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लोकवाद्य यन्त्र की विस्तृत जानकारी – Lok Vadya yantra

लोकवाद्य यन्त्र

लोकवाद्य की विस्तृत जानकारी

लोक संगीत में लोकवाद्य का प्रमुख स्थान रहा है , यह इसका प्रमुख अंग है । इस अध्याय में हम लोक गीत संगीत में प्रयुक्त होने वाले लोकवाद्य यन्त्र के बारे में विस्तार से जानेंगे ।

लोकवाद्य – लोकसंगीत जन – जीवन के उल्लास और उसकी भावनाओं का प्रतीक होता है । लोकगीत मानव हृदय के सरल भाव हैं , जिन्हें वह शब्दों और स्वरों के माध्यम से व्यक्त करता है । गीतों में लय की प्रमुखता होती है , जिसके लिए वाद्य की आवश्यकता हुई , फलस्वरूप लोकगीतों में वाद्यों का प्रयोग प्रारम्भ हुआ । पौराणिक गाथाओं में भी हम वाद्यों को किसी – न – किसी रूप में पाते हैं ; जैसे शिव का डमरू , कृष्ण की बंसी , विष्णु का शंख इत्यादि । लोकजीवन में आनन्द और उत्साह बढ़ाने में वाद्यों का सदैव ही प्रयोग होता आया है । नृत्य और गीत दोनों वाद्यों पर ही आधारित होते हैं । अत : लोकजीवन में इन कलाओं को सुरक्षित रखने में वाद्यों ने समुचित सहायता दी है । विभिन्न लोकवाद्य ने हमारे जीवन के साधन और भक्ति पक्ष को सदैव बल दिया है ।

लोकगीतों में प्रयुक्त लोकवाद्य हमारे वर्तमान जीवन में भी हैं । लोकजीवन में जितना महत्त्व लोकगीतों का है उतना ही महत्त्व लोकवाद्य और नृत्य का है ।

लोकगीतों में प्रयुक्त वाद्य और नृत्य एक – दूसरे के सहगामी हैं । भिन्न – भिन्न अवसरों पर भिन्न – भिन्न अभिव्यक्तियों के लिए लोकगीतों में अनगिनत वाद्ययन्त्र प्रयुक्त होते हैं । लोकसंगीत में कुछ विशेष वाद्यों का प्रयोग होता है , जिनका विकास और प्रसार लोकजीवन तक ही सीमित है । उत्तर भारत में लोकसंगीत में प्रयुक्त होने वाले स्वर वाद्यों में एकतारा , रावण हत्था , घण्टी , चिकारा इत्यादि का प्रयोग होता है । भिन्न – भिन्न प्रान्तों में इनके रूप में तथा बनावट के अनेक भेद प्रचलित हैं । सुषिर वाद्यों में बाँसुरी मुख्य वाद्य है । अवनद्ध व घन वाद्यों में ढोलक , खण्डी , झाँझ और करताल उल्लेखनीय हैं । लोकवाद्य में ढोलक सबसे महत्त्वपूर्ण ताल वाद्य है । पंजाब से राजस्थान तक तथा उत्तर प्रदेश से हिमाचल प्रदेश तक इनका प्रमुख स्थान है । इसलिए प्रमुख वाद्ययन्त्रों का अध्ययन आवश्यक है ।

लोकवाद्य यन्त्र

लोकवाद्य यन्त्र – वे ध्वनि यन्त्र जिनसे सांगीतिक ध्वनि उत्पन्न की जाती है , उन्हें वाद्ययन्त्र कहते हैं । वाद्ययन्त्र सभी प्रकार के संगीत में गायन , वादक व नृत्य सभी विधाओं में प्रयोग में लाए जाते हैं । संगीत में वाद्यों के चार प्रकार होते हैं –

1. तत् वाद्य या तन्तु वाद्य – लोकवाद्य

तत् वाद्य या तन्तु वाद्य इस श्रेणी के वाद्यों में तारों द्वारा स्वरों की उत्पत्ति की जाती है , जिसमें तारों पर किसी अंगूठीनुमा वस्तु या किसी अन्य वस्तु की सहायता से आघात करते हुए अनि उत्पन्न की जाती है । तन्तु वाद्य भी दो प्रकार के होते हैं ,

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( 1 ) तत् वाद्य या तन्तु वाद्य के प्रथम प्रकार में तार के वे साज आते है , जिन्हें मिजराब या किसी अन्य वस्तु की सहायता से टंकोर ( खींचकर या घर्षण द्वारा ) देकर बजाते हैं । जैसे – वीणा , सितार , एकतारा , दुतारा

( 2 ) वितत् वाद्य – वितत् वाद्य की श्रेणी में तार के वे साज आते हैं , जिन्हें गज की सहायता से बजाते हैं । गज लकड़ी की एक छड़ होती है , जिसमें घोड़े के बाल से बना तार खूटी से बंधा होता है । अतः गज की सहायता से बजने वाले वाद्य है । जैसे – सारंगी , इसराज आदि ।

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प्रमुख तत् वाद्य या तन्तु वाद्य

प्रमुख तत् वाद्य यन्त्र या वितत् वाद्य यन्त्र निम्नलिखित है –

एकतारा

भक्ति संगीत में स्वर देने के लिए एकतारा वाद्य का प्रयोग किया जाता है । भिक्षक व साधु सन्त लोग एकतारा लेकर भजन गाया करते हैं । इसकी बनावट बहुत साधारण होती है । किसी तुम्बे पर दो – तीन हाथ का बाँस जोज़ दिया जाता है , तुम्बे को आधा चमड़े से मढ़ देते हैं , इसके बाद बाँस में लगी खूण्टी के आश्रय से एक तार लगाते हैं । वर्तमान एकतारा केवल एक ही स्वर उत्पन्न करता है , जिसे हम आधार स्वर मान लेते है , उसी आधार पर गायक अपना गाना गाते हैं ।

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• घुमक्कड़ साधुओं के पास प्रायः एकतारा होता है , जिस पर वे ‘ स्वान्तः सुखाय ‘ भजन गाते है । एक तार लगा हो तो ‘ एकतारा ‘ और दो तार लगे हो , तो उसी को ‘ दोतारा ‘ कहते है ।

सारंगी

सारंगी • लोकवाद्य में सारंगी मुख्यतः सभी जगह प्रचलित वाद्य है और इसकी बनावट में भी कोई अन्तर नहीं है , लेकिन अपनी – अपनी सुविधा की दृष्टि से इसमें लगे हुए तारों की संख्या में अन्तर पाया जाता है । .जोगिया सारंगी में ताँत के तीन तार लगे होते हैं , राजस्थान के लंगाओं में प्रचलित सारंगी में चार मुख्य तार और आठ सहायक तार होते हैं , जिसे गुजरातन सारंगी कहते हैं । सिन्धी सारंगी जिसमें दो लोहे के और दो ताँत के , चार मुख्य तार , सत झारा और सत्रह तरह के तार होते हैं , घानी सारंगी में मुख्य दो लोहे के और दो ताँत के तार होते हैं । राजस्थान में मंगा जाति द्वारा प्रयोग होने वाले वाद्य की कामाइचा वादन क्रिया सारंगी से मिलती – जुलती है । जैसलमेर में मार्गणियार जाति के लोग आलुष सारंगी का प्रयोग करते हैं । यह भारतीय शास्त्रीय सारंगी से मिलती है तथा लोक सारंगी का विकसित रूप है ।
• प्राचीनकाल से ही मानव अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए गीत , वाय , नृत्य को माध्यम बनाता आया है । सभी वर्गों की भाषा , कला और संस्कृति एक – दूसरे से भिन्न होती हैं , इसलिए उनके उत्पादन भी अलग – अलग होते हैं । , वा और नृत्य समाज , देश और काल के अनुसार अपना अलग अस्तित्व और अलग सौन्दर्य रखते है ।

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विचित्र वीणा

विचित्र वीणा तार से बजने वाला यत्र तत् वाद्य है । कर्नाटक संगीत में गोटवाद्यम से निकला यह यन्त्र एक लकड़ी के गोलाकार यन्त्र तथा मिजराव की सहायता से बजाया जाता है । इसकी तारें हाथी दाँत की पट्टी पर कसी होती है । अब यह लुप्त होने की कगार पर है , क्योंकि इसे बजाने वाले भारत में निम्न लोग ही बचे हैं डॉ . लालमणि मिश्र , पण्डित गोस्वामी गोकुलनाथ , उस्ताद जमालुद्दीन खाँ , उस्ताद हबीब खान , अजीत सिंह आदि इसके विख्यात वादक रहे हैं ।

रावणहत्था

रावणहत्था – यह राजस्थान का प्राचीनतम लोकवाद्य है , जिसे नारियल के ऊपर बाँस लगाकर बनाया जाता है । कसे हुए चमड़े पर सुपाड़ी की लकड़ी की घोड़ी या घुड़च लगाकर नौ तार लगाए जाते हैं । गज से सारंगी की भाँति इसका वादन किया जाता है । राजस्थान के भोपे इसके वादन से प्रायः पाबूजी की लोककथा का गायन करते हैं । गज के तार और रावणहत्था का प्रमुख बाज का तार घोड़े की पूँछ के बालों का होता है । गज में ताल देने के लिए घुघरू बँधे होते हैं । रावणहत्था को ‘ आदि वीणा ‘ भी कहा जाता है । इसका प्रयोग कथा वाचकों द्वारा किया जाता है ।

कामाइचा

कामाइचा • यह सारंगी की तरह का वाद्य है , जिसकी तबली गोल होती है । इसमें सत्ताईस तार होते हैं । स्वरों में गूंज और गम्भीरता के कारण कामाइचा की ध्वनि का प्रभाव कुछ अलग प्रकार का होता है ।

• यह मराठी सारंगी से मिलता – जुलता वाद्य है । नाथ – पंथी साधु कामाइचा पर वाद्य है । भतृहरि एवं गोपी चन्द की कथा के ही गीत गाते हैं । यह राजस्थान का प्रमुख

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रबाब

रबाब • सर्वप्रथम अहोबल के संगीत पारिजात में रबाब का उल्लेख मिलता है । इसका पेट सारंगी से कुछ लम्बा त्रिभुजाकार तथा डेढ़ गुना गहरा होता है । शास्त्रीय संगीत का वर्तमान सरोद इसी का परिष्कृत रूप है , इसमें तीन से सात तार तक होते हैं ।

• यह वाद्य अफगानिस्तान से पंजाव तक प्रचलित रहा है और अनेक उत्कृष्ट रबाबियों की परम्परा में एक प्रतिष्ठित लोकवाद्य के रूप में इसकी ख्याति रही है । इसे जबा से बजाया जाता है ।

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2. सुषिर वाद्य – लोकवाद्य

2. सुषिर वाद्य सुषिर वाद्य फूंक या हवा की सहायता से बजने वाले वाद्ययन्त्र होते हैं ; जैसे – बीन , हारमोनियम , शहनाई , बाँसुरी आदि ।

प्रमुख सुषिर वाद्ययन्त्र

प्रमुख सुषिर वाद्ययन्त्र निम्नलिखित हैं अलगोजा • तीन या चार छिद्रों वाले बाँस से बनी बाँसुरी को ‘ अलगोजा ‘ या ‘ मुरली ‘ कहते हैं ।

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अलगोजा

अलगोजा ‘ दो होते हैं , जिन्हें एक साथ मुँह में दबाकर फूंक से बजाया • दोनों अलगोजे एक – दूसरे के पूरक होते हैं । जानवरों को चराते समय या मेले उत्सव का प्रतीक है । इत्यादि के अवसर पर अलगोजा की ध्वनि गूंज उठती है । मानो अलगोजा उत्सव का प्रतीक है । 

सिंगी

सिंगी , सींग या शृंग एक ही वाद्य है । यह भैसे और हिरन के सींग का बना होता है अथवा धातु से बनाया जाता है । कण्ठ से उत्पन्न ध्वनि को दबाकर वायु के सहारे से सिंगी द्वारा वादन करने पर तीन – चार स्वर निकलते हैं । . लोकजीवन में सिंगी – वादन के द्वारा अलग – अलग अवसरों पर इच्छित प्रभाव उत्पन्न किया जाता है । युद्ध के समय बजने इसे रण – सिंगा भी कहते हैं ।

नफीरी / शहनाई

नफीरी . नफीरी को ‘ सहनाई ‘ या सुन्दरी ‘ भी कहते हैं । इसका शुद्ध नाम है ‘ शहनाई । यह एक हाथ लम्बी लाल चन्दन की लकड़ी की बनी होती है , जिसमें आठ छेद होते हैं । इसका मुख चार अंगुल लम्बा होता है , जिसमें हाथी – दाँत के पत्ते लगे रहते हैं । इन्हें मुख में दबाकर फूंक से बजाते हैं , इसलिए इसे सुनादी भी कहते हैं । दक्षिण में इसके अनेक आकार – प्रकार मिलते हैं । वहाँ ‘ शहनाई ‘ के कुछ लम्बे रूप को नागस्वरम् के नाम से जाना जाता है । लोक में सभी मांगलिक पर्व ‘ नफीरी ‘ या ‘ शहनाई से आरम्भ होते हैं ।
• माता या भैरव का गुणगान करने के लिए राजस्थान के भोपे लोग मशक की तरह के जिस वाद्य को फूंक द्वारा बजाते हैं , उसे ‘ नई ‘ कहते हैं । उत्तर भारत में इस भोपे को बीन ‘ कहा जाता है । मुँह की फूंक द्वारा मशक में पहले पूरी हवा भर ली जाती है , फिर बाँसुरी की तरह उसमें लगी हुई नली के तीन छिद्रों पर अंगुली के संचालन से स्वर उत्पन्न किए जाते हैं । एक बार भरी हुई हवा काफी देर तक काम देती है ।

तुरही

तुरही • यह लोकवाद्य यन्त्र लगभग चार हाथ लम्बी ‘ तुरही धातु से बना होता है , जिसे प्रायः मांगलिक पर्वो पर बजाया जाता है । महाराष्ट्र में इसका बहुत प्रचार है । • इसमें कोई छिद्र नहीं होता , केवल हवा फूंककर उसमें विभिन्न दबावों से ऊंचे – नीचे स्वरों की उत्पत्ति की जाती है , इसीलिए इसमें दो – तीन स्वर बहुत तेज आवाज से निकलते हैं । इसकी आकृति अर्द्धचन्द्राकार रूप में होती है ।

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बीन

बीन • यह सपेरों का मुख्य वाद्य है , जिसे पुंगी भी कहते है । इससे छोटी लुम्बी में बाँस की दो नलिकाएँ लगी रहती है और बजाने वाले हिस्से में काठ की एक मुलायम नली रहती है । • इसमें तीन या चार छेद होते हैं और उन्हीं पर वादन करके सँपेरे साँप को झुमाते हैं । इसकी लम्बाई लगभग सवा हाथ की होती है ।

हारमोनियम

Harmonium

हारमोनियम ” हारमोनियम हिन्दुस्तानी संगीत का सर्वाधिक लोकप्रिय वाद्य है । इसका प्रयोग शास्त्रीय संगीत के साथ – साथ लोकसंगीत में भी होता है । आज की पारम्परिक घरेलू महिला संगीत में तथा विभिन्न सामाजिक अवसरों या तीज – त्यौहार पर नाए जाने वाले गीतों में , बिना हारमोनियम और ढोलक के संगीत कठिन है । ‘ विशेषतः उत्तर भारत में हारमोनियम का प्रयोग मुख्यतः संगीत वाद्य में होता है । हारमोनियम लकड़ी की पेटी से बना होता है , जिसमे काली व सफेद पट्टियाँ लगी होती है । इसमें तीन सप्तकों के स्वर होते हैं ।

शंख

शंख • यह एक आदि वाद्य है , जिसे प्रकृति ने मनुष्य को दिया है । सागर – तल के समुद्री जीव का ढाँचा ही शंख कहलाता है । मन्दिरों में पूजा के समय इसका प्रयोग किया जाता है । प्राचीनकाल में युद्ध की शुरुआत शंख वादन से ही होती थी । इसका पेट वारह अंगुल का होता है । हक संककर शख वादन किया जाता है , जिसमें वायु के दवाब और होठों की गति से एक ही स्वर को तुरही वादन की तरह ऊँचा – गौचा करके प्रसारित किया जाता है । कुछ लोग अपनी कुशलता से इसमें विभिन्न स्वर बजा देते है । ख ‘ असेक आकार – प्रकार के होते है , जिनमे सभी वादन के योग्य नहीं होते हैं ।

3. अवनध वाद्य – लोकवाद्य

३.अवनध वाद्य चमड़े से सड़े हुए बाध अवनध वाद्य कहलाते है । इसमें व्यक्ति को हाथ या लकड़ी से चमड़े की सतह पर प्रहार करना पड़ता है । इसके पश्चात् उससे ध्वनि सिकलाती है , जिससे गाने के साथ मनोरंजन किया जाता है । अवनध वाद्य के प्रमुख उदाहरण क्रमशः मृदंग , ढोलक , डफ , तबला आदि है ।

प्रमुख अवनध वाद्य

प्रमुख अवनध वाद्य निम्नलिखित है –

डमरू

शिवजी का डमरू विश्व प्रसिद्ध है । बन्दर नचाने वाले नट , जादूगर तथा जोगी लोगों का यह एक प्रतीक बाध है । एक से दो बालिस्त तक लम्बा ‘ डमरू ‘ दोनों सिरो पर चमड़े से मना होता है । इनके दोनो मुख रस्सी से कसे होते हैं । इसके बीच का हिस्सा एकदम पतला होता है , जिसमें एक रस्सी अल्प से लटकी रहती है और रस्सी के मुख पर मुण्डो बनी रहती है । • हाथ को इधर – उधर घुमाने से पुण्डीदार रस्सी डमरू के दोनों मुखड़े को चोट करती है , तो डिम – डिम – डिम – डिम ‘ जनि निकालती है । इसके तोटे वार को इस – दुगी ‘ या डिम – डिमी ‘ कहते है ।

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चंग ( डफ )

चंग ( डफ ) • चार अंगुल चौड़े लकड़ों के घेरे से मढ़ा हुआ यह चक्राकार वाद्य 16 से 22 अंगुल व्यास तक का होता है । इसे बाएँ हाथ से पकड़कर ह्रदय के समीप स्थित कर दाहिने हाथ की पान द्वारा बजाते हैं । इसके छोटे स्वरूप को उपलो ‘ या डफली ‘ कहते है । चंग के द्वारा लोक याओ को प्रस्तुति की जाती है । होली पर ग्रामीण लोग इसके साथ लोकगीत गाते है । चंग के बड़े स्वरूप ‘ डफ ‘ कहलाते है ।
• उरुलो के घेरे में तीन या चार जोड़ो झांझ लगे हो , तो उसे खंजरी ‘ कहते है । इसका वादन ‘ चरी ‘ की तरह हाथ की थाप से किया जाता है । ग्रामीण क्षेत्रों का यह प्रसिद्ध वाद्य है । बांसुरी के साथ इसका वादन मनोहारी होता है ।

ढोल ( मृदग )

Dhol, Madal

ढोल ( मृदंग ) • ढोल का आकार बेलन के समान होता है , जो अन्दर से खोखला रहता है तथा दोनों ओर से चमड़े से मढ़ा रहता है । इसे दाहिने हाथ की हथेली से विवाह इत्यादि के अवसरों पर बजाते हैं । • एक हाथ में लकड़ी लेकर आघात किया जाता है और दूसरे हाथ में अंगुलियों तथा हवेली पंजे से ताइन किया जाता है । शायद ही कोई ऐसा प्रान्त होगा जहाँ ढोल ‘ का कोई – न – कोई रूप प्रचलित न हो । ढोल की विभिन्न आकृतियां पाई जाती है , इसे मादल ‘ आदि नामो से भी पुकारा जाता है ।

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ढोलक

ढोलक • यह ढोल की भांति छोटे आकार की होती है , जिसे दोनो हाथों से बजाया जाता है । मांगलिक पलों पर स्त्रियों के गीत प्रायः ‘ ढोलक ‘ की ताल पर ही लोक गीत – विवाह गीत आदि को गाती है । 

ताशा

ताशा • यह मुगलकालीन वाद्य है । मिट्टी की दो बालिश्त व्यास की कटोरी जैसे वाद्य को जब चमड़े से मढ़ दिया जाता है , तो उसे ‘ ताशा ‘ कहते हैं । दोनों हाथों में दो डाण्डियाँ ( खपच्चियाँ ) लेकर तड़बड़ – तड़बड़ जैसे शब्द निकाले जाते हैं । ‘ ताशा ‘ को गले में लटका लिया जाता है और ‘ ढोल ‘ के आश्रय से विभिन्न लयकारियाँ प्रस्तुत की जाती हैं ।

नगाड़ा ( नक्कारा )

Nagada

नगाड़ा ( नक्कारा ) ढोल की थाप और नगाड़े की चोट मशहूर है । प्याली – नुमा मिट्टी या लकड़ी की कुण्डी को चमड़े से मढ़कर ‘ नगाड़ा ‘ बनता है । दो नुकीली लकड़ियों के द्वारा प्रायः लोकगीत में , नौटंकी के तमाशे में , नगाड़ा – वादन किया जाता है और ताल व लय के विविध रूप प्रस्तुत किए जाते हैं । • इसे ‘ नक्कारा ‘ भी कहते हैं । ‘ ढोल ‘ और ‘ नक्कारा ‘ के सम्मिलित वादन को ‘ नौबत ‘ कहते हैं । ‘ नगाड़े का छोटा रूप दमामा ‘ कहलाता है ।

4. घन वाद्य – लोकवाद्य

4. घन वाद्य किसी भी धातु से बने वाद्य जिन पर चोट या आघात द्वारा स्वर उत्पन्न किए जाते हैं , उसे घन वाद्य कहा जाता है । इन्हें ‘ लोहज ‘ भी कहा जाता है । पं . अहोबल ने इसे जल तरंग के वर्ग का यन्त्र माना है अत : मंजीरा , घुघरू , झाँझ , चिमटा , घण्टी आदि प्रमुख घन वाद्य हैं ।

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प्रमुख घन वाद्ययन्त्र

प्रमुख घन वाद्ययन्त्र निम्नलिखित हैं घण्टा ( घड़ियाल ) एक बालिश्त से दो बालिश्त के व्यास वाला पीतल या अन्य धातु का गोलाकार टुकड़ा ‘ घण्टा ‘ कहलाता है , जिसे एक डोरी से लटकाकर लकड़ी के हथोड़े से चोट करके बजाया जाता है । • इसका प्रयोग मन्दिरों में पूजा – अर्चना के समय किया जाता है । आकृति की विविधता से ‘ घण्टे ‘ छोटे – बड़े होते हैं । लटकने वाले ‘ घण्टे ‘ जो केवल डोरी हिला देने से बज जाते हैं , प्रायः देवालयों में लटके रहते हैं । घड़ियाल भी इसी परिवार का धातु निर्मित वाद्य होता है ।

कठताल ( खड़ताल )

कठताल ( खड़ताल ) • लकड़ी के बने हुए ग्यारह अंगुल लम्बे गोल डण्डों को ‘ कठताल ‘ कहते हैं । दोनों टुकड़े हाथ में ढीले पकड़कर बजाए जाते हैं , जिससे कट – कट की ध्वनि निकलती है । अन्य वाद्यों के साथ केवल ताल और लय में चमक उत्पन्न करने के लिए ‘ कठताल ‘ बजाए जाते हैं । • लकड़ी के दो डण्डों से भी इस प्रकार वादन किया जाए तो उन्हें डण्डा ( चट्टा ) कहते हैं । कठताल – वादन के प्रभाव में तीव्रता और विचित्रता के लिए लकड़ी की कंघी और अनाज फटकने वाले सूप को भी गाने के साथ प्रयोग में लाया जाता है , जिसके वादन में केवल इच्छित मात्राओं पर ताल देना ही वादन का लक्ष्य रहता है ।

मंजीरा

मंजीरा • आठ से सोलह अंगुल व्यास तक के धातु के गोल टुकड़े झाँझ कहलाते हैं । झाँझ का छोटा स्वरूप मंजीरा कहलाता है । इनके मध्य में डोरी निकालकर तथा उस पर कपड़ा बाँधकर हाथ से पकड़ने योग्य कर लेते हैं और फिर एक – एक हाथ में एक – एक टुकड़ा पकड़कर दोनों को एक – दूसरे के आघात से बजाते हैं , जिससे मनचाही झंकार निकाली जाती है । • प्रायः देवी – देवताओं की स्तुति के समय ‘ झाँझ – मंजीरा ‘ का वादन किया जाता है । धातु को ‘ थाली ‘ पर भी लकड़ी से चोट लगाकर झाँझ – जैसी ध्वनि उत्पन्न की जाती है । 

घुघुरू

धातु के गोल टुकड़े ‘ घुघुरू ‘ कहलाते हैं , जिनके अन्दर लोहे या कंकड़ की छोटी – छोटी गुटिकाएँ डाल दी जाती हैं । बहुत सारे घुघरूओं को इकट्ठा करके किसी डोरी से बाँधकर एक लड़ी बना ली जाती है । इसी लड़ी को पैरों में बाँधकर नर्तक लोग नृत्य करते हैं । कुछ लोग तबला – वादन के समय एक हाथ में धुंघरू बाँधकर इस तरह वादन करते हैं मानो दो व्यक्ति अलग – अलग बजा रहे हों । छोटे आकार के चाँदी के धुंघरूओं से पैरों का जो जेवर बनाया जाता है , उसे ‘ पायल ‘ , ‘ पायजेब ‘ या ‘ पैजनियाँ ‘ कहते हैं । घुघरूओं को घघरिया और क्षुद्रघण्टिका नामों से भी पुकारा जाता है । ‘ धुंघरू ‘ के बिना किसी भी नृत्य की कल्पना नहीं की जा सकती ।

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चिमटा

चिमटा लोहे की दो – तीन हाथ लम्बी दो पट्टियों को मिलाकर ‘ चिमटा ‘ बनता है । पट्टियों के बीच में झंकार के लिए लोहे की गोल – गोल पत्तियाँ लगा दी जाती हैं । बाएँ हाथ में एक ओर चिमटा पकड़कर दाहिने हाथ में अंगूठा और अंगुलियों के झटके से भजन – कीर्तन के समय ‘ चिमटा ‘ बजाए जाने का प्रचलन है ।

मुँहचंग या मोरचंग

मुखचंग इसे मुँहचंग या मोरचंग भी कहते हैं । इसका आकार त्रिशूल की तरह होता है । इसकी लम्बाई पाँच अंगुल की होती है । मुखचंग को दाँतों से दबाकर बीच की पत्ती को अँगुली द्वारा स्प्रिंग की तरह झटकाकर बजाते हैं । मुख द्वारा हवा फेंकने से जू – जू की ध्वनि पत्ती के कम्पनों से मिलकर ऊँची – नीची आवाज में गूंजती रहती है , इसे सुषिर वाद्य भी कह सकते हैं और अवनद्ध वाद्य भी । लोकवाद्य को सम्मिलित रूप में बजाते समय उनमें ‘ मुखचंग ‘ की ध्वनि अपना एक अलग ही आकर्षण रखती है ।

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मटका 

मटका  • पानी रखने वाला या दाल पकाने वाला मिट्टी का बड़ा मटका स्वयं में एक प्रभावकारी ताल वाद्य है , जिसका सबसे अधिक प्रचार दक्षिण – भारत में है । ‘ मटके को गोद में रखकर दोनों हाथों की अंगुलियों तथा हथेलियों के ‘आघात द्वारा वादन किया जाता है । • उत्तर भारत में मटका लोकवाद्य की श्रेणी में गिना जाता है और दक्षिण में घटम् ‘ के नाम से शास्त्रीय वाद्यों में गिना जाता है । 

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इस अध्याय में बस इतना ही , सप्त स्वर ज्ञान से जुड़ने के लिए दिल से धन्यवाद ।

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