विषय - सूची
हिन्दुस्तानी संगीत के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन ( 5/9 )
- वैदिक काल में संगीत- Music in Vaidik Kaal
- पौराणिक युग में संगीत – Pauranik yug me Sangeet
- उपनिषदों में संगीत – Upnishadon me Sangeet
- शिक्षा प्रतिसांख्यों में संगीत – Shiksha Sangeet
- महाकाव्य काल में संगीत- mahakavya sangeet
- मध्यकालीन संगीत का इतिहास – Madhyakalin Sangeet
- मुगलकाल में संगीत कला- Mugal kaal Sangeet Kala
- दक्षिण भारतीय संगीत कला का इतिहास – Sangeet kala
- आधुनिक काल में संगीत – Music in Modern Period
महाकाव्य काल में संगीत
• महाकाव्य काल में संगीत- महाकाव्य काल भारत का एक गौरवमय काल रहा है । इस काल में विश्व में दो प्रसिद्ध महाकाव्यों की रचना हुई । रामायण तथा महाभारत , जो भारतवर्ष की अमूल्य धरोहर हैं । इस काल के संगीत को अलग – अलग सन्दर्भों में देखा जा सकता है , जिनका वर्णन निम्नलिखित है ।
महाभारत काल – Mahabharata Period
महाकाव्य महाभारत काल में संगीत – महाभारत काल में संगीत के प्रचुर उल्लेख मिलते हैं । महाभारत में संगीत की पूर्व प्रचलित तीनों धाराओं को देखा जा सकता है । गायन , वादन एवं नृत्य तीनों का ही उल्लेख इस समय में था , जिसके लिए गान्धर्व संज्ञा दी जाती थी । महाभारत में साम व गाथा गान का बहुत उल्लेख मिलता है जैसा इसके सन्दर्भ से स्पष्ट होता है कि साम गायन एवं गाथाओं का सम्बन्ध पूर्व की भाँति ब्राह्मणों से तो था ही , लेकिन विश्वासु इत्यादि गन्धर्वो के साथ भी था । ऋषियों के आश्रमों में पुरोहित एवं गान्धर्व लोग साम का गान करते थे ।
• गाथा का अर्थ राजा व यजमान की प्रशस्ति का गायन ही है । यहाँ इसी तरह के उल्लेख प्राप्त होते हैं । अतः राजाओं की प्रशस्ति का गायन गाथा गायन ही कहा जाता था । महाभारत काल में गायन का वादन एवं नृत्य होता है । गायन के लिए गीत संज्ञा बहुधा अनेक स्थलों पर प्रयुक्त की गई है । गायन सम्बन्धी कुछ शास्त्रीय शब्दों के भी संकेत महाभारत में मिलते हैं , जैसे – प्रणाम , लव , स्थान , मूर्च्छना तान , आलाप – ताल , सप्त स्वरों के नाम इत्यादि ।
• अतः यह कहा जा सकता है कि लौकिक संगीत उस काल में दिन – प्रतिदिन विकास कर रहा था । गेय प्रबन्धकों के अन्तर्गत गाथा , मंगलगीतों , स्तति आदि के व्यवसायी गायक भी थे , जो नट , सूत , बन्दी , मागध , वैतालिक आदि कहे जाते थे । षड्ज , मध्य एवं गन्धार ग्राम का प्रचलन इस समय में था ।
• चतुर्विध वाद्यों का उल्लेख महाभारत में मिलता है- वीणा , वेणु , मृदंग , पणव , शंख , दुन्दुभि , कांस्य , आनक , आडम्बर , झर्झरी आदि ताल के अन्तर्गत शम्या पाणिताल , समताल आदि का उल्लेख इस समय में मिलता है । भेरी , .शंख , दुन्दुभि , कांस्य , आनक , आडम्बर , झर्झरी आदि ताल के अन्तर्गत , शम्या , पाणिताल , समताल आदि का उल्लेख इस समय में मिलता है ।
महाकाव्य काल में संगीत और धार्मिक संगीत गायन
धार्मिक संगीत – • गायन-वादन के अतिरिक्त नृत्य का वर्णन भी स्वतन्त्र रूप में प्राप्त होता . है । अनेक प्रकार के नृत्यों के साथ इस समय रासलीला नृत्य इस समय की खोज है , जिसके अन्तर्गत श्रीकृष्ण गोपियों और ग्वालों के लीलाऐं किया करते थे । श्रीमद्भागवत गीता के गोपीगीत और रास पंचाध्यायी ने भारतीय संगीत को बहुत समृद्ध किया ।
• भगवान श्रीकृष्ण संगीत के महान पण्डित थे । श्रीकृष्ण के वंशीवादन से ऐसी मधुर स्वर लहरियाँ निकलती थी कि नर – नारी , पशु – पक्षी सभी मन्त्रमुग्ध हो उनके वंशी के स्वर की ओर खीचे चले आते थे । अर्जुन धनुविधा के साथ गायन , वादन में भी निपुण थे । अज्ञातवास के समय अर्जुन ने षठक बृहन्नला का रूप धारण कर राजा विराट की पुत्री उत्तरा को संगीत की शिक्षा दी थी । सभी प्रकार के उत्सवों में गीत , वादन एवं नृत्य का अनिवार्य रूप से प्रयोग होता था ।
• निष्कर्षतः संगीत को समाज में पर्याप्त सम्मानित स्थान प्राप्त था । साम गान की महत्ता इस समय अधिक थी , क्योंकि यह धार्मिक संगीत था । संगीत का प्रचार देवताओं , अप्सराओं , गन्धव तथा मनुष्यों में था । संगीत एवं संगीतकारों को समाज में प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था ।
रामायण काल – Ramayana Period
रामायण काल में संगीत -• आदि कवि वाल्मीकि द्वारा रचित महाकाव्य रामायण भारतीय संस्कृति का प्राचीन उत्कृष्ट महाकाव्य है । रामायण के अनेक श्लोकों से ऐसा ज्ञात होता है । कि उस समय संगीत के अन्तर्गत गायन , वादन तथा नृत्य तीनों का समावेश था । इस महाकाव्य में अनेक स्थलों पर संगीत तथा उसके विभिन्न वाद्यों लय , ताल , मात्रा अंगहार , अक्षर सम और संगीतमय दृश्यों का प्रचुर मात्रा में उल्लेख मिलता है ।
• इसके अतिरिक्त आतोद्य विधि , मूर्च्छना , जाति राग , कैशिक राग व ग्राम रागादि का भी पर्याप्त वर्णन मिलता है । रामायण में गायन के लिए गन्धर्व संज्ञा प्रचलित थी । संगीत के लिए रामायण में गन्धर्व संज्ञा तथा युद्ध संगीत के लिए युद्ध गन्धर्व संज्ञा मिलती है । गन्धर्व के अन्तर्गत स्वर , ताल एवं पद का समावेश किया गया है । गान के अन्तर्गत प्रयुक्त तत्व यथा स्वर के अन्तर्गत श्रुति मूर्च्छना , ग्राम इत्यादि का उल्लेख रामायण काल में मिलता है तथा ताल में प्रयुक्त तत्त्वों का उल्लेख किया गया है ।
• ऐसा माना जाता है कि संगीत का पूर्व विकसित स्वरूप तो भरत एवं परवर्ती आचार्यों के द्वारा प्राप्त होता है यद्यपि रामायण का संगीत भी उच्चकोटि के संगीत का आभास कराता है । रामायण काल में सामवेद का विधिवत् गान होता था , लेकिन इस काल में उतना अधिक प्रचार नहीं था , जितना वैदिक व सूत्र काल में था । दशरथ की अन्त्येष्टि के अवसर पर भी साम गायक ब्राह्मणों ने शास्त्रीय पद्धति से गान किया था । इसके अतिरिक्त उत्तर काण्ड में भी रावण के द्वारा साम स्रोतों के गायन से शंकर की स्तुति करते हुए ऐसा उल्लेख मिलता है
सामभिविविवैः स्तोत्रैः प्रणम्य स दशाननः ।।
• अतः साम गायन परम्परा का प्रचार इस बात को दृष्टिगोचर करता है कि प्राचीनकाल से ही जन – सामान्य में धार्मिक संगीत के प्रति रुचि थी । आज भी साम का गान विशिष्ट संस्कारों पर किया जाता है । वर्ण संगीत का उल्लेख हमें रामायण में ही प्राप्त होता है । रामायण का अनुरूप छन्द इसका सबसे प्रारम्भिक रूप है ।
• यह छन्द यमक तालयुक्त पद्य है , जिसमें चार समान पदो में सजे वीणा की लय के साथ गाया जाने वाला साम स्वर एवं अक्षर वाले मधुर स्वरा की सुन्दरता को देखा जाता है ।
• महाकाव्य रामायण काल के संगीत में स्वर , त्रिस्थान , मूर्च्छना , सप्तजातियों इत्यादि का वर्णन मिलता है तथा वाद्यों के चारों प्रकार इस समय में प्रचलित थे । तत् वाद्य में वीणा , विपंची , बल्लकी आदि तथा अवनद्ध वाद्य में ढोल सम्बन्धी वाद्य ; जैसे- भैरी , दुन्दुभि , मृदंग , पटह , मण्डूक , प्रणव , मुरज , वेलिका तथा सुधिर वाद्यों में वेणु शंख एवं घन वाद्य में करताल , मंजीरे इत्यादि का वर्णन मिलता है । नृत्य के अनेक उल्लेख रामायण में देखे जा सकते हैं । इस समय नृत्य , नृन्त और लास्य तीनों का वर्णन मिलता है ।
• रामायण काल में संगीत जीवन का अभिन्न अंग था । अयोध्या , लंका व किष्किन्धा आदि नगरी में संगीत सदैव ही गुंजायमान रहता था । जन्म – मरण , स्वागत , विदाई , राज्याभिषेक , पूजन इत्यादि सभी सुख – दुःख में मागध नामक जाति के लोग आख्यानों व वीरगाथाओं की रचना व गायन किया करते थे । रामायणकालीन संगीत में पूर्ण पवित्रता विद्यमान थी । समाज में कलाकारों , संगीतज्ञों , व्यावसायिक गायकों आदि को पूरा सम्मान एवं धन दिया जाता था । रामायण के अनेक प्रसंगों में संगीत का वर्णन मिलता है ।
• अतः यह कहना उचित होगा कि भारतीय संस्कृति के प्राचीन महाकाव्य भी संगीत की स्थिति के परिचायक हैं । संगीत के तीनों पद गायन , वादन एवं नृत्य का विकास इस समय में हुआ तथा संगीतज्ञों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था व संगीत का धार्मिक पक्ष अधिक प्रचार में था । इस समय लौकिक संगीत का प्राबल्य था ।
बौद्ध काल में संगीत
बौद्ध काल में संगीत बौद्ध वाङ्गमय द्वारा ईसवी पूर्व से लेकर ईसवी अनन्तर का संगीत सम्बन्धी अवलोकन प्राप्त होता है । बौद्ध साहित्य के अन्तर्गत पाली त्रिपिटकों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । जिस प्रकार वेद एवं उपनिषद् ब्राह्मण धर्म के पवित्र ग्रन्थ माने जाते हैं , उसी प्रकार बौद्ध धर्म के ग्रन्थ पाली त्रिपिटक माने जाते हैं ।
• संगीत की दृष्टि से पाली त्रिपिटकों में संगीत के लिए ‘ गान्धर्व ‘ , ‘ संगीत ‘ व ‘ शिल्प ‘ संज्ञा मिलती है तथा संगीत की तीनों विधाएँ गायन , वादन एवं नृत्य का सर्वत्र ही उल्लेख मिलता है । पाली त्रिपिटकों में दूसरे शब्दों में बौद्ध धर्म की हीनयान धारा में भिक्षुओं के लिए संगीत को सर्वदा निषिद्ध माना गया है ।
• भगवान बुद्ध भी संगीत का उपयोग नहीं करते थे । पाली त्रिपिटकों में गाथा गायन का उल्लेख मिलता है , जोकि तत्कालीन वैदिक गाथाओं की याद दिलाते हैं ।
• बौद्ध धर्म में ये गाथाएँ बुद्ध धर्म एवं संघ सम्बन्धी एवं अर्हत सम्बन्धी होती थीं । इससे स्पष्ट होता है कि वीणा वादन के साथ भी इनका गायन प्रचलित था । ये गाथाएँ इतनी प्रभावशाली होती थीं कि जिसने बुद्ध को पहले कभी नहीं देखा हो वह भी उनकी ओर आकर्षित हो जाए ।
संगीत के अन्तर्गत गीत , वादित , नच्च तथा अरत्खानम् आदि का उल्लेख मिलता है ।
• बुद्धचरित्र के अनुसार अन्तःपुरी में स्त्रियाँ संगीत में निपुण होती थीं तथा विभिन्न वाद्यों का वादन करती थीं । वेलुव पाण्डु नामक वीणा त्रिपिटिकों में अधिक प्रचलित थी तथा वीणाओं में वल्लकी विपंची महती वीणा , भ्रमरिका वीणा एवं एकादश वीणा इत्यादि का प्रचलन था ।
• अवनद्ध वाद्य में मृदंग पणव भेरी , मुरज डिण्ड्मि , दुन्दुभि , आडम्बर तथा मरु एवं मरुपटह का अधिक प्रचलन था । मरुपटह वाद्य का उल्लेख महावस्तु में ही पाया जाता है । यह पुष्कर वर्ग का वाद्य है , किन्तु इसका स्वरूप अज्ञात है । सुषिर वाद्यों के अन्तर्गत शंख , वेणु , तूणव , सुघोषक , नकुल इत्यादि उल्लेखित होते हैं ।
संगीत के अन्तर्गत ग्राम , मूर्च्छना तथा रागों के विषय में उल्लेख प्राप्त होते हैं । तत्कालीन सप्त स्वरों के अन्तर्गत सहर्ष्य , ऋषभ , गन्धार , धैवत , निषाद मध्यम तथा कौशिक स्वरों का उल्लेख लंकावरण सूत्र में आया है ।
• इस समय वैदिक के साथ लौकिक संगीत का अधिक प्रचार – प्रसार था । गायन के साथ नृत्य का प्रचार बाहुल्य था । गन्धर्व , नागाकुभण्ड आदि वर्गों के नृत्य एवं गायन का स्पष्ट वर्णन मिलता है , वादन भी नृत्य का सहायक होता था । नृत्य के ताण्डव व लास्य प्रकार भी ज्ञात होते हैं । समूह नृत्यों का भी प्रचार इस समय में था । संगीत जीवन में इतना घुल गया था कि बौद्ध भिक्षु को प्रकृति की वस्तुओं में भी संगीत की ध्वनि सुनाई पड़ती थी ।
• अतः इस युग में गौतम बुद्ध की छत्रछाया में शृंगारिक गीतों के स्थान पर आत्मा को ऊँचा उठाने वाले तथा जीव को स्फूर्तिपूर्ण बनाने वाले गीतों का सृजन अधिक हुआ था । संगीत का आध्यात्मिक पक्ष इस युग में अधिक सबल था ।
महाकाव्य काल में रामायण और महाभारत में संगीत की स्थिति जानने के बाद आगे बढ़ते हैं जानते हैं जैन धर्म के संगीत के बारे में ।
जैन धर्म में संगीत
जैन धर्म में संगीत बौद्ध काल के समान ही जैन काल में भी संगीत जनसामान्य के जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया था । महावीर स्वामी ने जैन धर्म का प्रचार किया । इस काल में भी वैदिक संगीत पूर्व कालों की तरह ही प्रचलित था । लौकिक संगीत के अन्तर्गत गाथा , आख्यान , कथाओं आदि का समावेश था । इस युग में भी संगीत कला को पूर्ण राजाश्रय प्राप्त रहा है । विभिन्न लोकोत्सवों पर गीत , वादन तथा नृत्यादि कार्यक्रमों का आयोजन होता था । इस समय वाद्य वृन्द का भी उल्लेख मिलता है ।
● जैन साहित्य में षड्जादि सप्त स्वर , तीन ग्राम , 21 मूर्च्छनाएँ , एकादश अलंकारों आदि का यथास्थान उल्लेख प्राप्त होता है । ठाणांग सूत्र में गीत के गुण एवं दोष , स्वरोत्पत्ति , स्वरों का प्राणियों की ध्वनि से तथा मानव स्वभाव से सम्बन्ध विषयों का विवरण है ।
• जैन ग्रन्थों में वाद्यों की लम्बी सूची प्राप्त होती है । चारों प्रकार के वाद्यों का वर्णन इस समय में मिलता है तथा अनेक नए वाद्यों का भी विवरण प्राप्त होता है । आमोद , भ्रामरी , विचकी , आलिंग इत्यादि ताल अथवा लय को संगीत का आवश्यक अंग माना जाता था । ताल देने वालों के वर्ग का यहाँ भी उदाहरण देखा जा सकता है ।
• संगीत को 72 कलाओं में स्थान दिया गया था तथा महिलाओं के 64 गुणों में भी इसका एक स्थान था । जिनत्व प्राप्ति के समय देवता स्वयं गायन , वादन एवं नृत्य करवाते थे , महावीर की स्तुति भी गीत वाद्यों के साथ होती थी । इस प्रकार संगीत का विपुल प्रचार इसके महत्त्व का आभास कराता है । संगीत का समाज के विभिन्न क्षेत्रों में प्रचार था । अतः कहा जा सकता है कि संगीत का दिनों – दिन विकास हो रहा था ।
• प्राचीनकाल से ही विभिन्न कथाओं और आख्यानों का मौखिक रूप से प्रचलन रहा है । कालान्तर में उन्हीं का संकलन पुराण वाङ्गमय में होता रहा है । मुख्य पुराणों की संख्या 19 है और सभी का रचनाकाल अलग – अलग है । इन पुराण कथाओं का प्रवचन कथक अथवा कथावाचक नामक विशिष्ट वर्ग किया करता था । यह प्रवचन संगीत एवं अभिनय से युक्त होता था । इन पुराणों में सृष्टि प्रलय , दान , वंश , व्रत , तीर्थ , साहित्य व संगीत आदि का वर्णन मिलता है ।
मौर्य काल में संगीत
मौर्य काल में संगीत मौर्य काल का समय लगभग 323 ई . पू . माना गया है , जिसमें सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त मौर्य , मौर्य वंशी राजा हुए , जो स्वयं संगीत प्रेमी थे । मौर्य काल में संगीत जीवन का अभिन्न अंग रहा है । चन्द्रगुप्त प्रतिदिन अपने महल मे संगीत का रसास्वादन करते थे तथा राजसभा में चारण , कुशीलव , तूर्यकार , मणिका आदि नियुक्त किए जाते थे । राजनीति के साथ सामाजिक रूप में भी संगीत व्याप्त था , लेकिन इस समय कुशीलव , नट , नायक , वादक आदि व्यावसायिक वर्ग को समाज में उच्च स्थान प्राप्त नहीं था ।
● आध्यात्मिकता से परे संगीत में विलासिता अधिक द्रष्टव्य होती थी । इस समय संगीत गृह तथा नाट्यशालाओं में विद्यमान था । शास्त्रीय संगीत का प्रचार इस समय कम था । जन सामान्य में लोकसंगीत अधिक प्रचलित था । संगीत के भाव पक्ष की अपेक्षा कला पक्ष अधिक विकसित हुआ । चन्द्रगु के पुत्र बिन्दुसार के समय भी संगीत की यही स्थिति रही तत्पश्चात् चन्द्रगुप्त के पौत्र अशोक के समय संगीत की स्थिति में सुधार हुआ ।
• अशोक के समय में पुनः संगीत में आध्यात्मिक भाव आ गया था तथा संगीत के द्वारा स्वस्थ मनोरंजन होता था । संगीतज्ञों की समाज में सम्माननीय स्थिति थी । सप्त त वीणा और संगीत के अन्य उपकरणों की प्रतिकृतियों से सुसज्जित उदयगिरि की गुफाओं के अर्द्धचित्र में तत्कालीन संगीत प्रियता का स्पष्ट पता चलता है ।
● मौर्य काल के बाद शुंग काल में पुष्यमित्र शुंग नामक राजा हुए थे । मौर्य काल के अन्तिम समय में अयोग्य शासकों के कारण कला और संस्कृति को जो उन्नति अशोक व चन्द्रगुप्त के समय में हुई थी वह अब धूमिल पड़ने लगी । थी , उसका पुनः उत्थान आरम्भ हुआ । तत्कालीन नाटकों में गान भी होता था । सामूहिक व एकल नृत्य मे स्त्री – पुरुष स्वतन्त्र रूप से भाग लेते थे । इस युग में प्रमुख रूप से ढफ , मृदंग , ढोलक , वंशी , वीणा , भृंग आदि वाद्यों का प्रयोग चित्रों द्वारा अधिक परिवर्तित होता है ।
कनिष्क काल में संगीत
कनिष्क काल में संगीत • 78 ई . में कनिष्क के गद्दी पर बैठने के साथ ही , संगीत के विकास की गति तीव्र हो गई । इसका कारण था कि कनिष्क स्वयं संगीत प्रेमी थे तथा संगीतज्ञों का सम्मान करते थे । वीणा का प्रचार इस काल में पुनः बढ़ गया था तथा विवाह आदि अवसरों पर भी गायन का क्रम चलता था । भाव नृत्य तथा कल्पना नृत्यों का अधिक प्रचलन था । इस प्रकार मौर्य काल में भारतीय संगीत की जो गति शिथिल हो गई थी , वह कनिष्क काल में आकर पुनः द्रुत हो गई ।
• इस काल में सम्पूर्ण भारत में संगीत की एक धारा थी , कर्नाटक एवं हिन्दुस्तानी जैसा भेद नहीं था । इस काल में भारतीय संगीत के आन्तरिक तथा बाह्य सौन्दर्य की प्रगति उच्च स्तर पर हुई । नाग जाति वादन , नृत्य आदि कलाओं में पारंगत थी ।
• ईसा से छठी – सातवीं शती तक अनेक राजाओं ने विभिन्न गुफाओं , स्तूपों आदि का निर्माण कराया , जोकि संगीत सम्बन्धी महत्त्व रखते हैं । इस समय वीणा वादन कोण से होता था । वाद्यों में ढोलक , तुरही , मृदंग आदि स्पष्ट लक्षित होते हैं ।
गुप्त काल में संगीत
गुप्त काल में संगीत • चन्द्रगुप्त प्रथम के समय में संगीत की कोई विशेष उन्नति नहीं हुई , लेकिन उनकी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि में कुछ परिवर्तन अवश्य किया गया , जिससे इस युग के संगीत में कनिष्क युग के संगीत से अधिक धार्मिक रूप परिवर्तितः हुआ । यह युग हिन्दू संस्कृति के जागरण का युग था । वीणा का प्रचलन इस युग में था । गुप्त काल के संगीत में एक सजीवता , प्रभावपूर्ण चेतना और एक प्रेरणात्मक रूप का निर्माण हुआ ।
• इस युग में भरत के पुत्र दत्तिल द्वारा लिखित दत्तिलम ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है । चन्द्रगुप्त के पश्चात् उनका पुत्र समुद्रगुप्त गद्दी पर बैठा । समुद्रगुप्त स्वयं एक महान् संगीतज्ञ और कुशल वीणा वादक था । इसी क उसकी रुचि संगीत में थी । राजदरबारों में संगीत उत्सवों का आयोजन था तथा सामान्य जनता भी इस शाही संगीत समारोह में भाग लेती थी । समुद्र गुप्त स्वयं कुशल वीणा वादक था । अतः इस युग में शास्त्रीय संग अधिक प्रचार हुआ ।
● ऐसा कहा जाता है कि इस युग में ऐसे गायक इस समय में बहुत उन्नति हुई । अपने गायन की अपूर्व शक्ति से पानी बरसा देते थे । अतः गायन कला की इस समय में बहुत उनत्ति हुई ।
• हिन्दुस्तानी संगीत के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन गायन साधना के द्वारा कलाकारों ने अपने संगीत में चामत्कारिक शक्तियाँ उत्पन्न कर ली थीं ।
• समुद्र गुप्त के समय में अनेक नाट्यशालाएँ थीं , इन्हें नाटक देखने का बहुत शौक था और इन नाटकों में नृत्य के साथ गायन भी होता था । नाटकों में पुरुष व स्त्रियाँ दोनों भाग लेते थे ।
• इनके समय में राग – रागनियों का अधिक प्रचार हुआ । इनके उपरान्त इनके पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय 376 ई . में गद्दी पर बैठा । जिसे चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नाम से भी जाना जाता है । इनके समय में ही सेहतार अर्थात् सितार के प्रचार का संकेत मिलता है । अतः इस समय में भारतीय संगीत का विदेशों में भी अधिक प्रचार हुआ । भारतीय संगीत से अरब वालों को बहुत प्रेम था और उनके जीवन पर भारतीय संगीत की गहरी छाप पड़ी थी ।
• इस काल को नाट्य युग का स्वर्णयुग कहा जाता है । सम्राट विक्रमादित्य के दरबार में ही महान् कवि एवं नाटककार कालिदास हुए । इन्होने कुमार सम्भव , मेघदूत , मालविकाग्निमित्र , रघुवंश , शकुन्तला इत्यादि अनुपम गीत काव्य लिखे । शकुन्तला विश्व साहित्य का अनुपम संगीतमय नाटक है । इसी समय में दूसरे महान् नाटककार भास भी हुए हैं । भास संस्कृत साहित्य के सर्वश्रेष्ठ नाटककार माने गए हैं । कालिदास ने स्वयं इनकी प्रशंसा की है ।
• भास का समय 300 ई . के लगभग माना जाता है । इनके 16 नाटक प्राप्त होते हैं तथा शूद्रक का मृच्छकटिकम् , विशाखदत्त का मुद्राराक्षस और भारती का किरातार्जुनीयम् नाटक संसार के अमर नाटकों में से एक है ।
• इस काल में केवल संगीत या नाटक की ही उन्नति नहीं हुई , बल्कि गणित , ज्योतिष , स्मृतियाँ इत्यादि पर भी अनेक उत्तम रचनाएँ मिलती है । अतः इस युग में संगीत की विशेष उन्नति रही । इस आधार पर इस काल को भारतीय संगीत का स्वर्ण युग भी कहा जा सकता है ।
हर्षवर्द्धन काल में संगीत
हर्षवर्द्धन काल में संगीत • 606 ई . में हर्षवर्द्धन का राज्यकाल माना जाता है । हर्ष स्वयं एक अच्छा गायक था , नृत्य व संगीत की स्थिति इस समय उन्नत अवस्था में थी । इस युग में भारतीय संगीत का जो चित्र दिखता है , वह नाटकों के माध्यम द्वारा वर्णित होता है ।
• हर्ष के नाटकों में संगीत प्रचुर मात्रा में मिलता है , जिससे उसके संगीत ज्ञान का पता चलता है । समय – समय पर वह संगीत समारोह का आयोजन करवाता था । साधारण जनता भी संगीत में रुचि रखती थी । हर्ष के ‘ नैषध चरित्र ‘ में अनेक वीणा प्रकारों का वर्णन मिलता है , जैसे – विपंची , वल्लकी , परिवादिनी आदि । हर्ष के दरबारी कवि बाणभट्ट ने संगीतमयी कविताएँ एवं गीत लिखे । . कादम्बरी में बाणभट्ट ने राग – रागिनी , षट्राग , गीत – संगीत गोष्ठियों का वर्णन किया है तथा वाद्यों में वीणा , वेणु , घर्घरी , मृदंग , शंख , नगाड़ों इत्यादि का वर्णन मिलता है । महान् संगीतज्ञ मतंग का वर्णन भी इसी युग में मिलता है ।
• छठी शताब्दी में मतंग लिखित वृहद्देशी ग्रन्थ मिलता है । मतंग ने भरत के अनुरूप ही चतुसाखा स्वर , श्रुति , मूर्च्छना , ग्राम इत्यादि का वर्णन किया है तथा मतंग के वृहदेशी में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि इसमें अनेक संगीतज्ञों के विचारों का संग्रह है , जिनकी कृतियाँ अप्राप्य है ; जैसे – कोहल , नन्दिकेशनर , कश्यप , तुबरु आदि । इसी समय का नारदकृत एक संगीत • सम्बन्धी ग्रन्थ संगीत मकरंद भी मिलता है । अतः संगीत का यह युग जनसामान्य में बहुत प्रचारित रहा ।
राजपूत काल में संगीत
राजपूत काल में संगीत राजपूत काल का समय 647 से 1000 ई . तक माना जाता है । राजपूतों की स्त्रियाँ संगीत से काफी प्रेम करती थीं । इस समय में घरानों की नींव पड़ गई । थी । इस समय के कलाकार भी संकीर्ण मनोवृत्ति रखते थे , वे एक – दूसरे से ईर्ष्या का भाव रखते थे तथा अपनी कला के प्रकाश को दूसरे तक नहीं पहुँचाना चाहते थे । अत : उनका ज्ञान उन तक ही सीमित होकर रह जाता था और इसी परम्परा को तोड़ने के लिए घरानों की नींव पड़ी । राजपूत काल में भक्ति संगीत की प्रबलता अधिक थी ।
• इस समय प्रसिद्ध नाटककार भवभूति हुए , जिन्होंने महावीर चरित्र , मालती माधव आदि ग्रन्थ लिखे । यह काल संगीतमय नाटकों का काल था । घण्टक , लोल्लट , आचार्य नाट्यशास्त्र के प्रसिद्ध व्याख्याता हुए । इसके कीर्तिघर , सुधाकलश तथा अभिनव गुप्त आदि महान् संगीताचार्यों ने संगीत को अपना अमूल्य योगदान दिया । भारत में मुस्लिम शासन की आधारशिला मुहम्मद गोरी ने चौहान वंश के प्रतापी राजा पृथ्वीराज को हराकर रखी । मुस्लिम शासन के प्रथम चरण में मुस्लिम शासकों का उद्देश्य भारतीय कला एवं संस्कृति का हनन कर अपनी संस्कृति का प्रचार करना था ।
• इसी कारण उन्होंने छोटे – छोटे प्रलोभनों द्वारा भारतीय लोगों की पवित्रता का पतन करना शुरू कर दिया , हर तरफ भोग विलासी प्रवृत्ति एवं शृंगारिक वातावरण व्याप्त हो गया था , जिससे भारतीय संगीत भी अछूता नहीं था । अपनी संकुचित मनोवृत्ति के कारण मुस्लिम राजाओं ने भारतीय साहित्य एवं संगीत के अमूल्य निधि रूपी ग्रन्थों को नष्ट करने का प्रयत्न किया ।
• भारतीय संगीतज्ञों का समाज में अनादर होने लगा था । मुस्लिम लोग संगीत को बुरा समझते थे । अतः प्राचीनकाल से चली आ रही भारतीय संगीत की पवित्रता को नष्ट करने का भरसक प्रयास मुस्लिम शासकों द्वारा किया गया , लेकिन फिर भी वह इसको नष्ट नहीं कर पाए ।
• 11 वीं शताब्दी के आरम्भ से ही भारतीय संगीत की दो धाराएँ विभक्त हो । गई – एक हिन्दुस्तानी या उत्तर भारतीय संगीत पद्धति तथा दूसरी कर्नाटक संगीत पद्धति । इसका मुख्य कारण था कि उत्तर भारत में मुस्लिम शासकों के आने से यहाँ की संस्कृति , सभ्यता व संगीत प्रभावित हुआ । इसी काल में महान् कवि जयदेव हुए । जयदेव ने गीत – गोविन्द की रचना की । यह सम्पूर्ण ग्रन्थ संगीतमय है और इसका हर पद संगीत से परिपूर्ण है । गीत – गोविन्द में प्रत्येक पद की समाप्ति पर संगीतज्ञ जयदेव ने राग व ताल का निर्देश दिया है ।
• इस काल में अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे गए , जिनमें कल्हण ने राजतरंगिणी तथा नारदीय शिक्षा ग्रन्थ भी मिलते हैं । 13 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में संगीतशास्त्री शारंगदेव द्वारा संगीत रत्नाकर की रचना हुई । यह ग्रन्थ उत्तरीय दक्षिणी भारतीय संगीत का आधार ग्रन्थ माना जाता है । इसमें गायन , वादन एवं नृत्य संगीत की तीनों विधाओं का विस्तृत वर्णन मिलता है ।
यह ” महाकाव्य काल में संगीत ” इस श्रृंखला का पांचवां अध्याय था । संपूर्ण जानकारी के लिए जुड़े रहें बाकी अध्यायों को भी पढ़ें ।
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