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संगीत में ताल किसे कहते हैं ?
संगीत में ताल किसे कहते हैं ? संगीत में ताल का मुख्य स्थान है । वास्तव में ताल ही संगीत का आधार है । जिस प्रकार मानव शरीर में प्राण तत्त्व का अभाव हो जाए , तो वह मिट्टी के समान हो जाता है , ठीक उसी प्रकार संगीत में ताल का अभाव होने से संगीत निष्प्राण हो जाता है । भारतीय संगीत में ताल परम्परा प्राचीनकाल से ही चली आ रही है । ताल लय को दर्शाने की क्रिया है । ताल शब्द की उत्पत्ति के विषय में कई मत प्रचलित हैं । प्रसिद्ध संस्कृत ग्रन्थ ‘ संगीतार्णव ‘ के अनुसार ताण्डव ( पुरुष ) नृत्य से ‘ ता ‘ तथा लास्य ( स्त्री ) नृत्य से ‘ ल ‘ वर्णों के संयोग से ताल शब्द बना है ।
दामोदर कृत ‘ संगीत दर्पण ‘ ग्रन्थ में वर्णित है कि ताल शब्द ‘ ताकार ‘ ( शिव ) तथा ‘ लकार ‘ ( शक्ति ) के योग से बना हुआ है । ताल शब्द की उत्पत्ति से सम्बन्धि ऐसे कई लक्षण प्राचीन ग्रन्थों में मिलते हैं , परन्तु सभी ग्रन्थों में एक ही भाव है । शब्दों ( ता , तक , धिं आदि ) द्वारा काल या समय की गति को छन्द या पदों में विभाजित करने के जो प्रयोग हुए हैं , उन्हें ही ताल कहा जाता है ।
संगीत रत्नाकर के अनुसार , “ ताल वह है जिसमें नृत्य , वाद्य एवं गीत प्रतिष्ठित रहते हैं । ” प्रतिष्ठा का अर्थ होता है – व्यवस्थित करना , स्थिरता प्रदान करना ।
भरतमुनि के अनुसार , “ संगीत में काल मापने के साधन को ‘ ताल ‘ कहते हैं , जिस प्रकार भाषा में व्याकरण की आवश्यकता होती है , उसी प्रकार संगीत का मुख्य पहलू ताल है । ’’
संगीत में ताल की आवश्यकता
• बिना ताल के संगीत अधूरा होता है । ताल के बिना स्वरों का आनन्द हृदय में उल्लास का सृजन करने में असमर्थ होता है । यदि मानव अनिबद्ध ( तालविहीन ) संगीत ही सुनता रहे , तो हृदय में उदासीनता आने लगती है । दूसरी ओर जैसे ही ताल , शब्द एवं स्वरों का समन्व होता है , हृदय में उल्लास आ जाता है ।
• संगीत में छन्द तथा ताल ही वास्तव में स्वरों को गति प्रदान करते हैं । ताल , संगीत को एक निश्चित नियम या समय के बन्धन में बाँधती है । ताल ही संगीत में विभिन्न सौन्दर्यपूर्ण चलन – शैलियों का विकास करती है । ताल संगीत को अनुशासित कर उसके सुगठित रूप एवं चामत्कारिकता से श्रोताओं को आत्म – विभोर करती है । यह ताल ही है , जिसके द्वारा प्राचीन तथा वर्तमान संगीत को स्वर तथा बोल लिपि द्वारा भविष्य के लिए सुरक्षित रखना सम्भव हुआ है ।
ताल की संरचना
ताल संरचना के आधार पर मुख्यतः दो प्रकार की तालों का वर्णन मिलता है जो निम्न प्रकार हैं । 1. समपदी तालें 2. विषमपदी तालें
संगीत में समपदी ताल किसे कहते हैं ?
इन तालों में सभी इस प्रकार की तालें आती हैं , जिनके पद समान होते हैं अर्थात् जिनके हर एक विभाग में मात्राओं की समान संख्याओं का प्रयोग किया जाता है । उन्हें समपदी ताल कहा जाता है , इसके अन्तर्गत निम्नलिखित तालें आती हैं ।
- सूलताल इसके पाँच विभागों में दो – दो मात्राओं को रखा गया है ।
- एकताल चारताल इसके छः विभागों में दो – दो मात्राओं का विभाजन किया गया है ।
- तीनताल इसके चारों विभागों में चार – चार मात्राओं का प्रयोग किया जाता है .
- कहरवा ताल इसके दोनों विभागों में चार – चार मात्राओं का प्रयोग किया गया है ।
- दादरा ताल इसके दोनों विभागों में तीन – तीन मात्राओं का प्रयोग किया गया
विषमपदी ताल किसे कहते हैं ?
इसके अन्तर्गत वे सभी तालें आती हैं , जिनके पद असमान हों अर्थात् जिनके विभागों में अलग – अलग दो प्रकार की मात्राओं एवं संख्याओं का प्रयोग होता हो , उन्हें विषमपदी ताल कहते हैं । विषमपदी तालों को अर्द्धसमपदी ताल भी कहा जाता है । इसके अन्तर्गत निम्नलिखित तालों का प्रयोग किया जाता है
- झपताल इसके चारों विभागों के अन्तर्गत तीन चार , तीन , चार मात्राएँ आती हैं ।
- झूमरा , दीपचन्दी ताल इसके विभागों के अन्तर्गत तीन चार , तीन , चार मात्राएँ आती हैं ।
- मिश्रपदी तालें इसके अन्तर्गत वे सभी प्रकार की तालें आती हैं , जिनके हर एक विभाग में बहुत सारी पृथक् मात्राओं एवं संख्याओं का प्रयोग किया जाता है । अर्थात् जिसके विभागों में कभी भी एकसमान मात्रा नहीं मिलती है । उन्हें मिश्रपदी ताल कहते हैं ; जैसे-
- धमार ताल इसके चारों विभागों के अन्तर्गत पाँच , दो , तीन , चार , मिश्रपदी ताल भी कहा जाता है । पृथक् – पृथक् मात्रा संख्या का विभाजन किया गया है , इसलिए यह मिश्रपदी ताल भी कहा जाता है ।
ताल के 10 प्राण क्या हैं ? दस Praan of TaaL
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