारतीय संगीत के अनादि स्रोत का हृदयस्वरूप समक्ष प्रस्तुत किया है , गन्धर्व वेद को सामवेद का ही उपवेद माना गया है । संगीत का मूल स्रोत सामवेद है । सामवेद एक ऐसा वेद है , जिसके म यज्ञों में देवताओं की स्तुति करते पाए जाते थे । ऋचाओं के ही संगीतमय परायण से सम गान का प्रथम विकास ऋषियों द्वारा किया गया ।
सामवेद , ऋग्वेद की ऋचाओं का गेय रूप में परिवर्तित संग्रह है । ऋग्वेद की ऋचाओं का शास्त्रीय एवं परम्परागत तरीके से गायन हेतु उनको सामवेद नामक ग्रन्थ में एक स्थान पर संकलित किया गया । सामवेद के मुख्य रूप से दो भाग हैं – आर्चिक एवं गान । आर्चिक में केवल ऋग्वेद क ऋचाओं का संग्रह है । आर्चिक के दो भाग है – पूर्वाचिक व उत्तरार्चिका सामवेद का दूसरा भाग गान ग्रन्थ है । ऋषियों ने ऋग्वेद के आधार पर पहले गान बनाए फिर उन गानों का संग्रह करके अनेक ग्रन्थ बनाएँ ।
इन गान ग्रन्थों में साम का स्वरमय रूप विद्यमान है । ये चार गान ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं- ग्रामगेय गान , आरण्यक गान , ऊहगान एवं ऊह्मगान । सामवेद की 13 शाखाएँ मानी गई हैं ।
कालक्रम में विलीन हुई इन शाखाओं में से आज तीन शाखाएँ ही उपलब्ध हैं – राणायणी , कौथुमी और जैमिनीय । इन तीनों शाखाओं के गान अलग हैं ।
सामवेद की आर्चिक संहिता में आठ हजार मन्त्र थे और इनके गायन की संख्या 14820 थी ।
पहले सामगान में केवल तीन स्वर उदात्त , अनुदात्त और स्वरित प्रयोग होते थे । आगे चलकर एक – एक करके अन्य स्वरों की स्थापना होती गई और वैदिक काल में ही साम गान सात स्वरों में होने लगा । उदात्त – नि , ग , अनुदात्त – रे , घ , स्वरित – सा , म , प
आज भी संस्कृत विद्यालयों में वेदों की ऋचाओं और श्लोकों का पाठ और सामवेद गान उपरोक्त स्वर क्रम में ही देखा जा सकता है । साम गान में गेय छन्द होते थे ।
सामवेद के द्वारा संगीत को नियम और विधान से आबद्ध कर दिया गया । उस समय में इन छन्दों को एक विचित्र स्वर विन्यास के साथ गाने की रीति थी । साम गान के मुख्य तीन भाग होते थे प्रस्ताव , प्रतिहार और उद्गीत , इनके तीन उपांग – हिंकार , उपद्रव और निधान थे , समय परिवर्तनानुसार इन्हीं में से ध्रुपद के चार पद बने ।
साम गायन में तीन गायक होते हैं- प्रस्तोता , उद्गाता और प्रतिहर्ता । मुख्य गायक उद्गाता तथा शेष दो उसके सहयोगी होते हैं । सहयोगी गायक होऽऽऽ आदि मन्द ध्वनि तम्बूरे के रूप में ध्वनित करते रहते थे , जिसको आधार मानकर मुख्य गायक साम गान करता था ।
साम गान के प्रमुख भेद
साम गान के प्रमुख भेद साम गान के पाँच प्रमुख भेद होते हैं , जो निम्नलिखित हैं
- हिंकार या हंकार जिस तरह वर्तमान समय में गायक गान आरम्भ करने से पहले ‘ आ ‘ कहते हुए स्वर भरता है उसी तरह ‘ साम ‘ गायक ‘ हु ‘ का स्वर उच्चारण करते हैं ।
- प्रस्ताव गीत अथवा मन्त्र के आरम्भिक भाग को प्रस्ताव कहते हैं ।
- उद्गीत प्रस्ताव के पश्चात् उद्गीत गीत का मुख्य भाग होता है ।
- प्रतिहार उद्गीत के अन्तिम पद से प्रतिहर्ता गान को पकड़ता है । और प्रतिहार भाग में आता है ।
- निधन यह गीत का अन्तिम भाग होता है , जिसको प्रस्तोता , उद्गाता और प्रतिहर्ता तीनों एक साथ गाते हैं ।
साम गान में स्वर का विशेष महत्त्व था , साम के आरम्भ में ‘ ओउम ‘ स्वर से प्रारम्भ करने की परम्परा थी और साम गान का अन्त भी ओउम की ध्वनि से ही होता था शेष गायक इसी स्वर के साथ संगति करते थे ।
” वैदिक काल में संगीत” यह हिन्दुस्तानी संगीत के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन का पहला अध्याय है , आगे आने वाले अध्यायों के लिए बने रहें सप्त स्वर ज्ञान के साथ । धन्यवाद , हाँ इसे अपने मित्रों के साथ शेयर करना, साथ ही साथ सब्सक्राइब करना न भूलें ।