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लोकसंगीत और शास्त्रीय संगीत का पारस्परिक सम्बन्ध – Shastriya & Loksangeet

लोकसंगीत और शास्त्रीय संगीत

लोकसंगीत और शास्त्रीय संगीत का पारस्परिक सम्बन्ध ( उत्पत्ति ) – लोकसंगीत आदिकाल से ही जनजीवन का अभिन्न अंग रहा है । लोकसंगीत प्रकृति की अनूठी देन है , फलस्वरूप यह प्रकृति के सन्निकट है । आदिमानव ने शताब्दियों तक प्रकृति को अति निकटता से देखा है , प्राकृतिक परिस्थितियों के अनुरूप अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करता रहा है । जीवन की अनेक विसंगतियों का अनुभव अनजाने में ही करता रहा है ।

आदिमानव और प्राकृतिक संगीत ( लोकसंगीत और शास्त्रीय संगीत )

प्राकृतिक सौन्दर्य ने आदि मानव के भीतर जिज्ञासा उत्पन्न की फलस्वरूप उसे रंजकता की अनुभूति हुई । ज्ञानेन्द्रियां जाग्रत हुईं और सौंदर्यबोध की कल्पना की मन में उत्पत्ति हुई । आदिमानव पशु – पक्षी , कीड़े – मकोड़े आदि के स्वर से परिचित हुआ , अनुकरण की प्रवृत्ति जाग्रत हुई और उनके स्वर से अपने स्वर को मिलाने का प्रयास करने लगा । उनकी उड़ान , उनकी चाल तथा गति का अनुकरण करने लगा । पवनवेग से झूमती , थिरकती हुई डालियों को देखकर स्वयं भी झूमने और थिरकने लगा ।

इसी झूमने , थिरकने आदि से उसे लय और ताल की सुन्दर अनुभूति हुई । नदियों और झरनों की कल – कल ध्वनि से उसके होठों में बोल , पैरों में थिरकन और शरीर में लचक प्रस्फुटित हुई । वह बुदबुदाने लगा , कुछ गाने लगा, बजाने लगा एवं विभिन्न गतिशील अंगों का संचालन करने लगा ।

हमारे पूर्वज और संगीत

अंतर और समानता

शास्त्रीय संगीत और लोकसंगीत में अंतर और समानता क्या है?

शास्त्रीय संगीत और लोकसंगीत एक वृक्ष की दो शाखाएँ हैं । संगीत के इन दोनों प्रकारों की विकसित दिशाएँ स्वतंत्र हैं तथा दोनों ही प्रौढ़ संगीत – शैलियों के दो विकसित , स्वरूप हैं । शास्त्रीय संगीत के प्रेरणा – स्रोत व्यक्ति एवं शास्त्र हैं , और शास्त्र के नियमों में बँधा हुआ शास्त्रीय संगीत स्वतंत्रतापूर्वक विचरने का अधिकारी नहीं है ।
लोकसंगीत का प्रेरणा – स्रोत जन – मानस है । उसका विकास और संचरण – क्षेत्र अधिक विस्तृत है । शास्त्रीय संगीत के प्रयोग और परीक्षण के लिए शास्त्र – ज्ञान की आवश्यकता है तथा विशिष्ट अभ्यास – क्रम से गुजरने की जरूरत है , परन्तु लोकसंगीत के प्रयोग के लिए किसी अभ्यास तथा ज्ञान की आवश्यकता नहीं है ।

शास्त्रीय संगीत वैयक्तिक साधना का प्रतीक है तथा लोकसंगीत सामुदायिक साधना का । संगीत – रचनाएँ जब प्रौढ़ता को प्राप्त होती हैं, तभी उन पर शास्त्र बनते हैं । पहले रचनाएँ होती हैं , उनमें अनेक वाद विवाद, प्रकार, उपप्रकार , क्रिया – प्रक्रियाएँ चलती हैं, तब शास्त्रों का आधार लिया जाता है । अनिबद्ध रचनाओं को निवद्ध करने के लिए शास्त्र दिशा – निर्देश करता है । प्रारंभ में शास्त्र सरल, सुगम तथा संक्षिप्त होता है, बाद में रचना – क्रम के विस्तार के साथ वह भी पेचीदा होने लगता है । अनेक नियम – उपनियम, धारा – उपधाराओं की सृष्टि होती है ।

शास्त्रीय संगीत यदि स्वर प्रधान होता है तो लोकसंगीत शब्द प्रधान होता है । लोकसंगीत का स्वरूप सहज , स्वच्छन्द एवं लयगर्भित होता है , शास्त्रीय संगीत जटिल एवं शास्त्रोक्त होता है , किन्तु सांगीतिक तत्वों के आधार पर दोनों में पारस्परिक सम्बन्ध की अनुभूति विद्यमान है ।

लोकधुनों में शास्त्रोक्त रागें छुपी हुई हैं । शास्त्रीय नृत्यों में लोक तत्वों का व्यापक प्रभाव है । शास्त्रीय पद्धति से गाए जाने वाले अनेक गीतों में लोक बोली के शब्द होते हैं , ऐसे ही शब्द लोकगीतों के आधार स्तम्भ होते हैं । लोकसंगीत में स्वर व ताल रचना का सीधा महत्व नहीं होता है , किन्तु रचनाकार शास्त्रीय संगीत की दृष्टि से रचना की युक्ति का निर्माण कर लेता है , जिससे दोनों का पारस्परिक सम्बन्य उजागर होता है ।
तबला शास्त्रीय संगीत का प्रधान वाद्य है , किन्तु लोक संगीतज्ञ भी इसका उपयोग पूर्ण मनोयोग से करते हैं जो शास्त्रीय संगीत और लोकसंगीत के पारस्परिक सम्बन्ध का परिचायक है ।

शास्त्रीय संगीत में कलात्मकता है लोक संगीत की कला में सर्वग्राहिता है । दोनों ही पारस्परिकता के मुकाम हैं , क्योंकि दोनों की सांगीतिक विशेषता का अपना महत्व है । आभव के आधार पर पाया गया है कि छत्तीसगढ़ी पंडवानी में लोकपक्ष की प्रधानता तो है, किन्तु कला पक्ष शास्त्र आधारित पाया जाता है । पंडवानी गायकी में लोकधुनों की मात्राओं में बंधकर शास्त्रीयता का रूप प्रदान करने की कोशिश की जाती है । झाडूराम देवांगन के पंडवानी गायन में इस तरह की पारस्परिकता का अनुभव शास्त्रीय संगीत के मनीषियों ने बखूबी परखा है । उनका कहना है कि झाराम देवांगन मात्राओं का प्रयोग ठीक उसी प्रकार करते हैं, जिस तरह पक्की गायकी में प्रयोग होता है ।
झाडूराम देवांगन शास्त्रीय संगीतज्ञ नहीं हैं, फिर भी अनजाने में वे शास्त्रीय पद्धति का उपयोग पंडवानी गायन में यत्र – तत्र कर लेते हैं, यही लोकसंगीत और शास्त्रीय संगीत का पारस्परिक सम्बन्ध है।
लोकसंगीत में स्वर एवं लय रचना की प्रधानता नहीं होती है , किंतु रचना करने योग्य परिस्थिति अवश्य होती है । तभी तो शास्त्रीय संगीत के ज्ञाता किसी भी लोकगीत की स्वर एवं लय रचना ( नाटेशन्स ) करने में सफल हो जाते हैं । यह लोकसंगीत और शास्त्रीय संगीत का आन्तरिक पारस्परिक सम्बन्ध है ।

लोकसंगीत के अंग

लोकसंगीत में भी स्वर एवं लय विशेष पर ठहराव , ठहराव का उचित समय , न्यास , स्वर संगति आदि समाहित होते हैं। आरोह – अवरोह का उपयुक्त सामंजस्य होता है जो दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध का बोध कराता है । आकर्षण , सम्मोहन , विविधता , सौंदर्य , रोचकता एवं रंजकता आदि गुण संगीत के प्राथमिक तत्व हैं जो दोनों प्रकार के संगीत में विद्यमान होते हैं , इस दृष्टि से भी दोनों में पारस्परिक सम्बन्ध हैं ।

लोकगीत क्या है? Lokgeet की परिभाषा, उत्पत्ति, विकास एवं विशेषताएँ

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लोकसंगीत का वातावरण उत्साह , उमंग और तन्मयता से सराबोर पाया जाता है । कीर्तनियों के समान , लोकसंगीत झंकृत करता है । गायकों का भी लक्ष्य तल्लीनता और आनंद की सृष्टि ही है , इसलिए लोकसंगीत मर्म को स्पर्श करता है और हत्तन्त्री को लोकसंगीत भी मनुष्य की भावात्मक अभिव्यक्ति के रूप में जनमानस में विराजता गया और सतत संचरण व प्रयोग से निर्दिष्ट तथा सुव्यवस्थित स्वर – धारा के रूप में प्रस्फुटिन हुआ ।

विशेषज्ञों और विद्वानों का विश्लेषण -( लोकसंगीत और शास्त्रीय संगीत )

विशेषज्ञों ने इन स्वर – रचनाओं का विश्लेषण किया । अनेक गीतों के परीक्षण से उन्हें स्वाभाविक स्वर – रचनाओं के ऐसे अनेक सार्थक चयनों का पता लगा , जो विशिष्ट भावात्मक स्थितियों में मनुष्य की विशिष्ट सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के आधार पर जुड़ते मिलते हैं । उन्हें विशिष्ट रागों की संज्ञा दी गयी और यह निश्चित किया गया कि अमुक – अमुक स्वरों के चयन से एक विशेष प्रकार की धुन का जन्म होता है । इन्हीं धुनों का नामकरण किया गया और उनका एक विशिष्ट शास्त्र धीरे धीरे विकसित हुआ । उन धुनों का विश्लेषण पंडितों ने अपने अपने ढंग से किया । कई निष्कर्ष निकले , कुछ निश्चित परिणामों पर पहुंचे तथा राग – रागिनियों का नामकरण हुआ । उसके बाद अनेक विद्वानों ने स्वतंत्र परीक्षण व प्रयोग भी किए तथा नवीन राग – रागिनियों की सृष्टि भी हुई ।

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लोकगीतों के स्वर – चयन में शास्त्रोक्त राग निर्धारण न पहले ही था और न आज ही है । उनमें केवल रागों का आभास मात्र रहता है । उसी आभास के आधार पर शास्त्रीय संगीत का विस्तार पक्ष सक्रिय होता है । मूल स्वर – चयन को स्वर – विस्तार के समय वादी , संवादी , विवादी , आरोही , अवरोही आदि के कड़े नियमों में बाँधकर शास्त्रकारों ने उन्हें विशिष्ट दशा दी तथा उन्हें रागों के घेरे में बाँध दिया । इस तरह अनेक लोकगीतों के परीक्षण से यह भली – भाँति ज्ञात होता है , कि उनकी स्वर – रचनाओं में स्वर – चयन किसी रागात्मक तथा भावात्मक वृत्ति के आधार पर ही होता है ; तथा उनका बीजरूप निश्चय ही शास्त्रीय रागों में निहित है ।

यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक लोकगीत का स्वर – चयन एक ही राग का द्योतक हो । रचयिताओं की मानसिक अवस्था के अनुसार अनेक रागों के आभास भी उनमें परिलक्षित होते हैं , जो कि आज भी विशेषज्ञों के अध्ययन के लिए बहुत ही दिलचस्प विषय बने हुए हैं ।

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