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संगीत के 40 सिद्धान्त ( Hindustani Sangeet Paddhati )

पद्धति के चालीस (40) सिद्धान्त

हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति के चालीस (40) सिद्धान्त – कर्नाटिक ( दक्षिण भारतीय ) संगीत – पद्धति की तुलना में हिन्दुस्तानी ( उत्तर भारतीय ) संगीत पद्धति अपनी कुछ विशेषताएँ रखती है । यही कारण है कि आज मैसूर , मद्रास और कर्नाटक को छोड़कर शेष समस्त भारत में हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति ही प्रचलित है । यह पद्धति कुछ विशेष सिद्धान्तों पर अवलम्बित है ।

राग से सम्बंधित आपके कई संदेह इस लेख को पढ़ने के बाद दूर होने वाले हैं । ध्यान से पढ़िए ! चलिए आगे बढ़ते हैं और जानते हैं – Bhartiya Shastriya Sangeet Paddhati ke 40 Siddhant .

हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति के चालीस (40) सिद्धान्त

संगीत विद्यार्थियों को इन सिद्धान्तों का भली प्रकार मनन कर लेना चाहिए । श्री विष्णु नारायण भातखण्डे ने ‘ क्रमिक पुस्तक – मालिका ‘ के पांचवें भाग में इन पद्धतियों का विस्तृत उल्लेख किया है । उसी आधार पर निम्नलिखित संगीत के 40 सिद्धान्त दिये जा रहे हैं :-

1 – 20 ( Bhartiya sangeet Paddhati ke चालीस सिद्धान्त )

1. हिन्दुस्तानी ( उत्तर भारतीय ) संगीत पद्धति की नीव ‘ बिलावल थाट / ठाट ‘ को शुद्ध थाट मानकर रखी गई है , अर्थात् बिलावल थाट के स्वर ही शुद्ध स्वर – सप्तक का निर्माण करते हैं ।

2. समस्त रागों का वर्गीकरण तीन भागों में किया गया है – 1. औडव ( पाँच स्वरों के राग ) , 2. षाडव ( छह स्वरों के राग ) और 3. सम्पूर्ण ( सात स्वरों के राग ) ।

3. पाँच स्वरों से कम का और सात स्वरों से अधिक का ( कोमल – तीव्र मिला . कर बारह स्वर ) राग नहीं होता ।

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4. औडव , षाडव और सम्पूर्ण , इनके आरोह – अवरोह में उलट – पुलट होने से नौ प्रकार के भेद माने जाते हैं , जिनका विवेचन इस लेख राग की जाति का नामकरण तथा वर्गीकरण के अन्तर्गत किया गया है ।

5. प्रत्येक राग में ठाठ , आरोह – अवरोह , वादी – सम्वादी , समय और रंजकता , ये बातें अवश्य होती हैं ।

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6. वादी – सम्वादी स्वरों में प्रायः चार स्वरों का अन्तर होता है । वादी स्वर पूर्वाङ्ग में होता है तो सम्वादी स्वर उत्तरांग में होगा और वादी स्वर उत्तरांग में होगा तो सम्वादी स्वर पूर्वाङ्ग में होगा । 

7. वादी स्वर बदलकर शाम को गाए – बजाए जाने वाले राग को सुबह गाया बजाया जाने वाला राग बनाया जा सकता है ।

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8. राग में सुन्दरता लाने के लिए विवादी या वर्जित स्वर का भी किंचित प्रयोग किया जा सकता है ।

9. हर एक राग में एक वादी स्वर होता है , जिसका राग में विशेष जोर रहता है । वादी स्वर के आधार पर ही पूर्व – राग और उत्तर – राग पहचाने जा सकते हैं ।

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10. इस पद्धति के राग सामान्यतः तीन वर्गों में विभाजित किए जा सकते हैं । 1. कोमल ‘ रे – ध ‘ वाले राग , 2. शुद्ध ‘ रे – ध ‘ वाले राग और 3. कोमल ‘ ग – नि ‘ वाले राग । जो संधिप्रकाश राग सूर्यास्त और सूर्योदय के समय गाए – बजाए जाते हैं , वे अधिकांशतः प्रथम वर्ग में पाए जाते हैं । प्रातःकालीन संधिप्रकाश रागों में प्रायः रे – ध ‘ वर्जित नहीं होते तथा सायंकालीन संधिप्रकाश रागों में प्रायः ‘ ग नि ‘ वर्जित नहीं होते ।

11. इस पद्धति में मध्यम स्वर महत्त्वपूर्ण माना जाता है । इसे ‘ अध्वदर्शक स्वर ‘ कहा जाता है ; क्योंकि इससे दिन – रात के रागों को गाने – बजाने का समय निर्धारित होता है ।

12. जिन रागों में ‘ ग – नि ‘ कोमल लगते हैं , वे दोपहर या आधी रात को ही अधिकतर गाए – बजाए जाते हैं ।

13. संधिप्रकाश रागों के बाद प्रायः ‘ रे – म – ध – नि ‘ शुद्ध लगने वाले राग गाए – बजाए जाते हैं ।

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14. षड्ज , मध्यम और पंचम , ये तीन स्वर प्रायः दिन और रात्रि के तीसरे प्रहर के रागों में अपना विशेष महत्त्व से रखते हैं ।

15. तीव्र मध्यम अधिकतर रात्रि के रागों में ही पाया जाता है । दिन के रागों में यह स्वर कम दिखाई देता है ।

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16. ‘ सा – म – प ‘ ये स्वर पूर्वाग और उत्तरांग , दोनों भागों में ही होते हैं , अत : जो राग प्रत्येक समय ( सार्वकालिक ) गाए – बजाए जाने वाले होते हैं , उनमें इन तीन स्वरों में से एक वादी होता है ।

17. मध्यम और पंचम , ये दोनों स्वर एकसाथ किसी भी राग में वर्जित नहीं -होते । ‘ प ‘ वर्जित होगा तो ‘ म ‘ मौजूद होगा और ‘ म ‘ वर्जित होगा तो ‘ प ‘ मौजूद रहेगा ।

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18. किसी भी गग में षड्ज स्वर वर्जित नहीं होता ।

19. रागों में प्रायः एक ही स्वर के दो रूप ( कोमल – तीव्र ) पास – पास नहीं आने चाहिए , किन्तु ललित इत्यादि कुछ राग इस नियम के अपवाद हैं ।

20. अपने नियत समय पर गाने – बजाने से ही राग सुन्दर लगता है , किन्तु राज – दरबार तथा रंगमंच ( स्टेज ) पर यह नियम शिथिल भी हो जाता है । 

21- 40 – ( संगीत के चालीस (40) सिद्धान्त )

21. तीव्र ‘ म ‘ के साथ कोमल ‘ नि ‘ बहुत कम रागों में आता है ।

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22. दोनों मध्यम लगने वाले रागों में कुछ – कुछ एकरूपता पाई जाती है । इनकी भिन्नता प्रायः अवरोह में ही दिखाई देती है । ऐसे राग का अन्तररा बहुत कुछ मिलता जुलता रहता है ।

23. रात्रि के प्रथम प्रहर में जो दोनों मध्यम वाले राग गाए – बजाए जाते हैं , उनका एक साधारण सा नियम यह है कि शुद्ध माध्यम तो आरोह अवरोह, दोनों में लगता है , किन्तु तीव्र मध्यम केवल आरोह में ही दिखाई देता है तथा शुद्ध मध्यम की अपेक्षा ठाठ का उपयोग दोनों मध्यम वाले रागों में कम पाया जाता है ।

24. रात्रि के प्रथम प्रहर वाले रागों में एक नियम यह भी दिखाई देता है कि उनके आरोह में निषाद वक्र और अवरोह में गांधार वक्र रूप से लगता है । ऐसे रागों के अवरोह में प्रायः निषाद दुर्बल दिखाई देता है ।

25. हिन्दुस्तानी संगीत – पद्धति में ताल की अपेक्षा राग को अधिक महत्व दिया गया है । इसके विरुद्ध कर्नाटिक – संगीत – पद्धति में राग की अपेक्षा ताल का महत्त्व अधिक माना गया है ।

26. पूर्व – रागों की विशेषता आरोह में और उत्तर – रागों का चमत्कार अवरोह में दिखाई देता है ।

27. प्रायः प्रत्येक ठाठ से पूर्व – राग तथा उत्तर – राग उत्पन्न हो सकते हैं ।

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28. गंभीर प्रकृति के अंगों में षड्ज , मध्यम या पंचम का विशेष महत्व होता है तथा मंद्र – सप्तक में उनका अधिक महत्त्व माना गया है ; किन्तु क्षुद्र प्रकृति के रागों में यह बात नहीं पाई जाती ।

29. संधिप्रकाश रागों के द्वारा करुण व शांत रस , ‘ रे – ग – ध ‘ तीव्र वाले रागों से शृंगार व हास्य रस और कोमल ‘ ग – नि ‘ वाले रागों द्वारा वीर , रौद्र व भयानक रसों का परिपोषण होता है ।

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30. एक ठाठ के रागों से दूसरे ठाठों के रागों में प्रवेश करते समय परमेल प्रवेशक राग गाए – बजाए जाते हैं ।

31. संधिप्रकाश राग सूर्योदय और सूर्यास्त के समय गाए – बजाए जाते हैं और इनके बाद तीव्र ‘ रे – ग – ध ‘ वाले राग गाए बजाए जाते हैं या कोमल ‘ ग – नि ‘ वाले राग गाए बजाए जाते हैं ।

32. जिन रागों में कोमल ‘ नि ‘ लगता है जैसे काफी और खमाज ठाठ के राग उनके अवरोह में बहुधा तीव्र नि का भी प्रयोग कर दिया जाता है ।

33. किसी राग में जब स्वर लगाए जाते हैं , तो वे अपने कम , अधिक या बराबर के परिणाम में लगाकर दुर्बल, प्रबल या सैम मने जाते हैं । दुर्बल का अर्थ वर्जित नहीं है ।

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34. दो , तीन या चार स्वरों के समुदाय को ‘ तान ‘ कहते हैं , ‘ राग नहीं कह सकते । 

35. दोपहर बारह बजे के बाद तथा रात्रि को बारह बजे के बाद जो राग गाए – बजाए जाते हैं , उनमें क्रमशः ‘ सा – म – प ‘ का प्राबल्य होता चला जाता है ।

36. दोपहर को गाए – बजाए जाने वाले रागों के आरोह में रे – ध ‘ या तो लगते ही नहीं अथवा दुर्बल होते हैं । ठीक दोपहर के समय गाए – बजाए जाने वाले रागों में ऋषभ और निषाद स्वर खूब चमकते हैं ।

37. जिन रागों में ‘ सा – म – प ‘ स्वर वादी होते हैं , वे प्राय : गंभीर प्रकृति के राग होते हैं ।

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38. प्रातःकाल के रागों में कोमल ‘ रे – ध ‘ की प्रबलता रहती है और सायंकाल के रागों में तीव्र ‘ ध – नि ‘ अधिक दिखाई देते हैं ।

39. ‘ निसारेग ‘ , यह स्वर – समुदाय शीघ्रतापूर्वक संधिप्रकाशत्व सूचित करता है ।

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40. पूर्व – रागों का स्वरूप आरोह में तथा उत्तर – रागों का स्वरूप अवरोह में विशेष रूप से खुलकर दिखाई देता है । 

…………………………………………………………..end…………………………………………………………..

आशा करता हूँ ” संगीत के चालीस (40) सिद्धान्त ” का यह अध्याय आपको पसंद आया होगा । रागों को लेकर आपके कई सारे संदेह दूर हुए होंगे । इस लेख में बस इतना ही ।

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