तानपूरा का परिचय – तानपूरा को भारतीय संगीत का आधार कहा जाता है । वाद्य यंत्रों के प्रकार, वर्गीकरण Musical instruments types and Classification के अंतर्गत यह एक तत वाद्य यंत्र है । भारतीय शास्त्रीय संगीत में तथा सभी प्रकार के संगीत में इसका उपयोग किया जाता है ।
विषय - सूची
भारतीय संगीत में तानपूरा का परिचय – Tanpura ka Parichay
तानपूरा को हम ‘ तम्बूरा ‘ भी कहते हैं । ऐसा माना जाता है कि तानपूरे का निर्माण प्राचीन काल में तुम्बरू नामक गंधर्व ने किया था । इस वाद्य में पहले एक तार था , फिर दो , फिर तीन , फिर चार तार हुए । आधुनिक काल में पाँच या छः तार वाले तानपुरे भी देखे जा सकते हैं ।
तानपूरे को भारतीय संगीत का मूल आधार इन कारणों से कहा जाता है –
- यह संगीत गायन का प्रमुख वाद्य है ।
- इसका प्रयोग वादन तथा नृत्य के साथ भी होता है ।
- इसकी तारों को बजाने से सभी स्वर प्राप्त होते है ।
- यह वादन संगीत में सहायक होता है तथा उसमें रस एवं प्रभाव प्रकट करता है ।
- वैज्ञानिक भाव से देखें तो इसका एक तार एक से पाँच सप्तकों तक के नाद उत्पन्न कर सकता है ।
तानपूरा का परिचय – प्रथम आघात से जो स्वर उत्पन्न होता है वह मूल नाद कहलाता है । परन्तु ऐसा भी देखा गया है कि मूल नाद के अतिरिक्त अन्य नाद भी उत्पन्न होते हैं । ये नाद सहायक नाद कहे जाते हैं । इन्हें ‘ स्वयंभू स्वर ‘ भी कहते है । स्वयंभू स्वरों को हारमोनिक्स या ओवरटोन भी कहते हैं । इन स्वयंभू स्वरों का हर वाद्य में अलग – अलग स्थान है । नाद की जाति इसी के कारण होती है । जैसे हम सुनकर ही बता सकते हैं कि दो अलग – अलग वाद्यों पर ‘ सा ‘ बज रहा है । यह जो भेद है वह स्वयंभू स्वर के कारण ही होता है । सबसे अधिक स्पष्ट रूप से ये तंत्री वाद्यों में सुनाई देते हैं । सहायक नादों की उत्पत्ति का वैज्ञानिक नियम है । ये नाद मूल नाद से दुगने , तिगुने , चारगुने आदि के क्रम से होते हैं ।
तानपूरा का अंग – परिचय
तानपुरा को तंबुरा के नाम से भी जाना जाता है। तानपुरा के शास्त्रीय संगीत में तानपुरा का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। तानपुरे का स्वर मधुर होता है , जोकि संगीतात्मक वातावरण की सृष्टि में सहायक होता है। तानपुरे की मधुर झंकार स्वतः संगीतज्ञ को गाने की ओर प्रेरित करती है । तानपुरे से गाने में अलौकिक आनन्द की प्राप्ति होती है । तानपुरे का प्रयोग गायन तथा वादन के साथ स्वर देने में होता है । तानपुरे से गायन में संगीतज्ञ कण, मीड़ तथा अन्य गायकी का प्रयोग सुगमता से कर सकता है ।
तानपूरा का अंग – परिचय और QnA
तुम्बा – तुम्बा लौकी का बना नीचे की ओर गोल और ऊपर चपटा होता है , अन्दर खोखला होता है . यह गुज उत्पन्न करने में सहायक होता है
तबली – तुम्बा के चपटे भाग को तबली कहते हैं . इसी पर ब्रिज या घुड़ज लगा होता है .
ब्रिज या घुड़ज – यह हाथी दाँत या हड्डी का बना हुआ पुल की तरह होता है . इस पर चारों तार लगे होते हैं .
कील , गोंगरा अथवा लगोंट – तुम्बे की पेंदी में लगी कील को कहते हैं . इस स्थान से तानपुरे के चारों तार बँधे होते हैं जोकि खूटियों तक जाते हैं .
गुल या गुलू – जिस स्थान पर तुम्बा और डांड़ या ऊपर का भाग मिलता है , उसे गुल या गुलू कहते हैं .
डाड – तुम्बे में जुड़ी लकड़ी की पोली डंडी को कहते है . इसमें खूटियाँ लगी रहती हैं तथा तार इसके ऊपर रहते हुए खूटियों
अटी या अटक – खूटियों के पास और डांड़ के ऊपरी हिस्से में तुम्बे की ओर से पहली पट्टी को असे कहते हैं . तानपुरे के चारों तार इस पट्टी से ऊपर होते तक जाते हैं .
तारगहन या तारदान – अटी से होते हुए तार ऊपर दूसरी पट्टी से खूटियों तक जाते हैं . इस पट्टी को तारगहन या तारदान कहते हैं .
खूटियाँ – तानपुरे में चार खूटियाँ होती हैं . दो डांड़ के ऊपरी हिस्से में होती हैं . एक डांड़ के बायीं ओर एक दाहिनी और होती है . खूटियों से चारों तार आवश्यकतानुसार फंसे दीले किए जाते हैं अर्थात् स्वर में मिलाए जाते हैं .
तार – तानपुरे में चार तार होते हैं , बीच के लोहे के होते हैं . पुरुषों के तानपुरे में प्रथम तथा अन्ति पीतल के तथा अन्य 2 बीच के तार लोहे के होते स्त्रियों के तानपुरे में केवल एक तार पीतल का शेष के होते हैं .
मनका – चार तारों में चार मनका मोती लम्बे रहते हैं . ये मनके ब्रिज ओर कील के बीच में रहते हैं । हाथी दाँत के बने होते हैं . मनकों के द्वारा सूक्ष्म स्वर अन्तर को ठीक करते हैं .
सूत या धागा – तानपुरे के चारों तारों में झंकार उत्पन्न करने के लिए ब्रिज में धागे लगाते हैं . इन धागों के धीरे – धीरे खिसकाने से एक स्थल ऐसा आता है , जहाँ पर सबसे अधिक झंकार सुनाई देती है , वहीं पर धागे को रखना चाहिए .
पक्तियाँ – तानपुरे को सुन्दर बनाने के लिए तुम्बे के ऊपर लकड़ी की सुन्दर पंक्तियाँ लगायी जाती हैं , जिन्हें शृंगार भी कहते हैं .
उत्तर भारत के विभिन्न भागों में पाया जाने वाला यह एक पारंपरिक वाद्य यंत्र है। तानपुरा पीतल और लकड़ी से बना एक तार वाला वाद्य यंत्र है। दाहिने हाथ की तर्जनी और मध्यमा उंगलियों से तार लगातार खींचकर बजाये जाते हैं।
तानपुरे का पहला तार मंद्र पंचम में मिलाते हैं ।
इस वाद्य में पहले एक तार था , फिर दो , फिर तीन , फिर चार तार हुए । आधुनिक काल में पाँच या छः तार वाले तानपुरे भी देखे जा सकते हैं ।
तार संख्या 1 और 3 – ये दोनों तार ‘जोड़ के तार‘ कहलाते हैं।
ऐसा माना जाता है कि तानपूरे का निर्माण प्राचीन काल में तुम्बरू नामक गंधर्व ने किया था ।
स्त्रियों के तानपूरे में पहला, दूसरा तथा तीसरा तार लोहे का होता हैं जबकि चौथा तार पीतल का होता है ।
पक्तियाँ – तानपुरे को सुन्दर बनाने के लिए तुम्बे के ऊपर लकड़ी की सुन्दर पंक्तियाँ लगायी जाती हैं , जिन्हें शृंगार भी कहते हैं .
तानपुरा मिलाने पर अधिक से अधिक एक समय में 6 शुद्ध स्वर उत्पन्न हो सकते हैं , क्योंकि मन्द्र मध्यम से तानपुरा मिलाने पर निषाद स्वर नहीं मिलता है और मन्द्र पंचम से मिलाने पर मध्यम स्वर नहीं मिलते हैं ।
सबसे पहले बीच की जोड़ी के एक तार को खूंटी की सहायता से अपने स्वर के आधार पर मध्य षड्ज में मिलाते हैं । उसी स्वर में फिर जोड़ी का दूसरा तार मिलाते हैं । पीतल का तार , जोकि दाहिनी ओर होता है मन्द्र सप्तक के षड्ज में मिलाते हैं ।
तानपुरे के दूसरे और तीसरे तार को मध्य सप्तक के षड्ज में मिलाते हैं और चौथे तार को मन्द्र षड्ज में मिलाते हैं । इन तीनों तारों से षड्ज , ऋषभ , गन्धार तथा पंचम स्वर सहायक नाद के रूप में उत्पन्न होते हैं।
स्वयंभू का अर्थ है स्वतः उत्पन्न होने वाले स्वर ।
किन्ही 2 एक समान कम्पन्न / आवृति वाली ध्वनियों में जो ज़रा सा अन्तर सुनाई दे उसे हम नाद की जाति / गुण कहते हैं। ध्वनियों के कम्पन के दृष्टिकोण से प्रत्येक वाद्य एक – दूसरे से भिन्न होता है । इसी को नाद की जाति कहते हैं ।
तानपुरा मिलाने की विधि
तानपुरा मिलाने की विधि :- सबसे पहले बीच की जोड़ी के एक तार को खूंटी की सहायता से अपने स्वर के आधार पर मध्य षड्ज में मिलाते हैं । उसी स्वर में फिर जोड़ी का दूसरा तार मिलाते हैं । पीतल का तार , जोकि दाहिनी ओर होता है मन्द्र सप्तक के षड्ज में मिलाते हैं । तत्पश्चात् बाई ओर का लोहे का तार मन्द्र सप्तक के पंचम अथवा मध्यम में मिलाते हैं । स्वरों के सूक्ष्म अन्तर को मनके की सहायता से ठीक करते हैं । अन्त में ब्रिज में लगे हुए चारों धागों को धीरे – धीरे खिसकाने से तानपुरे की जिवारी खुल जाती है और एक प्रकार की झंकार उत्पन्न होती है ।
तानपुरे का पहला तार मंद्र पंचम में मिलाते हैं । इन स्वर से वैज्ञानिक रूप से मुख्यतः ऋषभ , पंचम , धैवत तथा निषाद सहायक स्वर निकलते हैं । जिन रागों में पंचम वर्जित होता है , तो पहला तार मन्द्र मध्यम में मिलाते हैं । इस स्वर से मुख्यतः मध्यम के अतिरिक्त पंचम , धैवत तथा षड्ज सहायक नाद के रूप में उत्पन्न होते हैं ।
तानपुरे के दूसरे और तीसरे तार को मध्य सप्तक के षड्ज में मिलाते हैं और चौथे तार को मन्द्र षड्ज में मिलाते हैं । इन तीनों तारों से षड्ज , ऋषभ , गन्धार तथा पंचम स्वर सहायक नाद के रूप में उत्पन्न होते हैं । इससे यह स्पष्ट होता है कि तानपुरा मिलाने पर अधिक से अधिक एक समय में 6 शुद्ध स्वर उत्पन्न हो सकते हैं , क्योंकि मन्द्र मध्यम से तानपुरा मिलाने पर निषाद स्वर नहीं मिलता है और मन्द्र पंचम से मिलाने पर मध्यम स्वर नहीं मिलते हैं ।
तानपुरा बजाने की विधि
तानपुरा बजाने की विधि – तानपुरा बजाने को संगीत की भाषा में तानपुरा छेड़ना भी कहते हैं . पहले तार को मध्यमा अंगुली से बाकी तीन तारों को तर्जनी अंगुली से छेड़ा जाता है , चारों तार बारी – बारी से एक के बाद एक करके छेड़े जाते हैं . तार को छेड़ने में तारतम्यता तथा एकरूपता होनी चाहिए . झंकार तथा मधुर ध्वनि भी होनी चाहिए .
तानपुरे की बैठक तानपुरा को कुछ लोग लम्बवत् लिटाकार बजाते हैं । कुछ लोग एक घुटना नीचे और एक घुटना ऊँचा करके बजाते हैं । कुछ लोग गोद में तानपुरा रखकर वजाते हैं । कुछ गायक स्वयं बजाना पसन्द करते हैं । कुछ दूसरों से बजवाते हैं ।
तानपुरे के सहायक नाद जिन स्वरों में तानपुरा मिलाया जाता है , वे मूल नाद कहलाते हैं और उन मूल नादों से जो अन्य नाद निकलते हैं उनको सहायक नाद कहते हैं । सहायक नाद में उत्पन्न स्वरों को ‘ स्वयंभू स्वर ‘ भी कहते हैं । स्वयंभू का अर्थ है स्वतः उत्पन्न होने वाले स्वर । अतः स्वर जिसमें तानपुरा मिलाया जाता है , उनसे उत्पन्न स्वरों को ही सहायक स्वर कहते हैं । ये सहायक नाद हर वाद्य में भिन्न होते हैं । इस कारण प्रत्येक वाद्य एक – दूसरे से भिन्न होता है । इसी को नाद की जाति कहते हैं । इन सहायक नादों को समझना बहुत कठिन होता है । कुशल संगीतज्ञ ही इन स्वयंभू स्वरों को समझ सकते हैं । साधारण व्यक्ति इन स्वरों को नहीं समझ सकते ।
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