Site icon सप्त स्वर ज्ञान

माण्डूकी शिक्षा नारदीय शिक्षा- Manduki Shiksha , Nardiya Shiksha

माण्डूकी शिक्षा नारदीय शिक्षा

माण्डूकी शिक्षा नारदीय शिक्षा – माण्डूकी शिक्षा अथर्ववेद की है । यह ऋषि मण्डूक द्वारा प्रतिपादित हुई है । मण्डूक ऋषि कौन थे ? अष्टाध्यायी का एक सूत्र है- ” ढक् च मण्डूकात् ” ४.१.११ ९ । इस सूत्र में मण्डूक ऋषि का उल्लेख है , इससे सिद्ध होता है कि मण्डूक २०० भारतीय संगीत का इतिहास पाणिनि से पहले के थे । पाणिनि का काल प्रायः ईसा पूर्व ५०० वर्ष माना जाता है । मण्डूक इनसे लगभग १०० वर्ष पहले रहे होंगे , जभी मण्डूकेय , माण्डूक , माण्डूकि इत्यादि शब्दों को सिद्ध करने के लिए पाणिनि को एक सूत्र की रचना करनी पड़ी ।

ऐतरेय आरण्यक ३.१.५ में यह वाक्य आता है- ” इति ह स्माह ह्रस्वो माण्डूकेयः ” । ऋक् प्रातिशाख्य में भी ‘ माण्डूकेय ‘ शब्द आता है । माण्डूकेय का अर्थ है ‘ मण्डूक के वंश वाले ‘ । अब प्रश्न होता है कि क्या माण्डूकीशिक्षा पाणिनि से पूर्व के मण्डूक द्वारा रचित है , अथवा पाणिनि के बाद मण्डूक नाम का कोई और ऋषि हुआ जिसके द्वारा यह प्रणीत हुई अथवा मण्डूक के सम्प्रदाय में से किसी आचार्य ने सम्प्रदाय के कुछ बिखरे उपदेशों को श्लोकबद्ध किया ।

माण्डूकी शिक्षा

ऐसा जान पड़ता है कि मूलत : मण्डूक की कोई शिक्षा रही होगी किन्तु मूल शिक्षा को लोग भूलने लग गये होंगे । अत : किसी माण्डूकेय ने बचे – बचाये उपदेशों को श्लोकबद्ध किया होगा जो कि आज हमें ‘ माण्डूकी शिक्षा ‘ के नाम से प्राप्त है । इस कल्पना का कारण यह है कि इस शिक्षा ने सामवेद के स्वरों का नाम लौकिक स्वरों में गिनाया है । अँगुलियों पर जो स्वरों का निर्देश किया है उनमें भी केवल एक ‘ क्रुष्ट ‘ स्वर सामवेद का है । शेष सभी स्वरों के नाम लौकिक हैं ।

वैसे शिक्षा का काल प्रातिशाख्य से पहले का है , किन्तु प्राचीन शिक्षा – ग्रन्थ केवल आपिशलि , पाणिनि और याज्ञवल्क्य के ही मिलते हैं । अन्य शिक्षा – ग्रन्थ या तो बाद में बने या बाद में प्राचीन उपदेशों का उनमें संग्रह हुआ । माण्डूकीशिक्षा बाद की ही जान पड़ती है । इस कल्पना की पुष्टि माण्डूकी शिक्षा के निम्नलिखित श्लोक से भी होती है प्रथमावन्तिमौ चैव वर्तन्ते छन्दसि स्वराः । त्रयो मध्या निवर्तन्ते मण्डूकस्य मतं यथा ॥३ ॥

” मण्डूकस्य मतं यथा ” -अर्थात् ‘ जैसे मण्डूक का मत है ‘ यह सम्भवतः मण्डूक के किसी अनुयायी ने लिखा होगा । अत : यह बाद का ही एक संग्रह – ग्रन्थ जान पड़ता है । माण्डूकीशिक्षा में वेद की पाठ – सम्बन्धी बातें पर्याप्त रूप में दी हैं , गान सम्बन्धी बातें बहुत कम हैं । इसका कारण यही जान पड़ता है कि यह अथर्ववेदी शिक्षा है जिसका केवल पाठ होता था , गान नहीं । इसमें निम्नलिखित गान – सम्बन्धी बातें मिलती हैं । पृष्ठ २ पर लिखा है सप्तस्वरास्तु गीयन्ते सामभि : सामगैर्बुधैः । चत्वार एवं छन्दोभ्यस्त्रयस्तत्र विवर्जिताः ॥७ ॥  इसका अर्थ यह है कि साम गाने वाले सात स्वरों से गाते हैं । छन्दस् ( वेदों ) में से चार ही स्वर आते हैं , वहाँ तीन स्वर विवर्जित हैं । साम पहले ३-४ स्वर से गाया जाता था , बाद में सातों स्वरों का प्रयोग होने लगा । उसमें भी थोड़े ही ऐसे मन्त्र हैं जिनमें सातों स्वरों का प्रयोग हुआ हो । मण्डूक इसी बात का उल्लेख कर रहे हैं अथवा इससे उनका कोई और अभिप्राय नहीं है , यह स्पष्ट नहीं है ।

सामवेद के स्वरों का उन्होंने लौकिक स्वरों की संज्ञाओं में वर्णन किया है षड्जर्षभगान्धारो मध्यमः पंचमस्तथा । धैवतश्व निषादश्च स्वराः सप्तेह सामसु ॥८ ॥ ऋक्प्रातिशाख्य की तरह इसमें भी यह बतलाया है कि अभ्यास के लिए द्रुत वृत्ति , प्रयोग के लिए मध्य वृत्ति और उपदेश के लिए विलम्बित वृत्ति का उपयोग करना चाहिए । लय के अर्थ में ‘ वृत्ति ‘ वैदिक शब्द है । इसमें स्वरों की पहिचान के लिए पक्षियों की आवाज़ से सहायता ली गयी षड्जे वदति मयूरो गावो रम्भन्ति चर्षभे । अजा वदति गान्धारे क्रौञ्चनादस्तु मध्यमे॥९ ॥ पुष्पसाधारणे काले कोकिल : पंचमे स्वरे । अश्वस्तु धैवते प्राह कुंजरस्तु निषादवान् ॥१० ॥ मोर षड्ज में बोलता हैगौ ऋषभ में रम्भाती हैबकरी गान्धार में बोलती हैक्रौंच पक्षी मध्यम में बोलता हैबसंत में कोयल पंचम स्वर में बोलती हैघोड़ा धैवत में बोलता है और हाथी निषाद में । इस पर हम आगे नारदीयशिक्षा पर लिखते समय विचार करेंगे ।

Advertisement

नारदीय शिक्षा

स्वरों की उत्पत्ति का स्थान इस प्रकार बतलाया है कण्ठादुत्तिष्ठते षड्ज ऋषभः शिरसस्तथा । नासिकायास्तु गान्धार उरसो मध्यमस्तथा ॥११ ॥ उर : शिरोभ्यां कण्ठाच्च पंचमः स्वर उच्यते । धैवतश्च ललाटाद्वै निषादः सर्वरूपवान् ॥१२ ॥ ( लाहौर सं ० ) नारदीयशिक्षा में भी इसी प्रकार स्वरों की उत्पत्ति का स्थान बतलाया गया है । इस पर हम वहीं विचार करेंगे । इसमें स्वरों का वर्ण भी दिया है पद्मपत्रप्रभः षड्ज ऋषभः शुकपिंजरः । कनकाभस्तु गान्धारो मध्यमः कुन्दसप्रभः ॥ पंचमस्तु भवेत्कृष्णः पीतवर्णस्तु धैवतः । निषादः सर्ववर्णाभः इत्येते स्वरवर्णकाः ॥

गात्रवीणा – हाथ की क्रिया

यह बात नारदीय शिक्षा में भी आई है । उस पर लिखते समय हम इस पर विचार करेंगे । इसमें स्वरोच्चार के साथ हस्त के प्रयोग पर पर्याप्त बल दिया गया है यथा वाणी तथा पाणी रिक्तं तु परिवर्जयेत् । यत्रैव तु स्थिता वाणी पाणिस्तत्रैव धार्यते ॥ स्वरश्चैव तु हस्तश्च द्वावेतौ युगपद् भवेत् । हस्ताद् भ्रष्टः स्वराद् भ्रष्टो न वेदफलमश्नुते ॥ अर्थात् जैसा स्वर का उच्चार हो , वैसे ही हाथ की भी क्रिया होनी चाहिए । केवल स्वर का उच्चार वर्जित है । स्वर और हाथ दोनों एक साथ चलना चाहिए । जो हाथ की क्रिया में गलती करता है , वह स्वर में भी ग़लती करता है और वेद के फल को प्राप्त नहीं कर सकता । वेद के उदात्त , अनुदात्त और स्वरित सहित सस्वर पाठ में हस्तचालन होता है और सामगान में भी हाथ की रेखाओं से काम लिया जाता है । इस कार्य के लिए हाथ को गात्रवीणा कहते हैं । पीछे सामगान के वर्णन में हम यह दिखला चुके हैं कि उँगलियों की रेखाओं पर साम के स्वर किस प्रकार दिखलाये जाते हैं ।

Advertisement
Advertisement

माण्डूकी शिक्षा में जो गात्रवीणा का वर्णन है वह अशुद्ध है । सम्भवतः यह पाठ भ्रष्ट है । श्री भगवद्दत द्वारा प्रकाशित लाहौर संस्करण में उसका वर्णन इस प्रकार बाह्यांगुष्ठं तु क्रुष्टं स्यादंगुले मध्यमः स्वरः । प्रादेशिन्यां तु गान्धारो मध्यमायां तु पंचमः ॥१॥१ अनामिकायां तु पड्जस्तु कनिष्ठायां तु धैवतः । तस्याधस्तात्तु योऽन्यः स्यानिषाद इति तं विदुः ॥२॥३ अंगूठे के बाहर क्रुष्ट स्वर होता है । अँगूठे में मध्यम स्वर होता है । अंगूठे के बाद वाली उँगली पर गान्धार स्वर होता है , बीच वाली अँगुली पर पंचम स्वर होता है । अनामिका पर षड्ज स्वर होता है , कनिष्ठ अँगुली पर धैवत स्वर व्यक्त किया जाता है और उसके नीचे निषाद स्वर व्यक्त किया जाता है ।

Advertisement

यह नारदीयशिक्षा के वर्णन से मिलता है । इसमें भी नारदीयशिक्षा के समान धैवत और निषाद स्वर का विपर्यय है । इस विपर्यय का हम पीछे सामगान के साथ विवेचन कर चुके हैं । ऊपर जो माण्डूकी शिक्षा के अनुसार गात्रवीणा का वर्णन है. वैदिक – काल १०३ वह भी अवरोही क्रम से है । अत : गान्धार के बाद बीच वाली ( मध्यमा ) अँगुली पर ऋषभ का निर्देश करना चाहिए , न कि पंचम का । यह पाठ की अशुद्धि है ।

माण्डूकी शिक्षा के अतिरिक्त और कई शिक्षा – ग्रन्थ हैं , उनमें संगीत का विषय नहीं के बराबर है । संगीत – सम्बन्धी विषयों का सबसे अधिक विवेचन नारदीय शिक्षा में हुआ है ।

Advertisement

सुगम संगीत का अर्थ, परिचय और महत्व Sugam Sangeet, Lokgeet

माण्डूकी शिक्षा नारदीय शिक्षा के इस अध्याय में बस इतना ही ।

सप्त स्वर ज्ञान ” से जुड़ने के लिए आपका दिल से धन्यवाद ।

Advertisement
Advertisement
Share the Knowledge
Exit mobile version