घराने की उत्पत्ति – हिन्दुस्तानी संगीत शास्त्रीय संगीत की हिन्दुस्तानी पद्धति में गुरु – शिष्य परम्परा के सन्दर्भ में घरानों का विशेष महत्त्व रहा है । हिन्दुस्तानी संगीत के साथ घराना बड़ी ही घनिष्टता से प्रयुक्त हुआ है , जब भी हिन्दुस्तानी संगीत की बात होती है , घरानों की बात स्वयं सन्दर्भ में आ जाती है । इसलिए घरानों की उत्पत्ति , विकास क्रम आदि का अध्ययन विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है ।
हिन्दुस्तानी संगीत में घराने की उत्पत्ति
हिन्दुस्तानी संगीत में घराने की उत्पत्ति एवं विकास मनुष्यों ने प्राचीन समय से ही अपनी आत्मा की क्रियाशीलता की अभिव्यक्ति करने के लिए विभिन्न प्रकार के माध्यमों का आविष्कार किया , उन्हीं माध्यमों में से एक संगीत है । इस विधा के माध्यम से आत्म – सौन्दर्य बोध की अभिव्यक्ति के साथ – साथ सांसारिकता का भी बोध उत्पन्न होता है । जहाँ पर काव्य , चित्रकला और अन्य दृश्य कलाओं का विकास समय के सापेक्ष पत्थर , पत्तों तथा कागज पर हुआ है , जिसका प्रमाण हमारे पास उपलब्ध है ।
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संगीत का सम्बन्ध श्रवण विधा से है , इसलिए प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक प्रमाण संकलन से पूर्व तक निश्चित जानकारी का प्रायः अभाव पाया गया है कि विभिन्न काल के सापेक्ष संगीत के माध्यम से अभिव्यक्ति का स्वरूप क्या रहा होगा ?
ऐसे सांस्कृतिक अन्तर्सम्बन्धों की विविधता के बावजूद , हमारा संगीत तत्त्वतः रागात्मक रहा है । इसमें एक स्वर दूसरे के बाद आता है और प्रभाव की एक सतत इकाई का सृजन होता है , जबकि स्वर संगति में संगीतात्मक स्वर एक – दूसरे पर अध्यारोपित किए जाते हैं । हमारे शास्त्रीय संगीत ने स्वरमाधुर्य के गुण को बनाए रखा है ।
भारतीय चिन्तनधारा की एक बड़ी मौलिक विशेषता यह रही है कि सभी विधाओं , शास्त्रों व कलाओं आदि का अन्तिम लक्ष्य आत्मानुभूति ही माना गया है । अनेक योगियों व ऋषियों के मनन चिन्तन से भारतीय शास्त्रीय संगीत का रूप स्थिर हुआ , जिसका उद्देश्य परम सत्य की प्राप्ति करना था ।
प्राचीनकाल से शिक्षा को संगठित रूप से पिता द्वारा पुत्र , गुरु द्वारा शिष्य तथा आचार्यों द्वारा गुरुकुल में जाकर शिक्षा ग्रहण करने हेतु प्रशिक्षण दिया जाता था । सम्भवतः इसी गुरु – शिष्य परम्परा ने कालान्तर में विभिन्न क्षेत्रों में घरानों का रूप धारण कर लिया । इन घरानों को विभिन्न व्यक्तियों , राजाओं अथवा कुलीन द्वारा संरक्षण प्रदान किया जाता था । इसलिए कहा जाता है कि घरानों के कारण प्राचीन भारतीय संगीत का स्वरूप सुरक्षित है ।
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घराने की उत्पत्ति सम्बन्धी माने जाने वाले अन्य मुख्य कारण इस प्रकार हैं –
घराने की उत्पत्ति के कारण
राजनैतिक परिस्थितियों के कारण संगीतज्ञों में अशिक्षा , मूढ़ता , संकीर्णता व ईर्ष्या के कारण विकसित स्वार्थपरता के फलस्वरूप घरानों का जन्म हुआ ।
• मुसलमान गायकों के हिन्दू साहित्य , संस्कृति व भाषा से अनभिज्ञ होने के कारण घरानों का जन्म हुआ । वैज्ञानिक यन्त्रों का अभाव होने के कारण व सुनने का अल्प अवसर मिलने के कारण , संगीत के विस्तृत क्षेत्र का ज्ञान न होने से व संकुचित घेरे में ही रहने के कारण एक ही प्रकार की गायकी को मान्यता मिलने के कारण भी घरानों का जन्म हुआ ।
• बादशाहों को प्रसन्न करने हेतु , दरबारी प्रतियोगिताओं को जीतने हेतु , विभिन्न प्रकार के नए – नए चामत्कारिक स्वरों के प्रयोग हेतु , संगीतजीव व संगीतोपासक वर्गों के द्वारा विकसित संगीत में गान शैलियों की विविधता के परिणामस्वरूप घरानों का जन्म हुआ ।
• घरानों की चर्चा का विषय उठते ही, आज विद्वानों ने घरानों की तुलना भाषा से भी करना आरम्भ कर दिया है। विद्वानों के मतानुसार स्वर , ताल व अलंकार वर्ण आदि की प्रधानता व आवाज के लगाव आदि के अन्तर से गायन शैली में अन्तर आ जाता है , जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न घरानों का निर्माण हो जाता है ।
विद्वानों ने भाषा को चार भागों में विभाजित किया है- व्यापक ( Universal ) , वैकल्पिक ( Ulternative ) , विशिष्ट ( Special ) एवं वैयक्तिक ( Individual )
इन्हीं भाषा के वर्गीकरण के आधार पर ही , भाषा की तरह ही घराने बनने के भी पाँच कारण या आधार बताए गए हैं , जो इस प्रकार हैं –
1. स्वर संग्रह भेद ( Difference in Vocabulary )
2. स्वर रचना भेद ( Difference in Syntax )
3. घटकों की प्रमुखता का भेद ( Difference in Emphasis of Constituents )
4. अलंकार या वर्ण भेद ( Difference in Arrangement )
5. उच्चारण भेद ( Difference in Accent )
डॉ . सुमति मुटाटकर
डॉ . सुमति मुटाटकर के अनुसार , “ मध्यकाल की समाप्ति पर दरबारी संगीतज्ञ विभिन्न रियासतों में नियुक्त हो गए , जहाँ उन्होंने निश्चित होकर संगीत साधना की , परन्तु अशिक्षित होने के कारण ये संगीत के प्रति वैज्ञानिक व उदार दृष्टिकोण न अपना सके और दूसरे गायकों के प्रति ईर्ष्या भाव बनाकर इन्होंने स्वयं को ही श्रेष्ठ समझा । ये अपने शिष्यों को भी अपनी कला स्वयं तक सीमित रखने का आदेश दिया करते थे । इस प्रकार संगीतज्ञों के शिष्यों , प्रशिष्यों के रूप में विभिन्न घराने स्थापित हो गए । ”
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