ताल किसे कहते हैं ?
ताल किसे कहते हैं ? – संगीत रत्नाकर के अनुसार , ताल की परिभाषा इस प्रकार है –
तालस्तस्य प्रतिष्ठायामिति धातोधर्मि स्मृतः ।
गीतं वाद्यं तथा नृत्यं यतस्ताले प्रतिष्ठतिम् ।।
अर्थात् शारंगदेव कृत संगीत रत्नाकर में ताल शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए कहा है कि तिष्ठा अर्थ वाली धातुओं में धातु प्रत्यय के संयोग से ताल शब्द निर्मित होता है । गीत , वाद्य एवं नृत्य इसमें प्रतिष्ठित होते हैं , इस कारण इसे ताल कहा जाता है ।
- यहाँ प्रतिष्ठा अर्थ है एकसूत्र में बाँधना , व्यवस्थित करना , आधार प्रदान करना , स्थिरता लाना आदि ।
- गीत – वाद्य तथा नृत्य के विविध तत्त्वों को रूपात्मकतः व्यवस्थित करके स्थिरता प्रदान करने वाला और आधार देने वाला तत्त्व ही ताल कहलाता है ।
- संगीत शास्त्र में प्रतिष्ठा का सम्पादन ताल के द्वारा ही होता है ।
- ‘ तले भावस्तालः ‘ कहने का आशय यह है कि ‘ तल् ‘ अर्थात् ताल है । साधारण बोलचाल या वार्तालाप में तल का अर्थ नीचे रहने वाला या धारण करने वाले से लगाया जाता है ; जैसे – किसी भी वस्तु को हाथ में रखने के लिए हस्त तल ( हथेली ) का प्रयोग किया जाता है , ऐसे ही पूरे शरीर को धारण करने हेतु पदतल ( पैरों ) का प्रयोग किया जाता है ।
- पृथ्वी को धारण करने हेतु भूतल , पृथ्वी तल या अवनीतल आदि का प्रयोग किया जाता है , क्योंकि वह प्रत्येक वस्तु को अपने ऊपर धारण करती है । इन्हीं उपरोक्त लिखे उदाहरणों को ध्यान रखते हुए गीत , वाद्य , नृत्य तीनों कलाओं को धारण करने वाला आधार ताल कहलाता है । अतः यह सांगीतिक कला का महत्त्वपूर्ण तथ्य माना जाता है ।
ताल की उत्पत्ति कैसे हुई ?
- ताल शब्द की उत्पत्ति के विषय में कई मत प्रचलित हैं । संगीतवित नामक संस्कृत ग्रन्थ के अनुसार ताण्डव ( पुरुष ) नृत्य से ‘ ता ‘ और लास्य ( स्त्री ) नृत्य से ‘ ल ‘ वर्गों के संयोग से ‘ ताल ‘ शब्द बना है । ताल के ‘ त ‘ और ‘ ल ‘ इन दोनों अक्षरों को क्रमानुसार भगवान शिव और माता शक्ति का सूचक माना जाता है , जिसके फलस्वरूप ताल को शिवशक्त्यात्मक के नाम से भी पुकारा जाता है ।
- शारंगदेव ने ताल का लक्षण देते हुए कहा है कि लघु आदि तत्त्वों से मापी गई क्रियाओं के द्वारा गीतादि को धारण करते हुए सम्यक् रूप से नापने वाला काल ताल ही है ।
- सशब्द और नि : शब्द क्रिया विशेष के योग से निर्मित हुआ ‘ ताल ‘ , जो वास्तव में काल का विभाजक है , क्रिया रूप है और द्रव्यात्मक भी है वही गति को क्रिया के काल का मापन करने का साधन माना जाता है ।
- इसमें क्रिया सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानी जाती है , क्योंकि क्रिया के अभाव में | काल का ज्ञान सम्भव नहीं है । सत्यता तो यह है कि क्रिया के बिना ताल का अस्तित्व ही नहीं है । अत : ताल सर्वत्र व्याप्त है । हमारे वेद , उपनिषद् , रामायण , महाभारत आदि ग्रन्थों में विविध तालों के पूर्ण विकास का प्रमाण अतिप्राचीन कालिक रूप में देखने को मिलता है ।
- तालों की रचना बौद्धिक है । अतः समय – समय पर देशकाल की प्रचलित गायन शैलियों के अनुसार नई – नई तालों का निर्मितीकरण होता गया । गायन शैलियों की इस विभिन्नता ने ही समान मात्राओं वाली तालों को जन्म दिया , इसलिए हमारे ताल वादकों ने तथा संगीतज्ञों ने स्वतन्त्र चिन्तन करके एक ही मात्रा वाली अनेक तालों का निर्माण किया ।
- संगीतज्ञों के द्वारा ताल दो प्रकार के कहे गए – चतस्त्र – चार कोने वाला एवं तिस्त्र – तीन कोने वाला ।
- ताल की महत्ता को दर्शाने हेतु तालविहीन संगीत नासिकाविहीन मुख के समान बताया गया । ताल से अनुशासित होकर ही संगीत विभिन्न भावों और रसों की उपज अथवा उत्पत्ति करता है ।
- ताल के रथ पर स्वरों की सवारी सजाकर कुशल संगीतकार श्रोताओं को भाव – विभोर कर देता है , इसलिए ठुमरी , तराना , ध्रुपद , धमार , ख्याल आदि गीत व गायन शैलियाँ ताल व लय पर आश्रित होकर , श्रोतागणों पर यथोचित प्रभाव डालने में समर्थ होते हैं ।
- इस प्रकार , विविध मात्राओं के विभिन्न समूहों को ताल कहते हैं । ताल देने के लिए मुख्यत : तबला या पखावज का प्रयोग किया जाता है । ताल की गति को बनाए रखने हेतु हाथ से भी ताल देते हैं । प्रत्येक ताल में उपस्थित निश्चित स्वरों को तबले या पखावज पर बजाया जाता है । जैसे – धी ना किट तक आदि । ताल विभिन्न वर्गों से निर्मित होते हैं । इसमें लय का स्थान प्रमुख माना जाता है , क्योकि लय से मात्रा व मात्रा से ताल का निर्माण हुआ है । हमारे संगीत में ताल अनेक माने जाते हैं ; जैसे – झपताल ( 10 मात्रा ) , रुद्रताल ( 11 मात्रा ) , रूपक ( 7 मात्रा ) एवं ब्रह्म ताल ( 28 मात्रा ) इत्यादि ।
अतः हम यह कह सकते हैं कि ताल के अनुसार ही गेय रचना बनाई जाती है अथवा रचना के अनुरूप ताल उसके साथ बजाई जाती है । ताल वाद्यों के बोलों को लेकर ऐसा वर्ण समूह बना दिया जाता है , जिसको गिनने से जितनी मात्राएँ करती है । आती हैं उसके साथ रचना भी उतनी ही मात्राओं से युक्त गाई जाती है । अतः ताल किसी भी सांगीतिक रचना को आधार प्रदान करके सुव्यवस्थित रूप प्रदान करती है ।
इस अध्याय ” ताल किसे कहते हैं ? ” में बस इतना ही । सप्त स्वर ज्ञान से जुड़ने के लिए आपका धन्यवाद ।