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शिक्षा प्रतिसांख्यों में संगीत – Shiksha Pratisakhya me Sangeet (4/9)

शिक्षा प्रतिसांख्यों में संगीत

हिन्दुस्तानी संगीत के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन ( 4/9 )

  1. वैदिक काल में संगीत- Music in Vaidik Kaal
  2. पौराणिक युग में संगीत – Pauranik yug me Sangeet
  3. उपनिषदों में संगीत – Upnishadon me Sangeet
  4. शिक्षा प्रतिसांख्यों में संगीत – Shiksha Sangeet
  5. महाकाव्य काल में संगीत- mahakavya sangeet
  6. मध्यकालीन संगीत का इतिहास – Madhyakalin Sangeet
  7. मुगलकाल में संगीत कला- Mugal kaal Sangeet Kala
  8. दक्षिण भारतीय संगीत कला का इतिहास – Sangeet kala
  9. आधुनिक काल में संगीत – Music in Modern Period

शिक्षा प्रतिसांख्यों में संगीत

शिक्षा प्रतिसांख्यों में संगीत वैदिक साहित्य की प्राचीन परम्परा के सुरक्षार्थ जिस वेदान्त साहित्य का सृजन हुआ , उनमें शिक्षा ग्रन्थ विशेष है । शिक्षा ग्रन्थों में छः विषयों का निरूपण प्राप्त होता है , उनमें निम्न वर्ण , स्वर , मात्रा , बल , साम , सन्तान ग्रन्थों का सम्बन्ध प्राचीन है । शिक्षा ग्रन्थों की चार शाखाएँ हैं- पाणिनि , याज्ञवल्क्य , नारद संहिता एवं मानविकी । जो क्रमशः ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद और अथर्ववेद से सम्बन्धित हैं ।

वर्णोच्चार के प्रमुख रूप से तीन स्थान माने गए हैं उर , कण्ठ , शिरास और इन्हीं तीनों स्थानों से उद्भूत होने वाले स्वर ‘ सवन ‘ हैं । उर से उत्पन्न स्वर मन्द है , कण्ठ से उत्पन्न स्वर मध्य है और शिरास से उत्पन्न स्वर तार है । प्राचीन वैदिक परम्परा के अनुसार तीन सवन माने गए हैं- प्रातः सवन , मध्याह्न सवन , और सायं सवन ।

शिक्षा प्रतिसांख्य का अर्थ या सम्बन्ध ऐसे ग्रन्थ से है जिसमें वेदों के किसी शाखा के पद, संहिता, स्वर , संयुक्त वर्णों के उच्चारण आदि पर निर्णय लिया गया हो या विचार किया गया हो ।

नारदीय शिक्षा में स्वर , ग्राम , राग , तानें आदि का विवेचन है । इनके अनुसार स्वर मण्डल में 7 स्वर , 3 ग्राम व 21 मूर्च्छनाएँ हैं । इनमें स्वर , ग्राम व ताल वाद्य का विशद् विवेचन है । नारदीय शिक्षा की तीन खण्डिका में गान गुणों व दोषों का विवेचन पाया जाता है । नारद के अनुसार , अलग – अलग स्वर अलग – अलग जीवों को प्रसन्न करते हैं ; जैसे – षड्ज से देव , गन्धार से पितृ लोग प्रसन्न होते हैं ।

नारदीय शिक्षा की छठी खण्डिका में ग्राम के अन्तर्गत दो प्रकार की वीणाओं का प्रयोग बताया गया है तथा साम का गायन मात्र वीणा के द्वारा ही किया जाता है । नारदीय शिक्षा में श्रुति प्रकरण के लिए एक अध्याय है , जिसमें वर्णन है । अतः शिक्षा ग्रन्थों में संगीत की दृष्टि से नारदीय शिक्षा का बहुत महत्त्व है । साम वेद के पठन तथा गायन के विधि – विधान का वर्णन इसी ग्रन्थ में प्राप्त होता है ।

पाणिनि का समय 300 ई . पू . के लगभग माना जाता है । पाणिनि कृत अष्टाध्यायी मूल रूप से संस्कृत व्याकरण का ग्रन्थ है , परन्तु फिर भी इसमें तत्कालीन संगीत के विषय में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है । अष्टाध्यायी में संगीत के तीनों अंगों – गायन , वादन व नृत्य का उल्लेख है । पाणिनि ने संगीत के लिए ‘ शिल्प ‘ संज्ञा का प्रयोग किया है ।

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वृन्द वादन का भी यत्र – तत्र उल्लेख मिलता है । कण्ठ संगीत करने वालों के लिए गायक या गायन तथा स्त्री गायिका के लिए ‘ गायनी ’ संज्ञा है । नृत्यकर्ता के लिए नर्तक तथा संगतकर्ता को परिवादन कहा गया है । सहवादन के लिए तुर्य संज्ञा तथा प्रत्येक सदस्य को तूर्यांग संज्ञा दी गई है वाद्यों के अन्तर्गत वीणा , दुर्दर , मड्डूक , झर्झर नाडि आदि का उल्लेख मिलता हाथ से गीत एवं ताल देने की विधि का भी वर्णन है , इसके लिए पणिधा तथा तालघ संज्ञा का प्रयोग हुआ है ।

इस समय गन्धार ग्राम तथा संगीत के सप्त स्वरो का वर्णन मिलता है । संगीत का प्रयोग पूर्णतः विधि – विधानपूर्वक होता था । संगीत को मोक्ष का साधन माना जाता था । धार्मिक व शास्त्रीय संगीत के साथ – साथ लौकिक संगीत का भी विकास हो रहा था । इस समय अनेक प्रकार के सांगीतिक उत्सवों समाज में प्रचलन था – जल – क्रीड़ा , उद्यान क्रीड़ा , पुष्प चयन , उत्सव आदि अष्टाध्यायी में सम्मद एवं प्रमद नामक संगीत से परिपूर्ण उत्सवों का वर्णन है ।

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याज्ञवल्क्य स्मृति ग्रन्थ में नारदोपासना की विलक्षण महिमा बताई गई है । उनका कहना है कि श्रुति , जाति , ताल , वीणा आदि के तत्त्वों को निरन्तर अनुसन्धान करने वाला व्यक्ति एकचित होकर परम पद को प्राप्त होता है । इस प्रकार शिक्षा एवं प्रतिशाख्य ग्रन्थ संगीत के महत्त्वपूर्ण शास्त्रीय पक्षों की सूचना प्रदान करते हैं तथा कुछ संगीत से सम्बन्धित वाद्यों का भी उल्लेख मिलता है ।

अतः इस समय के संगीत का विकसित रूप दृष्टिगोचर होता है । संगीत का समाज में प्रचार इतना अधिक बढ़ गया था कि व्याकरण शास्त्री ने भी इसका वर्णन अपने ग्रन्थ में यथास्थान किया है । इस काल के संगीत का शास्त्रीय पक्ष सबल था जिसका स्वरूप आभास हमें शिक्षा एवं प्रतिशाख्य ग्रन्थों में होता है । अत : संगीत के विकास की दृष्टि से यह काल अति महत्त्वपूर्ण समझा जा सकता है ।

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” शिक्षा प्रतिसांख्यों में संगीत ” यह हिन्दुस्तानी संगीत के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन का 4था अध्याय है , आगे आने वाले अध्यायों के लिए बने रहें सप्त स्वर ज्ञान के साथ । धन्यवाद , हाँ इसे अपने मित्रों के साथ शेयर करना, साथ ही साथ सब्सक्राइब करना न भूलें ।

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