वाग्गेयकार के गुण व दोष – Vaggeykar ( merits & demerits )
वाग्गेयकार के गुण व दोष – ‘ वाक् ‘ और ‘ गेय ‘ से मिलकर ‘ वाग्गेय ‘ शब्द बना है । ‘ वाक् ‘ का अर्थ है पद्य रचना और ‘ गेय ‘ का अर्थ है स्वर – रचना ; इन्हीं को ‘ मातु ‘ और ‘ धातु ‘ कहते हैं । अर्थात् जो स्वर – रचना और पद्य – रचना का ज्ञाता हो , ऐसे संगीत – विद्वान् को प्राचीन काल में वाग्गेयकार की संज्ञा दी जाती थी । पाश्चात्य विद्वान् उसे ‘ कंपोज़र ‘ ( रचयिता ) कहते हैं ।
वाग्गेयकार को साहित्य और संगीत, दोनों का उत्तम ज्ञान होना अति आवश्यक है , तभी वह पद्य – रचना और स्वर – रचना कर सकता है । ‘ संगोत रत्नाकर ‘ में वाग्गेयकार के गुणों का विस्तृत वर्णन इस प्रकार दिया है :-
वाग्गेयकार के गुण व दोष का विस्तृत वर्णन
- वामांतुरुच्यते गेय धातुरित्यभिधीयते । बाचं गेयं च कुरुते य : स वारगेयकारकः ।। १ ।।
- शब्दानुशासनज्ञानमभिधानप्रवीणता छंदः प्रभेदवेदित्वमलंकारेषु कौशलम् ॥ २ ॥ ।
- रसमावपरिज्ञानं देशस्थितिषु चातुरी । मशेषभाषाविज्ञान कलाशास्त्रेषु कौशलम् ॥ ३ ॥
- तूयंत्रितयचातुयुमु हृद्यशारीरशालिता । मयतालकलाज्ञान विवेकोऽनेककाकुष ॥ ४ ॥
- प्रभूतप्रतिमोभेदभाक्त्वं सुभगगेयता । वेशीरागेष्वभिज्ञत्वं बाक्पटुत्वं सभाजये ॥ ५ ॥
- रागढ़वपरित्यागः सात्वमुचितज्ञता अनुच्छिष्टोक्तिनिबंधो नूत्नधातुविनिर्मितिः ।। ६ ॥
- परचित्तपरिज्ञानं प्रबंधेष प्रगल्भता । इततिविनिर्माण पदांतरविदग्धता ।। ७ ।।
- विस्थानगमकप्रौदिविविधालप्तिनपुर । अवधानं गुगर मिर्वरो ॥ पुणम् वाग्गेयकारकः ।। ८ ।।
ऊपर दिए गए आठ श्लोकों का भावार्थ क्रमश : नीचे दिया गया है :-
1. जो ‘ वाक् ‘ यानी ‘ मातु ‘ और ‘ गेय ‘ यानी ‘ धातु ‘ का कर्ता है , अर्थात् जो पद्य – रचना और स्वर – रचना का ज्ञाता है , वह वाग्गेयकार है ।
2. जो व्याकरण – शास्त्र का ज्ञाता , शब्द – ज्ञाता , छंद – ज्ञाता तथा साहित्य – शास्त्र में बताए हुए उपमादिक अलंकारों का ज्ञाता है ।
3. जिसे शृंगार आदि रसों और विभावादिक भावों का उत्तम ज्ञान है और संगीतादि शास्त्रों में प्रवीण जो भिन्न – भिन्न देशों के रीति – रिवाजों तथा उनकी भाषाओं की जानकारी रखते हुए संगीतादि शास्त्रों में प्रवीण है ।
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4. जो गीत , वाद्य और नृत्य , इन तीनों में चतुर है ; जिसे ‘ हृद्य ‘ अर्थात् सुन्दर ‘ शारीर ‘ प्राप्त हुआ है । ‘ शारीर एक पारिभाषिक शब्द है । जो व्यक्ति बिना कठोर परिश्रम के अथवा अभ्यास न करते हुए भी रागों की अभिव्यक्ति अर्थात् राग प्रदर्शन में समर्थ होता है , उसके लिए कहा जाता है कि उसे ‘ हृद्य ( मनोहर ) शारीर प्राप्त है । जो लय , ताल और कलाओं का ज्ञानी है और जिसे भिन्न – भिन्न स्वर काकुओं अर्थात् स्वर – भेदों का ज्ञान है । ( ‘ काकु ‘ भी एक पारिभाषिक शब्द है )
5. जो प्रलिभावान् है ( जिसे नई – नई कल्पनाएँ सूझती हैं ) , जिसे सुखदायक गायन करने की शक्ति प्राप्त है , देशी रागों का जिसे ज्ञान है और जो सभा में अपनी वाक् – पटुता ( व्याख्यान – चातुरी ) के बल से विजय प्राप्त कर सकता है ।
6. जिसने राग – द्वष का परित्याग करके सरसता धारण की है , उचित – अनुचित का जिसे ज्ञान है , अर्थात् किस स्थान पर कौनसी चीज उचित है , जो यह जानता है । जिसमें स्वतन्त्र रचना करने की शक्ति है और जो नई – नई स्वर रचना करने का ज्ञान रखता है ।
7. जो दूसरों के मन का भाव जानने की शक्ति रखता है , जिसे प्रबन्धों का उच्च ज्ञान प्राप्त हो, जो शीघ्रता से कविता रचने की सामर्थ्य रखता है और जिसमे भिन्न – भिन्न गीतों की छायाओं का अनुकरण करने की शक्ति है ।
8. जो तीनों स्थानों ( मंद्र , मध्य , तार ) में गमक लेने की शक्ति रखता है जो रागालप्ति तथा रूपकालप्ति में निपुण है और जिसमें चित्त की एकाग्रता का गुण है ।
उपर्युक्त सभी गुण जिस व्यक्ति में विद्यमान हों , वही उत्तम वाग्गेयकार बताया गया है ।
मध्यम और अधम वाग्गेयकार
मध्यम और अधम वाग्गेयकार के लिए शास्त्रों में इस प्रकार लिखा है :-
विदधानोऽधिकं धातुं मातु दस्तु मध्यमः । धातुमातुविदप्रौढ़ः प्रबंधेष्वपि मध्यमः ॥ रम्यमातुविनिर्माताऽप्यधमो मंदधातुकृत् ।
भावार्थ :- जो स्वर – रचना अर्थात् धातु में प्रवीण है और मातु ( पद्य – रचना ) में मंदबुद्धि है , वह मध्यम श्रेणी का वाग्येयकार है और जो स्वर – रचना अर्थात् स्वर लिपि करने का ज्ञान रखता हो और पद्य रचना ( मातु ) का भी अच्छा ज्ञानी हो , किन्तु भिन्न – भिन्न प्रकार के प्रबन्ध – गायन में कुशल न हो , वह भी मध्यम श्रेणी में ही आता है ।
अधम वाग्गेयकार वह है , जिसे केवल शब्द – ज्ञान तो हो , किन्तु पद्यः जना ( कविता ) तथा स्वर – रचना ( स्वर लिपि ) का ज्ञान नहीं हो ।
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