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संगीत और रस – Music and Ras

संगीत और रस

संगीत और रस

संगीत और रस – स्वरों को उच्च और दीप्त करने से व लय के द्रुत स्वरों के अपकर्ष आदि से हास्य , शृंगार , करुण , वीर , रौद्र , अद्भुत , भयानक तथा वीभत्स आदि रसों की सृष्टि में सहायता मिलती है , जिसमें अनेक तत्त्व सम्मिलित किए जाते हैं ।

अत: ‘ रस – योजना ‘ ही सौन्दर्य – योजना है , जिसके प्रेक्षक तथा श्रोता आदि को ‘ हर्ष ‘ की उपलब्धि होती है । इस प्रकार पाठ्य , गान , अभिनय ( जिसमें नृत्य तथा वेशभूषा आदि को सम्मिलित समझना चाहिए ) तथा दृश्य , विधान , रंग पूजा आदि भी रस के तत्त्व हैं ।

हमारे विचारानुसार ‘ नाट्यशास्त्र ‘ की रस सम्बन्धी दृष्टि वरन् लौकिक जगत का हर्ष ही है , क्योंकि नाट्य में रस की सिद्धि के लिए पाठ्य , मूर्छना युक्त राग – संवाद ( अभिनय ) नृत्य , अभिनय के प्रकार आदि ( लय तथा ताल ) की समवेतता आवश्यक है । यही ‘ नाट्यरस ‘ भरत के नाट्यशास्त्र की जड़ है । इसी प्रकार भरत का नाट्यशास्त्र नाट्य के अभिप्रेरित और संगीत के गुणों से पूरित है । भरत ने ध्रुवागीत को नाट्य का प्राण कहा है ; जैसे –

” प्राणभूत तावद् धुवागान प्रयोगस्य । ”

भरत ने ध्रुवागीत तथा षड़जादि ग्राम रागों को वांछित रस की सिद्धि के लिए आवश्यक बताया है । इसी प्रकार ऐसी ध्रुवाओं का नाट्य में प्रयोग करने की बात भरत द्वारा बताई गई है , जोकि नाट्यवस्तु के प्रसंग के अनुसार वांछित रस की सृष्टि तथा अभिव्यंजन के लिए आवश्यक भी हो और उचित भी हो ।

इस प्रकार ऐसे ध्रुवों में रस में सहायक होने की तत्त्वरूपता अधिक होती है । यह ध्रुवाएँ , नाट्यगीत जो अनेक प्रसंगों को नए शब्दों तथा स्वरों के माध्यम से अभिव्यक्ति की सार्थकता प्रदान किया करते हैं , वांछित अर्थ की ध्रुवा का प्रयोग होता है । इस कारण वर्णालंकारों का प्रयोग भी इसी दृष्टि से किया जाना चाहिए । यदि भरत के रस सम्बन्धित चिन्तन तक ही हम सीमित रहे , तो नाट्यशास्त्र में उल्लेखित रस हमें कलादर्शन के रूप में एक विशुद्ध सौन्दर्यशास्त्र के रूप में ही दिखाई पड़ेगा ।

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इसका कारण यह भी है कि मूलरूप से भरत को ‘ रस ‘ सम्बन्धी भावयिता नाट्य के संस्पर्श से परिपोषित हुई है , क्योंकि भरत के अनुसार ही जिनका मन से स्वाद ग्रहण किया जाता है , उन्हें नाट्यरस समझना चाहिए । संगीत के स्वर और ताल , रस की सृष्टि में योजक तत्त्व हैं । इस दृष्टि से नाट्यकला में कलात्मक ज्ञान द्वारा उपलब्ध रस भरत के अनुसार एक प्रकार का कलादर्शन ही है अथवा ललित कलादर्शन है । सौन्दर्यशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में ‘ हीगल ‘ ने सौन्दर्यशास्त्र को ललित कलाओं का दर्शन कहा है ।

संगीत कला के प्रकार की बात करें तो नाट्य में तीन कलाओं के अन्तःसम्बन्धता भरत ने आवश्यक रूप से बताई है ; जैसे – गीत , वाद्य – वादन और नृत्य का अन्तर्सम्बन्ध , किन्तु इन तीनों कलाओं का प्रयोग उसी सीमा तक किया जाना चाहिए , जिससे प्रयोक्ताओं तथा प्रेक्षकों को अतिशयता के कारण प्रसन्नता के स्थान पर खेद की अनुभूति न हो , क्योंकि इस प्रकार खिन्नता के कारण रसभाव की स्पष्टता नहीं हो पाती और इस प्रकार सम्पूर्ण नाट्य – प्रयोग रंजकता से हीन हो जाएगा । यह भरत ने ध्रुवा – गीतों के नाट्यानुकूल प्रयोग के सम्बन्ध में कहा है ।

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