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कर्नाटक संगीत स्वरलिपि पद्धति
कर्नाटक संगीत स्वरलिपि पद्धति – कर्नाटक संगीत भारत के शास्त्रीय संगीत की दक्षिण भारतीय शैली का नाम कर्नाटक संगीत अधिकतर भक्ति संगीत के रूप में होता है और अधिकतर रचनाएँ हिन्दू देवताओं को सम्बोधित करती है । कर्नाटक संगीत का कुछ प्रेम और अन्य सामाजिक मुद्दों को भी समर्पित होता है । कर्नाटक शास्त्रीय शै में रागों का गायन अधिक तेज और हिन्दुस्तानी शैली की तुलना में कम समय को होता है । कर्नाटक शैली के विषयों में पूजा – अर्चना मन्दिरों का वर्णन , दार्शनिक चिन्तन , नायक नायिका वर्णन और देशभक्ति आदि शामिल होता है ।
दक्षिणात्य संगीत पद्धति में रागों के गायन – वादन में सूक्ष्म स्वर भेदों का प्रयोग स्पष्टतः दिखाई देता है , जिनसे राग के सौन्दर्य एवं रंजक पक्ष की अभिवृद्धि होती है । वर्तमान दक्षिणी संगीत में आलाप में प्राचीन स्वस्थाननियम का पालन नहीं किया जाता । अतः इसमें रागालाप के स्थान पर रागालाप्ति का व्यवहार होता है , जिसमें राग को स्पष्ट करने वाले स्वर समूहों के आधार पर आविर्भाव – तिरोभाव युक्त आलाप किया जाता है ।
अतः इनके स्वरलिपि पद्धति में अन्तर पाया जाता है तथा इनके विकास क्रम में अन्तर पाया जाता है । अतः इनका विस्तृत विवरण निम्नलिखित है
कर्नाटक संगीत स्वरलिपि पद्धति का विकास
कर्नाटक संगीत स्वरलिपि पद्धति का विकास प्राचीनकाल में संगीत की स्वर पद्धतियाँ पूरे भारत में एक ही थीं । अर्थात् उत्तरी और दक्षिणी संगीत पद्धतियों का मूल आधार एक ही था । वहीं मध्य काल में इनकी पद्धतियों में अन्तर प्रारम्भ हुआ ।
13 वीं शताब्दी में लिखा गया संगीत का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ‘ संगीत रत्नाकर ‘ है , जिसके लेखक ‘ पण्डित शारंगदेव ‘ हैं । मध्यकालीन संगीत का यह सबसे महत्त्वपूर्ण एवं प्रमाणिक ग्रन्थ है । उत्तरी व दक्षिणी संगीत पद्धति का यह आधार ग्रन्थ माना जाता है । संगीत के शास्त्र एवं कला दोनों पक्षों में पारंगत होने के कारण इन्हें उत्तरी हिन्दुस्तानी एवं दक्षिणात्य दोनों पद्धतियों में समान रूप से सम्मान प्राप्त था ।
वर्तमान समय में दोनों पद्धतियों में कुछ समानता व भिन्नताएँ दृष्टिगोचर होती हैं । यह सर्वविदित है कि भारतीय संगीत में वर्तमान में दो विधाएँ प्रचलित हैं – उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय । नाट्यशास्त्र से लेकर संगीत रत्नाकर एवं संगीतराज तक यही विदित होता है कि सम्पूर्ण भारत में प्राचीन समय में एक ही संगीत पद्धति विराजमान थी । विशिष्ट प्रदेशों के नाम रागों व वृत्तियों के साथ सम्बन्धित होने के प्रमाण मिलते हैं न कि किसी संगीत पद्धति से ।
नाट्यशास्त्र में नाट्य प्रयोक्ताजनों की मान्यता के अनुसार प्रवृत्तियों के चार प्रकार बताए गए हैं- आवन्ती , दक्षिणात्य , पाँचाली , मागधी ।
नाट्यशास्त्र में ऐसे किसी विशेष संगीत पद्धति व उससे सम्बन्धित राज्य का वर्णन नहीं मिलता । वृहद्देशी ग्रन्थ जो आचार्य मतंग ने लिखा है , उनके अनुसार इस ग्रन्थ भाषा रागों के एक भेद देशाख्या के अन्तर्गत विशिष्ट देशों के नामों से सम्बन्धित रागों की गणना की गई है ।
कुछ विद्वानों के मतानुसार कल्लिनाथ ने कुछ ऐसा संकेत दिया है कि उनके समय में दक्षिणात्य संगीत पृथक् अस्तित्व की नींव पड़ चुकी थी । वर्तमान दक्षिणी संगीत में पंचश्रुतिक , षटश्रुतिक तथा जन्यजनक मेल जैसी संज्ञाओं का प्रयोग होता है । अतः इन संज्ञाओं का प्रयोग कल्लिनाथ के द्वारा किया जाना अप्रत्यक्ष रूप से कर्नाटक संगीत के तत्कालीन अस्तित्व का प्रतीक है ।
कुछ विद्वानों के अनुसार कल्लिनाथ ने जिस संगीत पद्धति को अपनाया है , लगभग उसी का अनुसरण बाद के विद्वानों ; जैसे — रामामात्य आदि ने किया है , क्योंकि रामामात्य दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति के विद्वान् माने जाते हैं , इस बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि शारंगदेव के काल में दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति के बीज प्रस्फुटित हो गए थे ।
सन् 1565 में तालकोट्टा युद्ध में विजयनगर राजधानी के नष्ट हो जाने के पश्चात् तंजौर , मदुरै , मैसूर , जिज्जी और पेत्रुकोण्डा , इन पाँच स्वतन्त्र नायक राज्यों का उदय हुआ । इनमें तंजौर अन्य राज्यों की अपेक्षा अधिक सम्पन्न था । अतः यहाँ विजयनगर के अनेक कलाकारों का संरक्षण हुआ ।
अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल के प्रसिद्ध दक्षिणात्य संगीतज्ञ गोपालनायक ने तत्कालीन परिस्थिति को देखते हुए ‘ लक्ष्यसाहित्य ‘ को आलाप , ठाह , गीत और प्रबन्ध नामक चार भागों में विभाजित किया । यही चतुर्दण्डी नाम प्रचलित हुआ । चतुर्दण्डी साहित्य को बीस तालपत्र की पुस्तकों में लिखकर सुरक्षित किया गया । यह ग्रन्थ ‘ तंजौर सरस्वती महल पुस्तकालय ‘ में सुरक्षित रखा गया है । वेंकटमखी ने गोपालनायक का चतुर्दण्डी सम्प्रदाय के प्रवर्तक के रूप में वर्णन किया है । पण्डित वेंकटमखी जो 1620 ई . में तंजौर में थे , चतुर्दण्डी प्रकाशिका में चतुर्दण्डी का वर्णन करते हैं । वर्तमान दक्षिणी संगीत पद्धति के संगीत पर शाहजी और उनके भाई तुलाजी महाराज के संगीतसारामृत नामक ग्रन्थ का प्रभाव अधिक दिखाई देता है ।।
कर्नाटक संगीत की स्वरलिपि पद्धति
कर्नाटक संगीत की स्वरलिपि पद्धति में प्रमुख स्वरों के लिपिबद्ध का उल्लेख निम्नवत् है –
शुद्ध और विकृत स्वर को लिखना
कर्नाटक संगीत की स्वरलिपि में प्रत्येक रचना की स्वरलिपि से पहले राग का नाम , आरोह , अवरोह , उसके मेलकर्ता का नाम , प्रयुक्त ताल का नाम और रचयिता का नाम दिया जाता है , क्योंकि प्रत्येक राग में सम्बन्धित मेलकर्ता के ही स्वर होते हैं । अतः उसके स्वरों को मेलकर्ता में प्रयुक्त होने वाले स्वरों के आधार पर तुरन्त जाना जा सकता है । उसकी क्रम संख्या से मेलकर्ता के स्वर भी बड़ी आसानी से जाने जा सकते हैं । इसलिए कर्नाटक संगीत में स्वरों के कोमल या तीव्र जैसे भेदों को स्वरलिपि में लिखने की आवश्यकता नहीं होती है । परन्तु जब किसी राग में कोई स्वर ऐसा प्रयुक्त हो रहा हो जो उस मेलकर्ता में आने वाले स्वरों से भिन्न हो तो ऐसी परिस्थिति में इस अन्य स्वर को एक ‘ पुष्प चिह्न ‘ द्वारा दर्शाया जाता है ।
सप्तक के लिए चिह्न
स्वरों के नीचे हलन्त ( ) का निशान कोमल या विकृत स्वर हेतु लगाते हैं । मध्य सप्तक के स्वरों के लिए कोई चिह्न नहीं होता । मन्द्र सप्तक के लिए स्वर के ऊपर एक बिन्दु होता है ; जैसे निं धं पं । यदि मन्द्र सप्तक से भी नीचे के स्वर प्रयोग में लाने हों , तो उसे ‘ अनुमन्द्र सप्तक ‘ कहते हैं और तब एक के स्थान पर दो बिन्दु लगा दिए जाते हैं ; जैसे- नि ध प इसी प्रकार तार सप्तक के स्वरों को लिखने के लिए स्वर के ऊपर एक खड़ी लकीर ( l ) लगा दी जाती हैं ; जैसे सा रे ग । यदि अतिसार सप्तक के स्वरों का गायन करना हो तो एक के स्थान पर दो खड़ी लकीर ला दी जाती हैं ; ॥ ॥ ! | सा रे ग …..
योजक चिह्न ( – )
योजक चिह्न ( – ) जो चिह्न शब्दों या शब्द – खण्डों के बीच प्रयुक्त है , उसे योजक चिह्न कहते हैं । जो स्वर समूह ‘ ‘ के बीच लिखे जाते हैं , तथा उन सब को एक साथ मिलाकर गाया जाता है ; जैसे – पमगरिसनि – समगरिसनि – सगरिनि – सगा गामपघ – पमगम – प … आदि यहाँ पमगरिसनि स्वर समूह को लगातार गाना चाहिए । अर्थात् पमगरिसनि के बीच कहीं भी विश्राम नहीं लेना चाहिए । परन्तु दोनों स्वर – समूहों के बीच में जहाँ योजक चिह्न है , वहाँ कुछ विश्राम लिया जा सकता है ।
स्वरों का काल
कर्नाटक संगीत में ह्रस्व स्वर का काल एक अक्षर काल का माना जाता है ; जैसे – सरिग म प ध नि सं इत्यादि । ये सब एक – एक अक्षर काल के स्वर हैं । अब एक – एक अक्षर काल में निम्न पंक्ति निम्नलिखित हैं –
नि सा रि म | रि रि सा सा | ध ध नि नि | सा सा सा सा |
गि र ध र | ब्र ज घ र | मु र लि अ | ध र ध र |
प्रत्येक ह्रस्व स्वर के लिए साहित्य ( गीत ) में भी ह्रस्व अक्षर ही काम में लाया जाता है । परन्तु यदि गीत में दीर्घ अक्षर है , तो उसके लिए स्वर भी दीर्घ लिया जाता है । दीर्घ स्वर को दर्शाने के लिए सा , री , गा , मा , पा , धा , नी , सां स्वर लिखे जाते हैं ; जैसे – पानी नी सां
गीतों के बोल को लम्बा करना
जब गीत के बोलों को लम्बा करना होता है तो जितने ‘ अक्षरकाल ‘ तक लम्बा करना है , उतने स्वरों के नीचे बिन्दु ‘ …. ‘ लगा दिए जाते हैं । जैसे नीचे दिए जा रहे ‘ कामोद ‘ राग में जो गीत का बोल बढ़ाना है उसके आगे बिन्दुओं का प्रयोग किया गया है ; जैसे
प प प म | प म ज प | ग म रे म | स रे स रे |
या … अ | ज हूँ . न | आ … | ये … पि |
मींड का चिह्न
जिन स्वरों के मध्य में मींड से जाना हो , चाहे वह मींड अनुलोप हो या विलोप , उनके बीच में / चिह्न लगा दिया जाता है ; जैसे – ‘ प / सां ‘ अथवा ‘ सां / ध ‘ । इस प्रकार मींड से गाने में पहले स्वर की काल – गणना नहीं की जाती ।
गमक का चिह्न
गमक का चिह्न जब किसी स्वर के ऊपर या नीचे एक लहरदार रेखा लगी हो तो उसे स्वर को हिलाते हुए गाना चाहिए ; जैसे ‘ पसांनि ‘ में ‘ नि ‘ स्वर के नीचे लहर का चिह्न है । इसका अर्थ यह हुआ कि यहाँ ‘ नि ‘ स्वर षड्ज और पंचम के बीच में झूलता हुआ – सा गाया या बजाया जाएगा । कर्नाटक संगीत में प्रायः इस प्रकार की गमक का प्रयोग किया जाता है , जो निम्नलिखित हैं…..
‘ गमक ‘ का नाम | विवरण | उदहारण |
आरोहणम् | स्वरों का क्रम से ऊपर चढ़ना | सा रि ग म प ध नि सं |
अवरोहणम् | स्वरों का क्रम से नीचे आना | सं नि ध प म ग रि सा |
डालु | एक स्वर से दूसरे स्वर को लांघना | समा , सम , सप , सघ |
स्फुरितम् | द्रुत लय में प्रत्येक स्वर को दो – दो बार गाना | सस , रिरि , गग , मम |
शिवपुच्छम् | द्रुत लय में प्रत्येक स्वर को तीन – तीन बार गाना | ससस , रिरिरि , गगग |
आहतम | दो स्वरों को आरोह क्रम में श्रृंखला रूप में गाना | सरि , रिग , गम , मप |
प्रत्याहतम् | दो स्वरों को अवरोह क्रम में श्रृंखला रूप से गाते जाना | सन्धि , निध , घप , पम |
कम्पितम् | एक ही स्वर को कम्पित करके गाना | प प प प |
आन्दोलितम | स्वरों को ऊपर तथा नीचे झुला कर गाना | सारिसापप , सारिसामम , सारिसागग |
मूर्च्छना | आरोह – अवरोह को ही इस प्रकार से गाना कि राग स्वरूप भली – भाँति स्पष्ट हो जाए | स रि ग म प ध नि स सं नि ध प म ग रि स |
पुनः गाना
जब किसी स्वर समूह और गीत को पुनः गाया जाए तो उसके लिए समस्त स्वरलिपि एवं गीत को दुबारा नहीं लिखते बल्कि उसके स्थान पर पूर्वोक्त जैसा चिह्न ( ” ) लगा देते हैं । उदाहरण के लिए आदि ताल में स्वाति तिरुनाल की राग ‘ नीलाम्बरी ‘ में एक रचना ‘ विमल कमल दल लसित रुचिर नयन ‘ है ।
इसकी स्वर लिपि निम्नलिखित है ।
1.
X 1 2 3 | X | X |
सासा सानिया समगा मगमा | ” गम , पपा | मपगा रीरी |
विय ल.क म . ल ङ ल | .. ल सि त रू | चि.र नय |
X 1 2 3 | X 0 | X 0 |
गामप मा ; ; ; ; ; | रीगा रिगमा | मगगा सा ,, |
न…. …. …. … | …. …. | …. …. |
2.
X 1 2 3 X 0 | मगगा गरिरिप | यहाँ नम्बर 2 में |
.. .. | चि.र न . य |
‘ विमल कमल दल लसित तरु ’ तक तो ऊपर की भाँति ही गाया जाएगा , परन्तु ‘ चिर ‘ और ‘ नय ‘ में थोड़ा परिवर्तन है ।
राग पद्धति
कुछ रागों के नाम दोनों पद्धतियों में एक समान मिलते हैं , परन्तु उनके स्वरों में भेद है । जैसे कर्नाटक संगीत का हुनुमत तोड़ी राग उत्तरी संगीत पद्धति का ‘ भैरवी ‘ राग हैं । कुछ रागों के नामों में अन्तर है , परन्तु स्वर समान है ; जैसे – हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति के ‘ जोगिया ’ , ‘ मालकोश ’ , ‘ भूपाली ‘ और मध्यमाद सांरग के स्वरों पर गाए जाने वाले रागों को कर्नाटक संगीत पद्धति में क्रमशः ‘ सावेरी ‘ , ‘ हिन्दोलम् ‘ , ‘ मोहनम ‘ और ‘ मध्यमानति ‘ कहते हैं ।
कुछ रागों के नाम दोनों पद्धतियों में समान हैं ; जैसे– ‘ श्री ‘ . ‘ केदार ‘ , ‘ हिंडोल ‘ और ‘ सोहनी ‘ , परन्तु इनके स्वर में भेद है । कुछ राग दोनों पद्धतियों में ऐसे हैं जिनके नामों में समानता तो है , परन्तु स्वरों में थोड़ा – थोड़ा भेद है जैसे – ‘ अड़ाना ‘ , ‘ धनाश्री ‘ , ‘ श्रीरंजनी ‘ आदि । कुछ राग ; जैसे- ‘ हंसध्वनि ‘ , ‘ सिंहेन्द्रमध्यम ‘ , ‘ वीरवाणी ‘ इत्यादि दोनों पद्धतियों में समान हैं ।
कर्नाटक संगीत में सुर पर ठहराव कम रहता है इसलिए इसमें हिन्दुस्तानी संगीत जैस विलम्बित लय भी नहीं के बराबर होती है । संगीत रचनाएँ अधिकांशतः मध्य या द्रुत लय में गाई जाती हैं । जिस लय में रचना प्रारम्भ कर दी जाती है , उसी लय को अन्त तक स्थिर रखा जाता है । गायक कलाकार के साथ प्रायः वायलिन और मृदंगम् से संगति की जाती है । संगति करने वाले कलाकार केवल संगति ही नहीं करते वरन् बीच – बीच में उनका एकाकी वादन भी करते हैं । रागम् , तानम् और पल्लवि के अतिरिक्त पाँच – दस मिनट की छोटी – छोटी चीजें चलती रहती हैं । इस प्रकार कर्नाटक संगीत की सभाओं में गानों की संख्या अधिक रहती है ।
संगीत सभा का प्रारम्भ प्रायः वर्णम् से होता है जब गायक तीव्र लय के साथ गाते हैं और वायलिन तथा मृदंग वादक उत्साह से संगति करते हैं , जिससे सभा में उमंग भरा वातावरण हो जाता है । संगीत सभा का मुख्यांग रागम् – तानम् – पल्लवि होता है । उसके पश्चात् पदम् , जावलि तथा तराना गाए जाते हैं । अन्त में ‘ मध्यमावती ‘ राग गाकर अपनी गायन त्रुटियों के लिए क्षमा याचना की जाती है । इस प्रकार कर्नाटक संगीत की स्वरलिपि पद्धतियों में विभिन्न भागों को उचित स्थान प्राप्त है ।
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