गायक के गुण और अवगुण या दोष ( Merits and Demerits of Singer ) – किसी भी गायक में कई अच्छी बातें होती हैं तो कई बुरी । किसी गायक को अच्छा या बुरा कहना, गायक के गुण अवगुण पर निर्भर करता है । कोई गायक अगर अपनी कमियों को सुधार ले, या यूँ कहें के वह अपने गुणों में वृद्धि करे तथा अपने अवगुणों को समाप्त कर दे, तो वह एक अच्छा गायक बन सकता है ।
आइये इसी विषय में विस्तार से जानकारी प्राप्त करते हैं , जानते हैं क्या हैं –
विषय - सूची
गायक के गुण और अवगुण या दोष ( Merits and Demerits of Singer )
गायक के गुण अवगुण – संगीतं मोहिनीरूपमित्याहुः सत्यमेव तत् । योग्यरसभावभाषारागप्रभृतिसाधनः ।। गायकः श्रोतमनसि नियत जनयेत् फलम् । -लक्ष्य – संगीत
योग्य रस , भाव तथा भाषांग की उचित रूप से साधना करते हुए जो गायक गाता है , उसका संगीत मोहिनी रूप होकर श्रोताओं के मन को जीतने में अवश्य ही सफल होता है । इसलिए हमारे प्राचीन ग्रंथकारों ने गायकों के गुण – अवगुणों का वर्णन बड़े सुन्दर ढंग से किया है । उन नियमों पर ध्यान देकर जो संगीतज्ञ अपनी कला का प्रदर्शन करता है , उसके गाने का रंग महफिल में शीघ्र ही जम जाता है ।
इसके विरुद्ध कुछ गायक ऐसे देखे जाते हैं , जिन्होंने या तो ‘ गायकों के गुण और अवगुण का शास्त्रों में मनन ही नहीं किया है , अथवा वे उन्हें जानते हुए भी अपनी आदत से मजबूर होकर उन पर ध्यान नहीं देते । इसका परिणाम यह होता है कि उनकी भद्दी हरकतें ( मुद्राएँ ) महफ़िल में रंग जमाने की बजाए हास्य का वातावरण पैदा कर देती हैं ।
श्रोता / Audience की पसंद
श्रोताओं में सभी तरह के व्यक्ति होते हैं । कोई श्रोता गीत की कविता पर ध्यान देता है , कोई गायक के सुरीलेपन और लयकारी को देखता है और कोई गायक – गायिका के रूप – रंग तथा उसके हाव – भाव प्रदर्शित करने के ढंग में ही आनन्द लेता है ।
इस प्रकार संगीत – कला के सभी अंगों से भिन्न – भिन्न प्रकार के श्रोता अपनी – अपनी रुचि के अनुकूल रसास्वादन करते हैं । ऐसी हालत में यह निश्चित ही है कि गायक के गुण और अवगुण महफ़िल में रंग बनाने या बिगाड़ने में बहुत सहायक होते हैं ।
संगीत विद्यार्थी – ध्यान दें
अत : प्रत्येक संगीत – विद्यार्थी को आरम्भ से ही ध्यान देकर गायकों के गुण अपनाने चाहिए और अवगुणों से बचना चाहिए । आरम्भ में जैसी आदत पड़ जाती है , वह आसानी से नही छूटती । यदि शुरू में ही हाथ पैर फेंक – फेंककर या टेढ़ा मुंह करके भद्दे ढंग से दांत दिखाकर गाने की आदत पड़ गई तो उससे पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाएगा और इसका परिणाम यह होगा कि संगीत – समाज में उसे सम्मान और सफलता कदापि नहीं मिलेगी ।
गायकों की स्थिति बताते हुए लक्ष्यसंगीतकार में ठीक ही लिया है : –
भाषाअव्यक्ता हावभावाः प्रतीयते विसंगताः । व्यस्ताश्चेष्टास्तथाऽऽकोशाः केवलं कर्कशा मताः ॥
एतादम्गायनान्न स्यात परिणामो हयाभीप्सितः । ततो हास्यरसस्यैब केवलं स्यात् समुद्रभवः ॥७३ ॥ -लक्ष्य संगीत
उपर्युक्त श्लोक का भावार्थ यही है कि भद्दे ढंग से चिल्ला कर और ऊटपटांग हाव – भाव दिखाने से महफिल में केवल हास्य – रस का ही वातावरण पैदा होता है । संगीत रत्नाकर ‘ में गायक के गुणों के बारे में इस प्रकार लिखा है :-
गायक के गुण – Merits of Singer
हृदशब्दः सुशारीरो ग्रहमोक्षविचक्षणः । रागरागागाभाषांगकियांगोपांगकोविदः ।।
प्रबंधमाननिष्णातो विविधालप्तितत्त्ववित् । सर्वस्थानोच्चमकेश्वनायासलसद्गतिः ।।
आयत्तकंठस्तालज्ञः सावधानो जितश्रमः । शुद्धज्छायालगाभिज्ञः सर्वकाकुविशेषवित् ॥
अपारस्थायसंचारः सर्वदोषविवर्जितः । कियापरोऽजस्रलयः सुघटो धारणान्वितः ॥
स्फूर्जग्निर्जवनों हारिरहः भजनोद्धरः । सुसम्प्रदायो गीतज्ञयैगीर्यते गीतजंगोयते गायनाग्रणीः ।।
इस श्लोक का भावार्थ इस प्रकार है : –
1. हृदशब्दः :- जिसका शब्द अर्थात् आवाज मधुर प्रिय हो ।
2. सुशारीर : जिसकी वाणो में अभ्यास के बिना राग – स्वरूप व्यक्त करने का गुण ( तासीर ) हो ।
3. ग्रहमोक्षविचक्षण :- जो ग्रह और न्यास के नियमों को जाननेवाला हो ( ग्रह को विवेचना इसी पुस्तक में अन्यत्र दो गई है ) ।
4. रागरागांगकोविद : जो भाषांगक्रियांगोपांग राग – रागांग इत्यादि जानकार हो । ( देशी संगीत में रागांग , भाषांग , क्रियांग और उपांग , ये का भेद कहे गए हैं । ( उनका विवेचन इस पुस्तक में अन्यत्र दिया गया है ) प्राचीन गान – शैली है , जो वर्तमान समय में प्रचलित नहीं है ) ।
5. प्रबंधगाननिष्णात : जो प्रबंध – गान में प्रवीण हो ( प्रबंध एक प्रकार की
6.विविधालप्तितत्त्ववित् : जो भिन्न – भिन्न आलप्तियों के तत्त्व का ज्ञाता हो , अर्थात आलाप करने की गूढ़ बातें ( राग का आविर्भाव , तिरोभाव दिखाने की कला ) जानता हो ।
7. सर्वस्थानोवागमकेष्वनापालप्तपद्गति : जो सब स्थानों की गमक सहज में ही ले सकता हो , अर्थात् मंद्र , मध्य और तार , इन तीनों स्थानों में गमकों का प्रयोग कर सके ।
8. आयत्तकंठ : जिसका कंठ ( गला ) स्वाधीन हो , अर्थात् खुली हुई आवाज़ हो ।
9. तालज्ञ : जो ताल का ज्ञान रखनेवाला हो ।
10. सावधान : जो एकाग्रचित्त होकर सावधानीपूर्वक गाए ।
11. जितश्रम : जो श्रम को जीतनेवाला हो , अर्थात् गाते समय यह अनुभव न हो कि गाने में बड़ा परिश्रम करना पड़ रहा है ।
12. शुद्धच्छायालगाभिज्ञ : जो शुद्ध , छायालग और संकीर्ण – इन राग – भेदों को जाननेवाला हो ( इन राग – भेदों की परिभाषा इस पुस्तक में अन्यत्र दी गई है ) ।
13. सर्व काकुविशेषवित् : जो संगीत – शास्त्रों में वर्णित षड्विधि यानी छह प्रकार के काकुओं का प्रयोग करने की जानकारी रखता हो । *
* ‘ संगीत रत्नाकर ‘ में छह प्रकार के काकुओं के नाम इस प्रकार दिए हैं -१ . स्वर – का २. राग – काकु , ३. देश – काकु , ४. कोत्र – काकु , ५. अन्य राग – काकु , ६. यंत्र – काकु ।
14. अनेकस्थायसंचार : जो गाते समय असंख्य स्थाय अर्थात् रागों के भाग या हिस्से तैयार करके सुनाने का ज्ञान रखता हो ।
15. सर्वदोषविवर्जित : जो सब प्रकार के दोषों से रहित हो , अर्थात् जिसमें कोई दोष न हो ।
16. क्रियापर : जो अभ्यास में दक्ष हो , अर्थात् रियाज़ी हो ।
17. अजस्रलय : जो अत्यन्त लयदार हो ।
18. सुघट : जो सुघड़ ( सुन्दर ) हो , अर्थात् जिसे देख कर श्रोता घृणा न करें ।
19. धारणान्वित : जो धारणावान् हो ।
20. स्फूर्जग्निर्जवनों : जो ‘ निर्जवन ‘ ( स्थाय का एक विशेष भाम ) को गाते समय मेव – गर्जना के समान गम्भीर आवाज निकालनेवाला हो ।
21. हारिरह : कृद्भजनोधुर : जो अपने गायन से श्रोताओं के मन को मोहित करनेवाला हो ।
22. सुसम्प्रदाय : जिसकी गुरु – परम्परा उच्च श्रेणी की हो , अर्थात् जो ऊँचे सम्प्रदाय का हो ।
गायक के अवगुण – Demerits of Singer
गायक के अवगुण ।
सबष्वोधष्टसूरकारिमीतश कितकंपिताः कराली विकालः काकी वितालकरभोतमाः ॥ शोंबकस्तुम्बकी वक्री प्रसारी विनिमीलकः । विरसापस्वराव्यक्तस्थानभ्रष्टाग्यवस्थिताः ॥ मित्रकोऽनवधानश्च तथाऽन्यः सानुनासिकः । पंचविंशतिरित्ते गायना निदिता मता ॥ -संगीत रत्नाकर
भावार्थ इस प्रकार हैं :-
1. संदष्ट : दाँत पीस कर गानेवाला हो ।
2. उद घुष्ट : जो नीरस , जोर से गानेवाला हो । ‘
3. सूत्कारी : जो गाते समय सूत्कार करनेवाला हो ।
4. भीत : जो भयभीत होकर गानेवाला , अर्थात् जो डरते – डरते गाए ।
5. शंकित : जो आत्मविश्वास – रहित होकर गाए , अर्थात् जो घबरा कर जल्द बाज़ी से गानेवाला हो ।
6. कंपित : जो कांपती हुई आवाज़ मे गानेवाला हो ।
7. कराली : जो भयंकर मुंह फाड़ कर गानेवाला हो ।
8. विकल : जिसके गाने में श्रुतियां कम या अधिक लग जाती हों , अर्थात् जिसके स्वर अपने उचित स्थान पर न लगते हों ।
9. काकी : जो कौए के समान कर्कश आवाज़वाला हो ।
10. विताल : जो बेताल गानेवाला हो ।
11. करम : मुंडी ( शिर ) ऊँची करके गानेवाला हो ।
12. उद्भट : जो भेड़ की तरह मुंह फाड़ कर गानेवाला हो ।
13. झोंबक : जो गले और मुंह की नसें फुलाकर गानेवाला हो ।
14. तुम्बकी : जो तूंबे के समान मुंह फुला कर गानेवाला हो ।
15. वक्री : जो मुंडी ( शिर ) टेढ़ी कर के गानेवाला हो ।
16. प्रसारी : जो हाथ – पैर फेंक – फेंककर या हाथ – पैर पटक कर गानेवाला
17. विनिमीलक : जो आँखें बन्द करके या आँखमींच कर गानेवाला हो । पहुँचती हो ।
18. विरस : जिसके गाने में रस न हो , अर्थात् नीरस गानेवाला हो ।
19. अपस्वर : जिसके गाने में वजित स्वर भी लग जाए ।
20. अव्यक्त : गाते समय जिसका शब्दोच्चारण ठीक न हो ।
21. स्थान – भ्रष्ट : जिसकी आवाज़ योग्य स्थान पर न ।
22. अव्यवस्थित : जो बेढंगे तरीके से अर्थात् अव्यवस्थित रीति से गानेवाला हो ।
23. मिश्रक : जो राग को मिश्र करके ( भ्रष्ट करके ) गानेवाला हो ।
24. अनवधान : जो लापरवाही से गानेवाला हो ।
25. सानुनासिक : जो नाक के स्वर से गानेवाला हो , अर्थात् जो गाते समय नाक से आवाज निकाले ।
अपवाद ) – अच्छा गायक या बुरा गायक ??
इन समस्त दोषों से अच्छे गायक को बचना चाहिए , ऐसा शास्त्र – विधान है । यहाँ पर यह प्रश्न उठ सकता है कि इन पच्चीस दोषों में कुछ दोष ऐसे भी तो है । जो अनेक अच्छे गायकों में पाए जाते हैं ; जैसे उन्नीस और तेईस संख्यावाले दोष । अर्थात् बहुत से अच्छे गायक अपने गायन में वजित स्वर प्रयोग करते देखे जाते हैं । और रागों को मिश्र करके यानी मिलाकर भी गाते हैं ।
इसका उत्तर यही दिया जा सकता है कि कुशल गायक जब – कभी वजित स्वर का प्रयोग राग में करते हैं , तो वे विवादी स्वर के नाते ऐसी कुशलता से उसे लगाते हैं कि राग का सौंदर्य बिगड़ने के बजाए और खिल उठता है , अत : उपर्यक्त नियम को अपवाद समझते हुए उनका यह कृत्य ‘ गायक – अवगुण ‘ श्रेणी में नहीं आता ।
स्मरथ को नहिं दोष गुसाई ‘ की उक्ति के अनुसार वे दोषी नहीं ठहराए जा सकते , क्योंकि उनको यह सामर्थ्य प्राप्त है कि वे राग में विकृत स्वर लगा कर भी उसके द्वारा एक विशेषता दिखा दें । इसके विरुद्ध साधारण गायक यदि ऐसे कृत्य करने लगेगा , तो वह राग – रूप को ही बिगाड़ बठेगा ।
इसी प्रकार रागों में मिश्रण करने के लिए भी कुशल और समर्थ संगीतज्ञ दोषमुक्त किए जा सकते हैं , क्योंकि वे जब किसी एक राग में दूसरे राग के स्वर दिखाते हैं या मिलाते हैं , तो उस समय राग का रूप नहीं बिगड़ने देते , प्रत्युत वहाँ पर अन्य राग की थोड़ी सी छाया लाकर तिरोभाव ‘ दिखाते हुए मुख्य राग को कुछ देर के लिए छिपा कर फिर आविर्भाव द्वारा उसे प्रकट करते अपना कौशल दिखाते हैं ।
इसी कार्य को एक साधारण गायक करने लगे तो वह कठिनाई में पड़ जाएगा और मुख्य राग का रूप भी नष्ट कर बैठेगा । इसीलिए शास्त्रकारों ने इसे भी दोष माना है ।
अत : शास्त्रों में वर्णित उपर्युक्त गुण तथा अवगुण पर संगीत – विद्यार्थियों को पूरा ध्यान देना चाहिए ।
गायक के गुण अवगुण जानने के बाद – यह भी जानें क्या हैं –
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