नाद, आहत naad kya hai व अनाहत नाद की परिभाषा– आप संगीत के छेत्र से जुड़े हुए है तो आपके लिए यह जानना बेहद जरूरी है , और आप विद्यार्थी हैं तो यह और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है । संगीत इस लेख में हम जानेंगे नाद, आहत नाद, शोर व अनाहत नाद की परिभाषा, तारता (Pitch ) तथा नाद की जाति या गुण के बारे में विस्तार से ।
विषय - सूची
नाद की परिभाषा और प्रकार
ध्वनि – विज्ञान नाद नकारं प्राणमामानं दकारमनलं विदुः । जातःप्राणाग्निसयोगात्तेन नादोऽभिधीयते ॥ -संगीत रत्नाकर ( १।३७६ )
अर्थात् – ‘ नकार ‘ प्राण – वाचक ( वायु – वाचक ) तथा ‘ दकार ‘ अग्नि – वाचक है , अत : जो वायु और अग्नि के योग ( सम्बन्ध ) से उत्पन्न होता है , उसी को ‘ नाद ‘ कहते है ।
संगीत में प्रयुक्त होने वाली ध्वनि, उपयोग में आने वाली ध्वनि को नाद कहते हैं ।
आहतो नाहतश्चेति द्विधा नादो निगद्यते । सोऽय प्रकाशते पिडे तस्तापिडोऽभिधीयते ॥ -संगीत रत्नाकर ( १।२।३ )
अर्थात् — ” नाद के दो प्रकार जाने जाते हैं – ‘ आहत ‘ तथा अनाहत ‘ । ये दोनों पिड ( देह ) में प्रकट होते हैं , इसलिए पिड का वर्णन किया जाता है ।
अनाहत नाद और आहत नाद, शोर(Noise) तथा सांगीतिक और असांगीतिक ध्वनि (Musical and Nonmusical Sound) की परिभाषा
संगीत में प्रयुक्त होने वाली ध्वनि, उपयोग में आने वाली ध्वनि को नाद कहते हैं । नाद दो प्रकार के जाने जाते हैं – ‘ आहत ‘ तथा अनाहत ‘ । आहत नाद ही संगीत के लिए उपयोगी है।
अनाहत नाद की परिभाषा – ” अनाहत नाद जो नाद केवल अनुभव से जाना जाता है और जिसके उत्पन्न होने का कोई खास कारण न हो , यानी जो बिना संघर्ष के स्वयंभू रूप से उत्पन्न होता है , उसे ‘ अनाहत नाद ‘ कहते हैं। जैसे- दोनों कान जोर से बंद करने पर अनुभव करके देखा जाए , तो ‘ चन्न – घन्न ‘ या ‘ सांय- साय ‘ की आवाज़ सुनाई देती है । इसके बाद नादोपासना की विधि से गहरे ध्यान की अवस्था में पहुंचने पर सूक्ष्म नाद सुनाई पड़ने लगता है जो मेघ गर्जन या वंशीस्वर आदि के सदृश होता है।
इसी अनाहत नाद की उपासना हमारे प्राचीन ऋषि – मुनि करते थे। यह नाद मुक्ति – दायक तो है किन्तु रक्ति-दायक नहीं। इसलिए यह संगीतोपयोगी भी नहीं है , अर्थात् संगीत से अनाहत नाद का कोई सम्बन्ध नहीं है।
आहत नाद की परिभाषा – तनाव जो कानों से सुनाई देता है और जो दो वस्तुओं के संघर्ष या रगड़ से पैदा होता है उसे ‘ आहत नाद ‘ कहते हैं । इस नाद का संगीत से विशेष सम्बन्ध है । यद्यपि इस नाद को मुक्तिदाता माना गया है , किंतु आहत नाद को भी भव – सागर से लगानेवाला बताकर ‘ संगीत – दर्पण ‘ में दामोदर पंडित ने लिखा है : –
स नादस्त्वाहतो लोके रंजको भवभंजकः । श्रुत्यादि द्वारतस्तस्मात्तदुत्पत्तिनिरूप्यते ।।
अर्थात्- ” आहत नाद व्यवहार में श्रुति इत्यादि ( स्वर , ग्राम , मूर्छना ) से रंजक कर भव – भंजक भी बन जाता है, इस कारण इसकी उत्पत्ति का वर्णन करता हूँ। ” उपर्युक्त उद्धरणों से यह सिद्ध होता है कि आहत नाद ही संगीत के लिए उपयोगी है। इसी नाद के द्वारा सूर , मीरा इत्यादि ने प्रभु – सान्निध्य प्राप्त किया था और फिर अनाहत की उपासना से मुक्ति प्राप्त की थी।
ध्वनि का वर्गीकरण वैज्ञानिक ढंग से गुणों के आधार पर तीन प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है।
सामान्य ध्वनि को दो भागों में बाँटा जा सकता है – 1 . सांगीतिक और 2 . असांगीतिक । इन्हें सुरीली और बेसुरी ध्वनियाँ भी कह सकते हैं ।
जब ध्वनि में अर्थात् उसके कंपनों में नियमितता तथा व्यवस्था आ जाती है तो ध्वनि मृदुल होकर कानों को प्रिय लगने लगती है । इसी ध्वनि को ‘ स्वर ‘ कहा जाता है , जिसका उपयोग कहा जाता है । संगीत के क्षेत्र में किया जाता है । इसी को सांगीतिक ध्वनि ( Musical Sound ) कहा जाता है ।
इस प्रकार की ध्वनि संगीत के लिए उपयोगी नहीं होती इसलिए ‘ भाषा ‘ के निर्माण में काम आती है । इसी को असांगीतिक ध्वनि ( Nonmusical Sound ) कहा जाता है ।
संगीत की भाषा में तीखी आवाज़ को ‘ ऊँचा स्वर ‘ कहा जाता है और मोटी आवाज़ को ‘ नीचा स्वर ‘ कहते हैं। नाद की यह ऊँची – नीची स्थिति ही ‘ तारता ( Pitch ) ‘ कहलाती है। तारता के आधार पर ही हम आवाज या स्वर को पहचान पाते हैं।
जब ध्वनि के कंपन व्यवस्थित नहीं होते तो ऐसी ध्वनि ‘ शोर (Noise) ‘ कहलाती है, जो कानों को प्रिय तो नहीं लगती लेकिन मनुष्य के अनेक भावों और विभिन्न पदार्थों का बोध कराती है ।
कर्णप्रिय मधुर ध्वनि से ही संगीत का निर्माण हो सकता है, इसे ही हम संगीत कह सकते है। एक समस्या यह है कि कुछ ध्वनियाँ न शोर न तो संगीत के स्वर क्षेत्र में आते हैं और न मात्र शोर ही कहे जा सकते हैं।
जैसे बाल्टी को डंडे से पीटना या रुई का धुनना आदि । लेकिन संगीत की जानकारी रखने वाला इनसे जलतरंग या वीणा के स्वरों का निर्माण कर सकता है और इनकी ध्वनियों को विविध उपकरणों के माध्यम से संगीतोपयोगी बना सकता है।
सड़क पर खिलौना / सारंगी बेचने वाला उस पर मधुर ध्वनि निकालता है । लेकिन जब कोई नौसिखिया उसे खरीद कर बजाता है तो वैसी ध्वनि नहीं निकलती और एक कर्कश ध्वनि सुनाई पड़ती है जो कानों को अप्रिय लगती है। इस स्थति में हम इसे शोर कहेंगे।
ध्वनि को गुण के आधार पर तीन प्रकार में विभाजित किया जा सकता है।
1. तारता के आधार पर
2. तीव्रता के आधार पर
3. जाति के आधार पर
ध्वनि का वर्गीकरण
वास्तव में ध्वनि का वर्गीकरण वैज्ञानिक ढंग से तीन गुणों के आधार पर किया जा सकता है –
1 . तारता या तारत्व अर्थात् नाद का ऊँचा – नीचापन ( Pitch )
2. तीव्रता या प्रबलता अथवा नाद का छोटा – बड़ापन ( Loudness )
3. गुण या प्रकार ( Timbre )
1. तारता ( Pitch )
तारता ( Pitch ) स्त्री और बच्चे चाहे धीमे बोलें या चिल्लाकर , परन्तु उनकी आवाज़ का महीनपन ( बारीकी ) नहीं जाता । इसी प्रकार पुरुष धीमे बोले या चिल्लाए तो उसकी आवाज़ का मोटापन भी बना रहता है। जिस आवाज़ को लोग महीन कहते हैं , संगीत की भाषा में उसे ‘ ऊँचा स्वर ‘ कहा जाता है और मोटी आवाज़ को ‘ नीचा स्वर ‘ कहते हैं। नाद की यह ऊँची – नीची स्थिति ही ‘ तारता ( Pitch ) ‘ कहलाती है। तारता के आधार पर ही हम आवाज या स्वर को पहचान पाते हैं।
घोड़े की हिनहिनाहट , चिड़ियों की चहचहाहट , रेल की सीटी या बम का धमाका इत्यादि को ध्वनि के इसी तारत्व – गुण से पहचाना जाता है । तारत्व का.बोध न होने पर किसी व्यक्ति से सरगम बुलवाई जाए तो वह एक ही स्वर पर सातों स्वरों को बोल देता है । उसे नीचे स्वर और ऊँचे स्वर में कोई भेद प्रतीत नहीं होता । लेकिन जैसे – जैसे तारता का ज्ञान बढ़ता जाता है तो उसके गले से अलग – अलग सप्तकों के नीचे और ऊँचे स्वर निकलने लगते हैं ।
तारता केवल कानों के अनुभव की ही चीज़ नहीं बल्कि जिस वस्तु के कंपन से स्वर निकलता है , तारता उसका मौलिक धर्म है जो स्वरोत्पादक वस्तु की आवृत्ति पर निर्भर करती है । आवृत्ति के अधिक होने पर ऊँचा स्वर और आवृत्ति कम होने पर नीचा स्वर निकलता है । बिजली के पंखे को धीमी या एकदम ज्यादा स्पीड पर चलाने से यह बात स्पष्ट हो जाएगी ।
नाद की ऊँचाई – नीचाई से ही यह स्पष्ट होता है कि जो आवाज़ आ रही है , वह ऊँची है या नीची । मान लीजिए , हमने ‘ सा ‘ स्वर सुना , इसके बाद ‘ रे ‘ स्वर सुनाई दिया और फिर ‘ ग ‘ सुनाई दिया । इस प्रकार नियमित ऊंचे स्वर सुनने पर हम उसे ‘ उच्च नाद ‘ कहेंगे ।
ध्वनि की उत्पत्ति का वैज्ञानिक कारण
हम चाहते हैं कि आप इसका वैज्ञानिक कारण भी जान लें । इसके लिए आपको यह जानना होगा कि ध्वनि की उत्पत्ति किस प्रकार होती है । ध्वनि की उत्पत्ति का कारण जानने के लिए ‘ आन्दोलन ‘ शब्द को समझना होगा । जब किसी वस्तु से ध्वनि उत्पन्न होती है तो वह वस्तु झूले की भांति इधर – उधर बड़ी तीव्र गति से हिलने लगती है । झूले के स्थान पर आप एक दीवार – घड़ी के लटकन का उदाहरण भी ले सकते हैं । जब घड़ी का लटकन हिलता है तो वह अपने लटकने के स्थान से पहले एक ओर जाता है , कुछ दूर जाकर पुन : अपने मूल स्थान पर लौटकर आता है और फिर दूसरी ओर किसी निश्चित दूरी तक जाकर पुन : पहली ओर जाने के लिए अपने मूल स्थान पर लोटता है । इस सम्पूर्ण क्रिया को एक ‘ आन्दोलन ‘ कहते हैं ।
इन आन्दोलनों की गति से वायु में लहरें उत्पन्न होती हैं । अब यदि इन लहरों की आन्दोलन – संध्या ( जिसे ‘ कंपन – संख्या ‘ या ‘ कंपनांक ‘ भी कहते हैं ) एक सैकिंड में सोलह है अर्थात् एक सैकिंड में सोलह कंपन हैं , तो हम इस ध्वनि को सुन सकते हैं , अन्यथा नहीं ।
जब इन ध्वनि उत्पन्न करनेवाले आन्दोलनों की गति में नियमितता होती है , अर्थात् घटा – बढ़ी नहीं होती , तब ‘ संगीतोपयोगी नाद ‘ या ‘ स्वर ‘ का जन्म होता है । उदाहरण के लिए , जब हम कहते हैं कि षड्ज की आन्दोलन – संख्या 240 कंपन प्रति सैकिंड है , तो हमारा तात्पर्य यह होता है कि वस्तु आन्दोलित हो रही है , उससे प्रति सैकिंड 240 आन्दोलन उत्पन्न हो रहे हैं । यहाँ यह बात और ध्यान में रखनी चाहिए कि जो लसरें ( तरंगें ) इस कंपन के फलस्वरूप वायु में उत्पन्न होती हैं , उनका साधारण रूप इस प्रकार का होता है : –
ऊपर ‘ अ ‘ और ‘ ब ‘ दो चित्र दिए हैं । दोनों में ‘ क – ख ‘ रेखा बराबर है किन ‘ अ ‘ चित्र में केवल एक सम्पूर्ण तरंग हैं , जबकि ‘ ब ‘ चित्र में उतनी ही दूरी में दो तरंगें हैं ।
इसका अर्थ यह समझना चाहिए कि जितनी देर में ‘ अ ‘ चित्र की एक तरंग उत्पन्न होती है , उतनी ही देर में ‘ ब ‘ चित्र की दो तरंगें उत्पन्न होती हैं । अथवा यो कहिए कि ‘ ब ‘ चित्र की कंपन – संख्या ‘ अ ‘ चित्र की कंपन – संख्या से दुगुनी है। दूसरे शब्दा में यह भी कहा जा सकता है कि ‘ ब ‘ चित्र में अंकित नाद ‘ अ ‘ चित्र में अंकित नाद से दुगुना ऊँचा है। अब यदि ‘ अ ‘ चित्र में दर्शाई हुई ध्वनि को हम मध्य – सप्तक का षडज मान लें , तो ‘ ब ‘ चित्र में दर्शाई हुई ध्वनि तार- सप्तक का षड्ज अर्थात् ‘ सा ‘ होगी।
इस आधार पर यह नि : संकोच कहा जा सकता है कि ज्यों – ज्यों आन्दोलन संख्या बढ़ती है , नाद ऊंचा होता जाता है। अतः जब हम यह कहते हैं कि ‘ सा ‘ स्वर ‘ सा’ से ‘ रे ‘ स्वर का नाद ऊँचा है , तो इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि रे ‘ की कंपन – संख्या ‘ सा ‘ की कंपन – संख्या से अधिक है ।
इसी बात को विज्ञान की भाषा में हम यों भी कह सकते हैं कि किसी ध्वनि पर नाद ऊँचा होता जाता है । तरंग की लम्बाई ( Wavelength ) बढ़ते जाने पर नाद नीचा और कम होते जाने पर नाद ऊँचा होता जाता है ।
यहाँ दूसरी बात यह ध्यान में रखने की है कि ज्यों – ज्यों ध्वनि उत्पन्न करने वाले तार की लम्बाई को हम कम करते जाएंगे , त्यों – त्यों नाद ऊँचा होता जाएगा । और ज्यों – ज्यों लम्बाई को बढ़ाते जाएंगे , नाद क्रमशः नीचा होता जाएगा ।
स्मरण रहे कि यहाँ जो कंपन – संख्या होगी , नियमित ही होगी । अनियमित कंपन से तो शोर – गुल ही उत्पन्न होता है । किसी बाजार की भीड़ में या मेले में यदि कोई जोर से चिल्ला रहा हो , कोई धीरे – से बोल रहा हो , किसी ओर बच्चे रो रहे हों या कोई हँस रहा हो , तो इन क्रियाओं के द्वारा वायु में जो कंपन होंगे , वे अनियमित ही तो होंगे । और , ये अनियमित कंपन ‘ शोरगुल ‘ ही कहलाएँगे । इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति कुछ गा रहा है या वाद्य बजा रहा है , तो उसकी आवाज़ के कंपन हवा में नियमित रूप से होंगे और वे अच्छे भी मालूम होंगे । बस , उसे ही हम ‘ संगीतोपयोगी नाद ‘ या ‘ स्वर ‘ कहेंगे ।
2. नाद की तीव्रता, प्रबलता या नाद का छोटा – बड़ापन ( Loudness या Magnitude )
तीव्रता , प्रबलता या नाद का छोटा – बड़ापन ( Loudness या Magnitude ) जो आवाज धीरे – धीरे सुनाई पड़े , उसे ‘ छोटा नाद ‘ कहेंगे और जो आवाज़ ज़ोर – से सुनाई पड़े , उसे ‘ बड़ा नाद ‘ कहेंगे । उदाहरण के लिए यदि किसी घंटे पर आपने नाखून से प्रहार किया , तो ध्वनि बहुत हल्की उत्पन्न होगी और वह थोड़ी दूर तक ही सुनाई देगी । इसके विपरीत यदि हथौड़े से प्रहार किया तो ध्वनि जोर की उत्पन्न होगी और वह अधिक दूर तक सुनाई देगी । यहाँ धीरे से उत्पन्न होने वाली ध्वनि को ‘ छोटा नाद ‘ और जोर से उत्पन्न होनेवाली ध्वनि को ‘ बड़ा नाद ‘ कहेंगे ।
इसका वैज्ञानिक कारण जानने के लिए निम्नलिखित चित्रों को देखिए :
इन दोनों चित्रों की ‘ अ – ब ‘ रेखाएँ बराबर हैं । परन्तु जो तरंग चित्र सं० 1 में है , उसमें जो ‘ स – द ‘ तरंग की चौड़ाई है, वह चित्र सं० 2 की ‘ क – ख ‘ तरंग की चौड़ाई से कम है ।
इसका अर्थ यह समझना चाहिए कि दोनों चित्रों में दर्शाई हुई ध्वनियाँ नाद के ऊँचे – नीचेपन में समान होंगी , क्योंकि तरंग की लम्बाई अर्थात् ‘ अ – ब ‘ समान हैं( ऊपर दिए गए चित्र में ), परन्तु चित्र सं०– 1 की ध्वनि पास तक ही सुनाई देगी और चित्र सं०– 2 की ध्वनि दूर तक । विज्ञान की भाषा में इसे यों कह सकते हैं कि जब ध्वनि – तरंग की चौड़ाई कम होती है तो नाद छोटा होता है , किंतु जब ध्वनि – तरंग की चौड़ाई अधिक होती है तो वह नाद बड़ा हो जाता है । जैसे तारता नादोत्पादक वस्तु की आवृत्ति पर निर्भर है वैसे ही तीव्रता उसके कंपन – विस्तार पर निर्भर होती है ।
3. नाद की जाति या गुण ( Timbre )
नाद की जाति या गुण ( Timbre ) ) नाद की जाति से यह मालूम होता है कि जो आवाज आ रही है , वह किसी मनुष्य की है या किसी वाद्य से निकल रही है । उदाहरणार्थ – एक नाद – हारमोनियम , सारंगी , सितार या बेला से प्रकट हो रहा है और दूसरा नाद – किसी गायक के गले से, तो हम नाद प्रकट होने की क्रिया को देखे बिना ही यह बता देंगे की उनमे से कौन सा नाद वाद्य का है और कौन सा गले का ।
- संगीत की शब्दावली Vocabulary – bani, giti, alptva, nyas, gamak
- पारिभाषिक शास्त्रीय संगीत शब्दावली Vocabulary- vadi, kan, khatka, murki, mend
राग वर्गीकरण का इतिहास काल – Raga/Raag Classification
नाद की परिभाषा के इस लेख में आपको विस्तृत जानकारी प्राप्त हुई, आशा करता हूँ यह आपके लिए लाभप्रद होगी ।
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