घराना परम्परा के गुण एवं दोष- संगीत में घराना से तात्पर्य एक विशेष स्थान पर प्रचलित अथवा व्यक्ति विशेष द्वारा प्रवर्तित संगीत की रीति या शैली से है ।
घराना परम्परा के गुण एवं दोष
घराना परम्परा के माध्यम से ही संगीत की प्राचीन परम्परा सुरक्षित रही । यह प्रशंसनीय है , कुछ सीमा तक राज्याश्रयों द्वारा दी गई सुविधाओं के कारण राज्याश्रित संगीतज्ञ निश्चित होकर संगीत साधना कर पाए ।
● दूसरी ओर एकान्तवासी संगीतज्ञ भी प्रशंसा के पात्र हैं , जिन्होंने भौतिक सुख – सुविधाओं से दूर रहकर संगीत साधना की । इस घरानेदार शिक्षक पद्धति के अस्तित्व के कारणों में कुछ इस प्रकार हैं , जो गुरु – शिष्य के आपसी सम्बन्ध पर आधारित है ।
जिस प्रकार किसी भी चीज में गुण एवं दोष होते हैं , इसी तरह घराना परम्परा में भी बहुत सारे गुण हैं , परन्तु कुछ दोष भी हैं ।
घराना परम्परा के गुण
घराना परम्परा के प्रमुख गुण इस प्रकार हैं-
- घरानेदार परम्परा के अन्तर्गत गुरु अपनी लगन एवं साधना से बनाई हुई अपनी गायिकी को शिष्य के कण्ठ में उतारने के लिए प्रयत्नशील रहता था , जोकि सीना व सोना तालीम के माध्यम से दी जाती थी ।
- • इस परम्परा में गुरु कठिन परीक्षा लेकर सुयोग्य और सुपात्र शिष्य का अनुमान लगाकर संगीत शिक्षा प्रदान करता था अर्थात् गुरु बहुमुखी प्रतिभा लगन , सेवा तथा कला में विशेष अभिरुचि रखने वाले शिष्य को ही चुनते थे ।
- • शिष्य अपने गुरु के साथ ही रहते थे , जिससे व्यक्तिगत ध्यान देना गुरु के लिए सहज हो जाता था जिसमें शिष्यों की संख्या भी सीमित रहती थी और शिक्षा भी गुरु अपने अनुसार देता था , जिससे अभ्यास के समय मार्गदर्शन करना सरल हो जाता था ।
- गुरु – शिष्य के बीच में पिता और पुत्र जैसा स्नेह , श्रद्धा और विश्वास का सम्बन्ध होनी आवश्यक है । होना चाहिए तथा शिष्य में धैर्य , संयम , परिश्रम और अपने गुरु के प्रति आस्था
- • गुरु अपने शिष्य को निःशुल्क शिक्षा देता था । अतः शिष्य के समक्ष धन की समस्या नहीं होती थी । शिक्षा पूर्ण होने पर शिष्य अपने गुरु को गुरुदक्षिणा देता था ।
- अपने घराने के नियम , कायदे परम्पराओं , व्यवहार , अनुशासन एवं आचरण को अपनी वंश परम्पराओं के समान दिया जाता था । साथ ही शास्त्रीय संगीत के मूल सिद्धान्तों एवं उसकी मर्यादा का पालन अत्यन्त दृढ़ता से किया जाता था ।
- • शिष्य को अपने गुरु के साथ ही किसी कार्यकाल में अपनी कला का प्रदर्शन करने का अवसर मिल जाता था ।
- • बिना गुरु की आज्ञा के शिष्य अपना कार्यक्रम नहीं कर सकता था और कार्यक्रम देने के लिए कड़ा परिश्रम करना पड़ता था , जिससे वह स्वतः ही अनुशासित हो जाता था । घरानेदार शिक्षा पद्धति ने परम्परा और मर्यादाओं के आधार पर प्रत्येक विद्यार्थी को स्वतन्त्र अस्तित्व देने का प्रयास किया ।
घराना के दोष
घराना परम्परा के दोष इन सभी गुणों के साथ घरानेदार शिक्षण पद्धति में कुछ निम्न दोष भी अनुभव किए गए , जिसके कारण ही शिक्षण संस्थाओं की नींव रखी गई
- • अन्ध – श्रद्धा और अन्ध – भक्ति होने के कारण ही शिष्य अपने गुरु का अनुकरण करने की अपेक्षा अन्धानुकरण करने लगते थे , जिससे शिष्य की बौद्धिक परिपक्वता , संगीत प्रज्ञा एवं प्रतिभा की अवहेलना होती थी , इसके अतिरिक्त गुरु में निहित शारीरिक दोष या कण्ठ ध्वनि के दोष भी शिष्य ग्रहण कर लेते थे ।
- • इस शिक्षा पद्धति में सामान्य विद्यार्थी को प्रवेश नहीं मिल सकता था , क्योंकि गुरु के वंशज अथवा अत्यन्त प्रतिभाशाली व्यक्ति का ही चयन होता था ।
- • इस पद्धति में निश्चित पाठ्यक्रम अथवा समयावधि नहीं होती थी , सब कुछ गुरु पर ही निर्भर करता था । जिस शिष्य की सेवा से गुरु प्रसन्न हो जाता था , उसी को शिक्षा दी जाती थी । प्रायः शिष्यों को कई – कई वर्षों तक गुरु गृह में रहना पड़ता था । तब उन्हें संगीत का ज्ञान होता था । घरानों में आपसी द्वेष के कारण अन्य घरानों के कलाकारों के प्रति हीनभावना रहती थी ।
- • कभी – कभी प्रतियोगिता की भावना से या दूसरे घराने से ईर्ष्या के कारण अपनी गायिकी में विशेष प्रकार की तानों या अलंकारों का प्रयोग कर उन्हें गायिकी की पहचान बना लिया जाता था और पूर्व प्रसिद्ध गायिकी की मर्यादाओं और उसके प्रमुख अंगों की अवहेलना कर दी जाती थी ।
- • शिष्य की कण्ठध्वनि के अनुरूप सांगीतिक अलंकरणों का प्रयोग न करके गुरु के द्वारा प्रकाशित संगीत अलंकरणों को ही अपनाना पड़ता था ।
- • शिष्य अपनी जिज्ञासा गुरु के समक्ष प्रकट नहीं कर सकता था तथा किसी राग का नाम पूछना भी अनुशासनहीनता माना जाता है ।
- • शिष्य अपनी कल्पना शक्ति या रुचि अनुसार राग में कुछ सौन्दर्य वृद्धि नहीं कर सकता था , जिससे शिष्य में सृजनात्मक शक्ति का अभाव रहता था ।
- इस प्रणाली में संगीत के व्यावहारिक पक्ष पर ही अधिक बल दिया जाता था और राग शास्त्र से बिल्कुल अनभिज्ञता होती थी ।
- इस शिक्षा पद्धति के अनुसार कई वर्ष तक तन , मन और धन से गुरु की सेवा के उपरान्त शिष्य संगीत की शिक्षा तो ग्रहण कर लेता था , लेकिन समाज में रहने के लिए उसे अन्य आवश्यक और व्यावहारिक बातों का ज्ञान नहीं हो पाता था ।
- इसी कारण संगीत शिक्षा पूर्ण होने पर उसे गायन के कार्यक्रमों पर ही निर्भर रहना पड़ता था । इसके साथ ही घराना परम्परा में आए दोषों का अनुभव किया गया और समझ लिया गया कि संगीत शिक्षा की इस पारम्परिक प्रणाली को बदले बिना सभ्य समाज में संगीत को प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता ।
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